गुजरात के ऊना में दलित युवकों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के बाद एक ऐसा आंदोलन छिड़ा, जिसकी देश में दूसरी मिसाल मुश्किल से ही मिलती है। अहमदाबाद के 36 वर्षीय वकील जिग्नेश मेवाणी के नेतृत्व में दलितों ने मृत पशुओं को उठाकर ले जाने के काम से इनकार किया और भूमि अधिकार के लिए भी आंदोलन छेड़ दिया। भाजपा और संघ के गढ़ गुजरात में उनकी नीतियों के खिलाफ राजनीतिक जमीन तैयार कर रहे जिग्नेश से हमारे एसोसिएट संपादक अजीत सिंह ने लंबी बातचीत की। कुछ अंश:
हैदराबाद में रोहित वेमुला, गुजरात में ऊना कांड और अब यूपी में सहारनपुर हिंसा, इन घटनाओं और मौजूदा दलित राजनीति को आप किस तरह देखते हैं?
ऊना, सहारनपुर, अलवर, दादरी और लातेहार की घटनाएं भाजपा और आरएसएस की हिंदू राष्ट्र बनाने की छटपटाहट का नतीजा हैं। नरेन्द्र मोदी के पीएम और योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने के बाद एबीवीपी, संघ और बीजेपी के काडर और जातिवादी, सांप्रदायिक तत्वों का मनोबल बढ़ा है। अलवर में पहलू खान की हत्या, इसी तरह अहमदाबाद में हत्या, पाटन जिले में मुस्लिम समुदाय के घर जलाने और अब सहारनपुर की घटनाओं से साबित हो गया है कि इन तत्वों को अब किसी का खौफ नहीं है। संघ और भाजपा ने इन्हें पूरी छूट दे रखी है। पश्चिमी यूपी में जिस तरह दादरी, मुजफ्फरनगर और सहारनपुर की घटनाएं हुईं, मुझे पूरी आशंका है कि यह सुनियोजित हैं ताकि गुजरात, हिमाचल, राजस्थान के चुनाव और फिर 2019 में ध्रुवीकरण का फायदा उठाया जा सके।
ऐसी घटनाओं के बावजू ददलित-पिछड़ा और मुस्लिम एकजुटता क्यों नहीं दिख रही है?
रोहित वेमुला के मामले में दलित और मुस्लिम साथ आए। ऊना में एकजुट हुए। सहारनपुर में भी दलित-मुसलमान साथ नजर आ रहे हैं। लेकिन सिर्फ दलित और मुसलमान की एकता से बात नहीं बनेगी। देश को सांप्रदायिकता और जातीय हिंसा की तरफ इसलिए धकेला जा रहा है ताकि युवाओं की नौकरियों, किसानों की आत्महत्याओं, हर सिर पर छत और हर खाते में 15 लाख रुपये जैसे वादों से ध्यान भटकाया जा सके। चूंकि दलितों और मुसलमानों को प्रताड़ित किया जा रहा है, इसलिए इन्हें तो साथ आना ही चाहिए। लेकिन जितनी भी जनवादी ताकतें हैं, युवा वर्ग है, उसे इस लड़ाई की अगुआई करनी पड़ेगी।
लेकिन यूपी विधानसभा चुनावों में दलित और ओबीसी का एक वर्ग भाजपा की ओर जाता दिखाई दिया है।
यह हमारे लिए सबसे कन्फ्यूजिंग बात है। ऐसा क्यों हो रहा है इसका मेरे पास कोई पुख्ता जवाब भी नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि सपा और बसपा भी जनता के रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, चिकित्सा, महंगाई, भ्रष्टाचार से जुड़े अस्तित्व के सवाल उठाने में विफल रही हैं। दूसरी बात, वोटों का बड़े पैमाने पर बंटवारा हुआ। रोहित वेमुला, ऊना और अब सहारनपुर की घटनाओं के बाद जिस तरह से युवा वर्ग का उभार दिखाई दिया, युवाओं की छटपटाहट सामने आई है, उससे पता चलता है कि परंपरागत बहुजनवादी राजनीति से नौजवानों का मोहभंग हो चुका है। आंबेडकरवादी आंदोलन भी ढंग से खुद को तार्किक रूप नहीं दे पा रहा है। अपना आंदोलन खड़ा नहीं कर पा रहा है, उससे भी एक तरह की कुंठा है। जब इतने बड़े पैमाने पर शोषण हो, बेरोजगारी हो, महंगाई हो लेकिन बात सिर्फ जातिगत आधार पर एकता की करें तो आप कोई लड़ाई नहीं लड़ सकते। आत्म-सम्न की लड़ाई के साथ-साथ अपने अस्तित्व की लड़ाई भी लड़नी पड़ेगी।
यानी आप मानते हैं कि दलित राजनीति को अस्मिता की लड़ाई तक सीमित नहीं होना चाहिए?
हां, दलित मजदूर भी है, तो वह अपने आर्थिक शोषण के खिलाफ क्यों न लड़े। दलित छात्र भी है तो शिक्षा के बाजारीकरण के खिलाफ संघर्ष क्यों न करे। दलित भी नागरिक है तो नागरिक से जुड़े जितने भी सवाल है, उसे भी उठाने चाहिए। लेकिन वे इन मुद्दों पर लड़ते नहीं। बस 'मनुवाद मुर्दाबाद’, 'ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद’, यहां हमको मारा, यहां हमको पीटा, जय भीम .. बात खत्म।
ऊना के बाद आपको और अब सहारनपुर के बाद भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद को दलित आंदोलन की बड़ी उम्मीद के तौर पर देखा जा रहा है। क्या यह राजनीतिक दलों से मोहभंग का संकेत है?
आज अठावले, पासवान, उदित राज भाजपा के राम के हनुमान बन गए हैं। मायावती 2002 में भाजपा के पक्ष में प्रचार करने गईं। दलितों के अस्तित्व से जुड़े बुनियादी सवालों को नजरअंदाज करते हुए इतने बड़े-बड़े वैचारिक समझौते किए गए। 'मनुवाद मुर्दाबाद’, 'ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद’ के साथ पहचान की राजनीति में उलझे रहे। ये सब दलित राजनीति की असली चुनौतियां हैं। दलित आंदोलन में जाति उन्मूलन कैसे हो, इसका कोई विमर्श ही नहीं है। जबकि किसी भी दलित संगठन, संस्था या पार्टी का असल मकसद जाति उन्मूलन होना चाहिए। लेकिन इस पर कोई बात ही नहीं कर रहा है। मेरे पास जाति-उन्मूलन का कोई ब्लू-प्रिंट नहीं है, लेकिन उस विमर्श में तो जाना पड़ेगा। संघर्ष इस बात का है कि न तुम सवर्ण हो, न मैं दलित हूं। हम सब इंसान हैं।
भीम आर्मी और चंद्रशेखर के बारे में आपकी क्या राय है?
सहारनपुर हिंसा के खिलाफ जंतर-मंतर पर कई संगठनों के लोग आए, जो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से खुद को ठगा महसूस करते हैं। बाकी भीम आर्मी की क्या विचारधारा है, मैं इससे वाकिफ नहीं हूं। चंद्रशेखर से भी सिर्फ एक ही औपचारिक भेंट हुई। लेकिन एक बात जाहिर है कि भीम आर्मी में आक्रामकता और प्रतिरोध की भावना है, जो अच्छी बात है। उम्मीद है कि उसके ये तेवर कायम रहेंगे।