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‘‘नई व्यवस्था में कुछ दिक्कतें तो स्वाभाविक’’

अगर आप एक करोड़ रुपये से ऊपर टर्नओवर वाले कारोबार को भी इनफॉर्मल मानना चाहते हैं तो हां, उन पर बोझ बढ़ा...
‘‘नई व्यवस्था में कुछ दिक्कतें तो स्वाभाविक’’

अगर आप एक करोड़ रुपये से ऊपर टर्नओवर वाले कारोबार को भी इनफॉर्मल मानना चाहते हैं तो हां, उन पर बोझ बढ़ा है।

पिछले एक साल के दौरान केंद्र की मोदी सरकार ने नोटबंदी और जीएसटी सरीखे दो अहम आर्थिक फैसले लिए हैं। इन दोनों ही मोर्चों पर गुजरात काडर के आइएएस अधिकारी डॉ. हसमुख अढिया ने अहम भूमिका निभाई। राजस्व सचिव के तौर पर अब वह जीएसटी के क्रियान्वयन की चुनौतियों से सरकार और अर्थव्यवस्था को उबारने में जुटे हैं। जीएसटी से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह ने डॉ. हसमुख अढिया से बातचीत की। पेश हैं मुख्य अंशः

 

जीएसटी को देश में अब तक के सबसे बड़े आर्थिक सुधारों में शुमार किया जा रहा है। लेकिन इसके क्रियान्वयन में कई तरह की दिक्कतें सामने आ रही हैं। इसे आप किस तरह देखते हैं?

कुछ दिक्कतें तो ऐसी हैं जिनका हमें अंदाजा था। नया सिस्टम है। नया कानून है। लोगों को समझने में समय लगता है। इसलिए हम मानकर चल रहे थे कि लोगों को कुछ परेशानियां तो आएंगी। लेकिन दूसरी बात यह है कि जीएसटी का जो हमारा कानून है वह टैक्स कम्पलायंस के बारे में बहुत पक्का कानून है। उसमें लूप होल कम छोड़े हैं हमने। इस कारण पहले कानून में जो लोगों को बच निकलने के रास्ते मिलते थे, इस तरह के रास्ते हमने बंद कर दिए हैं। इसलिए भी लोगों की थोड़ी उलझनें बढ़ गई हैं कि ये तो बहुत कड़ी व्यवस्था हो जाएगी। कुछ विरोध इसके कारण भी है।

लेकिन क्या नियम-कायदों और प्रक्रिया को इतना कठिन बना देने का यह नतीजा हुआ कि इसका पालन करना अपने आप में बड़ी चुनौती बन गया

जीएसटी व्यवस्था का पालन उतनी बड़ी मुश्किल नहीं है। लेकिन जैसे रिवर्स चार्ज मैकेनिज्म है। वह लोगों को पसंद नहीं आया। क्योंकि अब एक भी आदमी बिल के बगैर माल खरीद नहीं पाएगा। इससे थोड़ा-सा कम्‍प्लायंस बढ़ा है। लेकिन पहले जो व्यवस्था थी कि बिना टैक्स चुकाए आप जितना भी माल खरीद लो, वह सुविधा अब बंद हो गई है।

सवाल यह भी है कि बड़े कारोबारी और कंपनियों के पास जीएसटी पर अमल करने के लिए पर्याप्त इंतजाम हैं। लेकिन छोटे कारोबारियों के सामने बहुत मुश्किलें आ रही हैं।

यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप इनफॉर्मल सेक्टर किसे कहते हैं। मेरी दृष्टि से बिलकुल इनफॉर्मल तो वही है जिसका टर्नओवर 20 लाख से कम है। उससे ऊपर जिसका टर्नओवर एक करोड़ रुपये तक का है, उसे हम स्मॉल सेक्टर बोल सकते हैं। इस स्मॉल सेक्टर के लिए हमने कम्पोजीशन स्कीम दी है। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। अगर आप एक करोड़ रुपये से ऊपर टर्नओवर वाले को इनफॉर्मल मानना चाहते हैं तो हां, उस पर बोझ बढ़ा है। लेकिन वह इनफॉर्मल नहीं है। वह फॉर्मल है। इस सेक्टर में आने से उसे फायदा होगा। 

20 लाख रुपये तक के टर्नओवर वाले व्यापारियों को तो हमने पहले ही जीएसटी से मुक्त रखा है। फिर एक करोड़ रुपये तक के टर्नओवर वालों के लिए हम कम्‍पोजीशन स्कीम लेकर आए हैं, जिन्हें तीन महीने में एक बार रिटर्न फाइल करना है, अगर वे ट्रेडर हैं तो एक फीसदी टैक्स देना है, कुछ उत्पादन कर रहे हैं तो दो फीसदी देना है और अगर रेस्‍त्रां हैं तो पांच फीसदी टैक्स देना है। दरअसल, कारोबार के इनफॉर्मल सेक्टर से फॉर्मल सेक्टर में आने से दो चीजें होंगी। एक तो उसका खुद का फायदा है। वह आसानी से कर्ज ले पाएगा। आगे बढ़ने की राह आसान होगी। दूसरा, जितना ही इनफॉर्मल काम-धंधे फॉर्मल सेक्टर में आएंगे, उससे देश की जीडीपी भी बढ़ेगी। क्योंकि बहुत-सी आर्थिक गतिविधियां जीडीपी में दर्ज भी नहीं होतीं।

जीएसटी के चलते नौकरियों में कमी और नौकरियां जाने की खबरें आ रही हैं। इस चुनौती से कैसे निपटा जाएगा?

