आप भाजपा से क्यों अलग हुए?
भाजपा छोड़ने की वजह साफ और सीधी-सी है। भाजपा वह भाजपा नहीं रही, जिसमें मैं 1993 में शामिल हुआ था। चाल, चरित्र और चिंतन बदल गया है। भाजपा दो लोगों की गिरफ्त वाली पार्टी बनकर रह गई है, इसमें किसी तीसरे की कोई जगह नहीं है।
भाजपा अचानक बदली या इसके पीछे कोई खास डिजाइन रही है?
भाजपा अचानक नहीं बदली। इसके पीछे सोची-समझी रणनीति है। पहला प्रयोग गुजरात में हुआ, फिर 2014 के बाद उसे राष्ट्रीय स्तर पर क्रियान्वित किया गया। गुजरात में भी लगभग यही बात हुई कि वह एक-दो लोगों की पार्टी बनकर रह गई थी और ये लोग जो चाहते थे, वही होता था। वरना छह या सात बार अहमदाबाद से सांसद रहे हरीन पाठक का टिकट 2014 में अचानक नहीं काटा जाता। गुजरात भाजपा के सभी वरिष्ठ नेता केशुभाई पटेल से लेकर कांशीराम राणा, सुरेश भाई मेहता तक सबको दरकिनार कर दिया गया। गुजरात में यह हो रहा था और केंद्र की पूरी पार्टी नतमस्तक रही। फिर 2014 के बाद केंद्र में भी वही हुआ। तमाम वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर दिया गया। कोई बता सकता है कि जो मार्गदर्शक मंडल बना, उसकी एक भी बैठक क्यों नहीं हुई?
जब आपकी जगह आपके बेटे को टिकट दिया गया, तो क्या वह मोलतोल था या कुछ और?
कोई बार्गेनिंग नहीं थी। मैं बिलकुल स्पष्ट कहूंगा कि 2014 आते-आते मेरा मन बन गया था कि मैं चुनावी राजनीति में नहीं रहूंगा। एक सार्वजनिक जीवन होता है और यह विस्तृत क्षेत्र है, जिसमें वे सारे लोग आते हैं, जिनका कुछ न कुछ जनता के साथ लेना-देना होता है। इसमें नेता, पत्रकार, जज, बुद्धिजीवी, प्रोफेशनल आते हैं। ये सारे मिलकर किसी देश का सार्वजनिक जीवन बनाते हैं। सबसे बड़ा सार्वजनिक जीवन है। उसके बाद राजनीति और राजनैतिक दल आते हैं। मैंने पार्टी को बताया कि मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा। जयंत सिन्हा ने इच्छा दिखाई कि वे भाजपा की तरफ से चुनावी राजनीति में आना चाहते हैं, तो मैंने यह बात पार्टी के नेताओं को बताई। अंत तक वे कोशिश करते रहे कि मैं ही चुनाव लड़ूं। लेकिन जब मैंने साफ कर दिया कि मैं चुनाव नहीं लड़ना चाहता हूं तो उन्होंने जयंत सिन्हा को उम्मीदवार बनाया। इसमें कोई बार्गेनिंग नहीं थी।
क्या 2014 के पहले ही पार्टी बदल चुकी थी क्योंकि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नियुक्त करते समय आडवाणी जी तो असहमत थे, बाकी केंद्रीय नेता चुप रहे थे?
हां, बदल चुकी थी। इसके बहुत-से प्रमाण हैं। आडवाणी जी ने जरा-सी आपत्ति जताई तो उनके घर के सामने विरोध प्रदर्शन किया गया। आडवाणी जैसा वरिष्ठ नेता विचार व्यक्त करे, तो विरोध प्रदर्शन हो, यह भाजपा की संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा है। उसके बाद मुझे रांची की एक घटना याद आती है। मैं यह देख हैरान रह गया कि पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह मोदी जी से पहले बोले। मैं मानता था कि पार्टी का अध्यक्ष प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार से ऊंचा होता है। यानी जैसे मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार घोषित हुए, राजनाथ सिंह समेत बाकी नेतृत्व सरेंडर कर चुका था। इसीलिए उम्मीदवारों के चयन से लेकर मैनिफेस्टो तक मोदी और उनके लोगों ने तैयार किया।
पहली बार आपने अखबार में लेख लिखकर असंतोष जाहिर किया। आपने यह साफ करने में काफी इंतजार किया कि स्थितियां ठीक नहीं हैं?
