अपने 43 बरस के राजनैतिक जीवन में कई बार विपक्षी एकता में अहम भूमिका निभाने वाले जनता दल (यूनाइटेड) नेता शरद यादव ने महागठबंधन को झटका देने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अलग राह ले ली है। इस तरह के फैसले उनके लिए नए नहीं हैं। जदयू के अंदरूनी झगड़ों में उलझने के बजाय उनका जोर “साझी विरासत” और राष्ट्रीय राजनीति को नया तेवर देने पर है। क्या यह कोशिश उन्हें विपक्षी एकता का सूत्रधार बना पाएगी? इस तरह के कई सवालों पर आउटलुक के संपादक हरवीर सिंह के साथ उन्होंने विस्तार से बातचीत की। प्रमुख अंश:
‘साझा विरासत बचाओ सम्मेलन’ में जिस तरह विपक्षी पार्टियों के लोग जुटे, क्या उससे कोई नई उम्मीद जगती है?
साझी विरासत बचाने का विचार विभिन्न क्षेत्रों के बहुत सारे अनुभवी लोगों के साथ महीनों के विचार-विमर्श के बाद आया। महसूस हुआ कि आज देश की कम्पोजिट कल्चर और साझी विरासत को बचाना जरूरी है। भारत जैसे अंतर्विरोधों और विविधता से भरे देश में साझी विरासत को बचाकर ही समाज को बंटने से बचाया जा सकता है। इसलिए हमारा संविधान भी साझी विरासत का संविधान है। स्वतंत्रता संग्राम के तीन महत्वपूर्ण लोगों–डॉ. आंबेडकर, पंडित नेहरू और सरदार पटेल ने इसी पर जोर दिया था।
पिछले तीन वर्षों में सबसे ज्यादा हमले हमारी साझी विरासत, साझी संस्कृति पर ही हुए हैं। बहुत सोच-विचार के बाद 17 अगस्त को ‘साझा विरासत बचाओ सम्मेलन’ आयोजित करने का फैसला किया गया। उम्मीद नहीं थी कि इतने सारे लोग जुट जाएंगे।
दरअसल, शुरू से ही मेरा रुझान अखिल भारतीय राजनीति की तरफ रहा। संयोग भी ऐसा रहा। 1974 में मुझे लोकनायक जेपी ने जनता उम्मीदवार बनाया, तभी से मुझे जेपी, चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई, मधु लिमये, मधु दंडवते जैसे राष्ट्रीय नेताओं के संपर्क में आने का मौका मिला। उसके बाद से मैं राज्यों की राजनीति में नहीं पड़ा।
आप विपक्ष की एकजुटता के प्रयास में लगे रहे लेकिन अचानक आपकी पार्टी ने ही विपक्षी एकता को झटका देते हुए भाजपा से हाथ मिला लिया। क्या आपको इसका अंदाजा था?
ये जो हमारी पार्टी है, वो जनता पार्टी और लोक दल का मेल है। लोहिया और चौधरी चरण सिंह हमें बहुत बड़ी पार्टी सौंपकर गए थे। तब से इसके 11 टुकड़े हो चुके हैं। लोग इसमें से निकलते गए, अंत में जनता दल (यूनाइटेड) रह गया। पार्टी बड़ी रही हो या छोटी, मैंने राष्ट्रीय राजनीति में ही अपनी भूमिका निभाई। चाहे चौधरी देवीलाल और हरकिशन सिंह सुरजीत की मदद से राष्ट्रीय मोर्चा बनवाना हो या फिर संयुक्त मोर्चा। मैं राष्ट्रीय मामलों में रमा रहा।
लेकिन मेरी ही पार्टी के सहयोगी, जिन पर मेरा सबसे ज्यादा भरोसा था, जो हम लोगों की तरह ही समाजवादी आंदोलन की धारा से निकले थे, विपक्षी एकता के मेरे प्रयासों को झटका देने लगे।
विपक्ष की एकता के प्रयास लगातार विफल रहे हैं। यहां तक कि जनता दल को एक करने की कोशिशें भी कामयाब नहीं रहीं। क्या साझा विरासत की मुहिम इन्हें एकजुट कर पाएगी?