मेरा यह कहना नहीं है कि इनफॉर्मल सेक्टर पर असर नहीं पड़ा है। लेकिन हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें भी धीरे-धीरे फॉर्मल सेक्टर में लाया जाए। यह कहना सही नहीं है कि चूंकि इनफॉर्मल सेक्टर से हमारा गुजारा हो जाता था, उससे ही हमारी अर्थव्यवस्था चल रही थी, चाहे कर संग्रह हो या न हो, इसल‌िए वह सही है। इससे होता यह है कि एक ब्लैक इकोनॉमी बन जाती है, एक ह्वाइट इकोनॉमी बन जाती है। ऐसी ब्लैक ऐंड ह्वाइट वाली व्यवस्था किसी भी इकोनॉमी के लिए खतरा पैदा कर सकती है। हमें कोशिश यह करनी चाहिए कि छोटे कारोबारियों के नाम पर जो बड़े लोग टैक्स की चोरी करते हैं, उन्हें सिस्टम में लाया जाए।

जीएसटी नेटवर्क और रिटर्न फाइलिंग की प्रक्रिया में काफी दिक्कतें बताई जा रही हैं। इसे कैसे सुधारा जाएगा?

यह एक दंतकथा जैसा बन गया है। एक बार, एक दिन के लिए सिस्टम में परेशानी आई तो उसी के आधार पर बार-बार कहा जा रहा है कि जीएसटीएन का सिस्टम ठीक नहीं है। जबकि हकीकत यह है कि उसके बाद जीएसटीएन में कभी कोई गड़बड़ी नहीं आई। पिछले महीने जो रिटर्न फाइल हुए, सब ठीक-ठाक हुए। हां, यह अलग बात है कि नया सिस्टम है इसलिए बार-बार चार्टर एकाउंटेंट से पूछना पड़ता है। या किसी की मदद लेनी पड़ती है। लेकिन सिस्टम में फाइलिंग की कोई दिक्कत पिछले एक महीने में तो कम से कम नहीं आई है। जहां-जहां समस्याएं हैं, हम उसे सुधारने की कोशिश करेंगे।

निर्यातक रिफंड में देरी का मुद्दा उठा रहे हैं। क्या इसके पीछे भी जीएसटी कारण है।

आपको बता दूं कि भारत का निर्यात जुलाई-अगस्त में बढ़ा है। लेकिन रिफंड में देरी को लेकर  निर्यातकों में डर था, जिसे हमने तुरंत दूर करने का उपाय किया। तीन महीने तक तो ड्यूटी ड्रॉ बैक चल रहा था इसलिए रिफंड की जरूरत नहीं थी।

पिछले तीन महीने में कई बार जीएसटी के रेट बदले गए। कई नियमों में भी बदलाव हुआ। क्या इन बातों का पहले अंदाजा नहीं था?

जीएसटी रेट तय करने का बेसिक फार्मूला यही था कि जो मौजूदा रेट है उसी के आसपास जीएसटी रेट तय किया जाएगा। इसमें कोई गलती नहीं हुई है। लेकिन कई उद्योग-धंधे ऐसे थे जो एक्साइज ड्यूटी नहीं भर रहे थे। फिर छोटे कारोबारियों और आम जनता से जुड़ी चीजों को ध्यान में रखना था, इसलिए रेट कम किए गए। इसमें कोई बुराई नहीं है।

अब दूसरे उद्योग भी इसी प्रकार रेट में कटौती की मांग उठा सकते हैं। इससे कैसे निपटेंगे?

इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार को लचीला रुख रखना चाहिए। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हर मांग को मान लिया जाएगा। वैसे भी जीएसटी के रेट का फैसला कोई एक व्यक्ति नहीं करता। पूरी जीएसटी काउंसिल विभिन्न पक्षों पर लंबे विचार-विमर्श के बाद निर्णय लेती है। रेट में कोई भी बदलाव व्यापक जनहित को ध्यान में रखकर ही ‌किया जाता है। 

मिलती-जुलती वस्तुओं के अलग-अलग जीएसटी रेट की समस्या कैसे हल की जा रही है? 

इसे हम ठीक कर रहे हैं। वस्तुओं की समीक्षा की जा रही है। इसके लिए एक कमेटी बनाई है। इस बारे में एक कॉन्सेप्ट पेपर भी बनाया है कि अब रेट बदले जाएंगे तो किस आधार पर बदले जाएंगे।

विभिन्न राज्यों में कारोबार करने वाली कंपनियों को अलग-अलग राज्यों में जीएसटी का रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है। फिर एक राष्ट्रीय बाजार बनाने की अवधारणा कैसे पूरी होगी?

यह तो पहले भी होता था। हर राज्य में वैट के लिए रजिस्ट्रेशन कराना होता था। केवल सेंट्रल रजिस्ट्रेशन तभी संभव है जब संविधान में अप्रत्यक्ष करों के संग्रह का पूरा अधिकार केंद्र सरकार को दिया जाए। लेकिन क्या राज्य इसके लिए तैयार होंगे?

पेट्रोलियम उत्पादों को जीएसटी के दायरे में लाने को लेकर काफी चर्चाएं हो रही हैं। क्या यह संभव हो पाएगा?

यह तुरंत तो संभव नहीं है। अभी सिर्फ नेचुरल गैस को जीएसटी के दायरे में लाया जाना संभव है। राज्यों के राजस्व का अभी बहुत बड़ा हिस्सा पेट्रोलियम उत्पादों से आता है, वे तैयार नहीं हैं।

टैक्स संग्रह में बढ़ोतरी की कितनी उम्मीद है?

राजस्व संग्रह में उछाल की फिलहाल तो उम्मीद नहीं है। सब ठीक रहा तो भविष्य में ऐसा होने की उम्मीद की जा सकती है।

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