अगर किसी ने भी यह सोचा कि जयंत सिन्हा मेरे पुत्र हैं और वे मंत्री बन गए हैं तो मैं अपने विवेक और अंतरात्मा को दबा कर, जो कुछ होता रहेगा उसे टुकुर टुकुर देखता रहूंगा, तो गलती थी। मैंने अपने अनुभव के आधार पर मोदी जी और सरकार को समय-समय पर सुझाव दिया। मुझे घोर आश्चर्य और वेदना हुई कि मेरे किसी पत्र की पावती भी प्रधानमंत्री कार्यालय से नहीं आई। सरकार ने कई ऐसे फैसले किए, जो मुझे लगा कि सही नहीं हैं और देश गलत दिशा में जा रहा है। मेरी निराशा उस स्तर तक पहुंच गई थी, जिस पर मैंने महसूस किया कि इन बातों की ओर जनता और देश का ध्यान आकर्षित करना चाहिए। तब मैंने वह लेख इंडियन एक्सप्रेस में भेजा और उन्होंने छापा।
एनडीए की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार और अब नरेंद्र मोदी सरकार में आपको क्या फर्क नजर आता है?
फर्क ही फर्क है। एक तो काम करने की शैली है। वाजपेयी जी बहुत बड़े डेमोक्रेट थे। उसका नतीजा यह होता था कि न सिर्फ सरकार में, बल्कि पार्टी में भी प्रजातांत्रिक तरीकों से ही काम होता था। उसके आसपास भी वर्तमान सरकार फटक नहीं रही है। हमलोग अपना विचार खुलकर रखते हैं। यह कैबिनेट सीक्रेसी वाली बात हो जाएगी, लेकिन कई बार हमलोग बिलकुल विरोध में खड़े हो जाते थे। चाहे हमारा घोर मतभेद है और फैसला हो गया तो मैं उसके साथ खड़ा रहूंगा।
क्या आपको लगता है कि मुद्दे और नीतियों पर भी पार्टी की राय बदल गई है?
विभिन्न मसलों पर भाजपा की राय भी एकदम बदल गई है। अटल जी के नेतृत्व में न्यूक्लियर डील का हम लोगों ने लगातार विरोध किया। यूपीए के समय जो न्यूक्लियर सिविल लाइबिलिटी लॉ बना, उसे सख्त बनाने में सबसे बड़ी भूमिका भाजपा की थी। अगली सरकार आई तो इस लॉ को तहस-नहस कर दिया और देश में किसी को पता ही नहीं है। बिना संसद में गए कानून बदल दिया गया।
दूसरा उदाहरण इंश्योरेंस क्षेत्र का है। प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 26 फीसदी रखी गई थी। यह बात उठी कि विदेशी निवेश 49 प्रतिशत कर दिया जाए, तो बिल संसदीय समिति (वित्त) के पास पहुंचा। तब के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम एड़ियां रगड़ते रह गए लेकिन वही कायम रहा। जब हमारी सरकार आई तो हमने अध्यादेश से विदेश निवेश 49 प्रतिशत लागू कर दिया। फिर दोनों सदनों में पास किया गया। हमलोग आधार बिल के खिलाफ थे। आधार बिल का क्या किया इन लोगों ने। उसे मनी बिल करके राज्यसभा में बहस से वंचित कर दिया। ऐसे कई उदाहरण हैं, जैसे जीएसटी। पार्टी पक्ष में थी, लेकिन गुजरात की सरकार खिलाफ थी। कई उदाहरण हैं, जहां 2014 में सरकार में आने के बाद हम लोगों ने बिलकुल पलटी मार दी।
कब लगा कि गलत दिशा में जा रहे हैं?
मैंने अपने लेख में लिखा था कि जो आंकड़े दिए गए हैं, वास्तविक आर्थिक विकास दर उससे दो फीसदी कम है। पुराने फार्मूले के मुताबिक आठ और नए फार्मूले के मुताबिक 10 प्रतिशत ग्रोथ नहीं होती है तब तक गरीबी और बदहाली से नहीं निपट सकते हैं। पिछले साल ग्रोथ रेट 6.5 प्रतिशत तक आ गई। उससे भी अधिक यह तकलीफदेह है कि सरकार में बैठे लोग गलत आंकड़े पेश कर रहे हैं और देश की जनता को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हैं। अगर थोड़ा बहुत काम हुआ है, तो हाइवे का हुआ है, जहां नितिन गडकरी हैं। बाकी जैसे पीयूष गोयल पावर मिनिस्टर हैं। इतना बढ़िया काम किया कि उन्हें राज्यमंत्री से कैबिनेट मंत्री बना दिया गया। हाल में मैंने एक लेख लिखा कि कैबिनेट के सुपरमैन वही हैं। लेकिन आज देखिए कि पावर के क्षेत्र में क्या हो रहा है। खबर है कि तीन लाख करोड़ रुपये के एनपीए की बात छुपाई गई है। साढ़े नौ लाख करोड़ रुपये पहले से है और उसमें तीन लाख करोड़ रुपये जोड़ दें तो साढ़े 12 लाख करोड़ रुपये का हो गया। 2014 के पहले एनपीए एक लाख करोड़ रुपये से नीचे था और चार साल में साढ़े 12-13 लाख करोड़ का एनपीए हो गया, तो उसकी जिम्मेदारी जवाहरलाल नेहरू की है?
पार्टी के बाकी जो बुजुर्ग नेता हैं, वे क्यों नहीं बोलते हैं?
जोशी जी दबी जुबान में कभी-कभी बोलते हैं। हम लोगों ने एक बार प्रयास किया था। कम से कम पार्टी में जो कामकाज का तरीका है, उसमें बदलाव हो। बिहार चुनाव के बाद जोशी जी, आडवाणी जी, शांता कुमार और मैंने बयान जारी किया था, जिसमें कहा था कि पार्टी की इन गतिविधियों में सुधार की आवश्यकता है। उसके बाद मुझे लगा कि वे तीनों मैनेज हो गए। भीतरखाने वे अपनी व्यथा व्यक्त करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहते क्योंकि चुनाव सिर पर हैं, चिंता है कि टिकट मिलेगा कि नहीं!
तो क्या आरएसएस ने भाजपा की नई कार्यशैली स्वीकार कर ली है?
मैं प्रत्यक्ष तौर पर उस पर टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं हूं, क्योंकि संघ के लोगों से मेरी बात नहीं हुई है। लेकिन जिस तरह से चल रहा है, उससे लगता है कि संघ ने सहर्ष स्वीकार कर लिया है। आपको एक बात बताता हूं कि प्रधानमंत्री मोदी जी गुजरात से आते हैं। सामान्यतः यह होता है कि प्रधानमंत्री एक प्रदेश से है, तो राष्ट्रीय अध्यक्ष दूसरे प्रदेश से होगा। ऐसा नहीं हुआ और किसी ने चूं तक नहीं किया।
किसान, नौकरी, विदेश नीति औऱ सुरक्षा के मामालों में आपकी क्या राय है?
देखिए, एक तो किसानों का इन्होंने चार साल तक एमएसपी नहीं के बारबर बढ़ाया और अब चुनावी साल आया तो घोषणा की कि 150 प्रतिशत हम बढ़ा रहे हैं। चारों तरफ उसी का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। आज देश का किसान परेशान इसलिए है कि मंडी में कीमतें इतनी गिरी हैं कि किसानों को नुकसान ही नुकसान हो रहा है। उसके बाद कर्ज से दबा है, जहां-जहां ऋणमाफी की बात होती है, वहां ठीक से लागू नहीं होती है। आज देश में कोई वर्ग सबसे ज्यादा तकलीफ में है, तो वह किसान है। मुझे लगता है कि किसान सरकार से खुश नहीं।
नौजवान को नौकरी नहीं मिल रही है और सरकार झूठ का सहारा लेकर दावा कर रही है कि एक करोड़ जॉब बन गए। नौजवान और महिलाओं की दुर्दशा, दलितों के साथ जो हो रहा है, उसे आप देख रहे हैं। तो समाज का एक बड़ा तबका इस तरह त्रस्त है और इसलिए चारों तरफ सोशल अनरेस्ट हो रहा है। क्यों वसुंधरा राजे ने कहा कि बेरोजगारी के कारण हो रहा है। वो तो बड़ी नेता हैं। क्यों नितिन गडकरी कह रहे हैं कि आरक्षण तो हो जाएगा, लेकिन नौकरियां कहां से आएंगी। खुद वे लोग इसे मान रहे हैं।
राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के मोर्चे को देखिए। इन चार-सवा चार साल में सबसे ज्यादा किसी चीज का प्रचार हुआ तो वह विदेश नीति की सफलता का और हम लोगों ने विदेश नीति का अर्थ यह लगाया कि हमारे प्रधानमंत्री कितने देशों में गए और कितने देशों के शासनाध्यक्षों से गले मिले। अगर आप ठंडे दिमाग से इसके बारे में सोचें तो किसी भी देश के लिए महत्वपूर्ण उसका पड़ोस होता है। आज नेपाल हमारे साथ नहीं है। बांग्लादेश से रिश्ते अभी कुछ सुधरे हैं। भूटान में पहली बार चीन के उपमंत्री होकर आए हैं। श्रीलंका आज हमारे साथ नहीं है। मालदीव हमें अंगूठा दिखाता है। पाकिस्तान के साथ जो हाल है, वह तो है ही। उसके बाद चीन के साथ हमने जो संबंध बनाए हैं, वह एक बार फिर आत्मसमर्पण पर आधारित है। डोकलाम में क्या स्थिति है। किसी भी कीमत पर हम दोस्ती बना कर रखेंगे, ये कभी भी सही नीति नहीं होती है। अमेरिका के साथ ट्रंप शासन में जो उतार-चढ़ाव हो रहा है, उसे आप देख रहे हैं। रूस हमारा सहयोगी रहा है। आज रूस-चीन और पाकिस्तान इकट्ठे खड़े हो गए हैं।
गोरक्षा के नाम पर हो रही लिचिंग को आप कैसे देखते हैं?
कहीं न कहीं ऐसे लोगों को भरोसा हो गया है कि यह सरकार हमको बचाएगी। जब दंड का भय खत्म हो जाता है तब अपराधी चरित्र हावी हो जाता है। आप लिंचिंग की बात कर रहे हैं, लेकिन महिलाओं और बच्चियों के साथ जो हो रहा है वह तो और भयानक है।
हर लक्ष्य 2022 के लिए क्यों है?
हां, जो लक्ष्य पांच साल में नहीं हासिल कर पाए तो 2019 से 2022 तक तीन साल में क्या बदल देंगे। लेकिन ये सपने दिखाने की बात है कि देश की जनता को हम लगातार बाइस्कोप दिखाते रहे हैं कि देखें आने वाले दिन ऐसे रहेंगे।
क्या नोटबंदी वित्त मंत्रालय का फैसला था, उससे कितना नुकसान हुआ?
नोटबंदी की जानकारी वित्त मंत्रालय को नहीं थी। कश्मीर में पीडीपी से समर्थन वापस ले रहे हैं, इसकी जानकारी गृह मंत्री को नहीं थी। सुषमा स्वराज को विदेश मंत्रालय की जानकारी नहीं है। राफेल डील पेरिस में हो रहा है, इसकी जानकारी रक्षा मंत्री को नहीं है। तो ये लोग क्यों वहां पर हैं? जहां तक नोटबंदी के नुकसान की बात है तो मेरा हिसाब तो छोड़ दीजिए। वर्ल्ड बैंक की एक रिपोर्ट आई है, उसमें अनूठा प्रयोग किया गया है।
सैटेलाइट से पता चलता है कि रात में कहा-कहां रोशनी है। तो भारत में नोटबंदी से पहले और बाद की जो रोशनी थी, उसका विश्लेषण किया। रोशनी जहां-जहां बुझ गई उस आधार पर कहा कि जीडीपी में 7.3 फीसदी का नुकसान हुआ। मनमोहन सिंह जो दो फीसदी कहा करते थे, तो सारी भाजपा उन पर पिल पड़ी थी। तो विश्व बैंक की रिपोर्ट आई, उसे भी दबा दिया गया।