ऐसा नहीं है। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर विपक्ष की एकजुटता ने सरकार को कदम खींचने पर मजबूर किया था। करीब 69 फीसदी जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला विपक्ष छोटा नहीं है। काफी बड़ा है, लेकिन बिखरा हुआ है। कई मामलों में विपक्ष ने एकजुटता दिखाई है। राज्यसभा में कई मुद्दों पर सरकार को झुकाया भी है।
जहां तक जनता दल का सवाल है, मुलायम सिंह जी को आगे करके एक प्रयास किया गया था, वह फेल हो गया। फिर यूपीए और जदयू में एकता की कोशिशें हुईं। बड़ी कोशिशों के बाद महागठबंधन हुआ था। नीतीश मेरे पुराने साथी हैं। उन्हें छोड़ने में मन भारी होता है। लेकिन देश की जो मौजूदा परिस्थितियां हैं। इन तीन बरसों में शांति पर, संविधान पर जितनी चोट हुई है, शायद उसी ने नियति तय कर दी है। साझा विरासत सम्मेलन से विपक्ष की गोलबंदी शुरू हुई है। रफ्तार कब पकड़ेगी कहना मुश्किल है।
पार्टी में पिछले तीन साल के आपके अनुभव कैसे रहे?
बहुत अच्छा सवाल है। मैं शुरू में नीतीश के एनडीए से नाता तोड़ने की जिद का समर्थक नहीं था। लोकसभा चुनाव हारने के बाद मेरी कोशिशों से ही महागठबंधन की शक्ल उभरी। नीतीश को आगे किया गया। शुरू में लालू यादव नीतीश को नेता मानने को तैयार नहीं थे बहुत हिचक रहे थे। चुनाव बाद गठबंधन करना चाहते थे। हम कई बार उनके घर गए। मुझसे ज्यादा मुख्यमंत्री (नीतीश कुमार) उनके यहां गए। आखिर मेरे और कांग्रेस के जोर देने पर लालू माने। शुरू में मैं राज्यसभा का निर्विवाद उम्मीदवार था पर उसमें भी कई हां-ना की बातें हुईं। भूमि अधिग्रहण के मुद्दे पर हमने सबको लामबंद किया। सरकार को झुकना पड़ा। लेकिन बाद में स्थिति यह आ गई कि मैं दिल्ली में विपक्षी दलों की बैठकों में एक स्टैंड लेता और मेरी पार्टी के अध्यक्ष कुछ और बात करते। नोटबंदी के मसले पर ऐसा हआ, सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर भी। राष्ट्रपति चुनाव के बारे में मुझे विपक्षी दलों की बैठक में जाने को कहा गया। लेकिन मेरी पार्टी के अध्यक्ष पीएम के डिनर में चले गए। फिर कोविंद को समर्थन दे दिया।
लेकिन बिहार में हुई लालू प्रसाद यादव की रैली में सोनिया और राहुल गांधी नहीं गए। मायावती भी मंच साझा करते हुए हिचक रही हैं। ऐसे में विपक्षी एकता के दावों में कितना दम है?
पटना की रैली को विपक्षी एकता का उदाहरण मत बनाइये। वह एक पार्टी की रैली थी। जो जाना चाहते थे, गए। जो नहीं चाहते थे, नहीं गए। मानता हूं कि विपक्षी एकता आज भी कठिन है और आगे बहुत तरह की कठिनाइयां आएंगी। लेकिन मुश्किलें तो आजादी की लड़ाई में भी थीं। मतभेद तब भी थे। फिर भी हम आजाद हुए।
जिस तरह हाल के महीनों में किसान आंदोलन हुए, बेरोजगारी का मुद्दा है, क्या साझा विरासत बचाओ मुहिम में इन मुद्दों को जगह दी जाएगी?
हमें किसान, युवा, मजदूर, वंचित सबकी बात करनी होगी। इन तीन वर्षों में केंद्र सरकार अपने चुनावी वादे भी पूरे नहीं कर पाई है। दो करोड़ लोगों को रोजगार, सबका साथ-सबका विकास सोचिए आज कहां है! पंचकूला में आपने देखा धर्म और राजनीति को मिलाने से क्या त्रासदी हुई। आज आम जनता के जीवन और वजूद से जुड़े सवालों से ध्यान हटाने के लिए बेवजह के मुद्दे उछाले जा रहे हैं।
गाय-भैंस के नाम पर हमले जैसे नए-नए मसले पैदा हो रहे हैं। खेती के बाद पशुधन किसान का दूसरा प्रमुख धंधा है। किसान का एटीएम है। इस पर पाबंदियां लगाकर किसान की कमर तोड़ी जा रही है। ये देश शांति और साझी विरासत को बचाए बगैर नहीं चल सकता। शांति और सबको साथ लिए बिना तो एक गांव आगे नहीं बढ़ सकता। सबके बीच संतुलन जरूरी है। लेकिन इस सरकार की वजह से यह संतुलन बिगड़ रहा है। खानपान और प्रेम पर भी पहरा बैठा दिया है। ऐसा तो तानाशाहों ने भी नहीं किया था। ये सभी मुद्दे साझी विरासत बचाने की मुहिम का हिस्सा हैं।
प्रधानमंत्री कथित गोरक्षकों और श्रद्धा के नाम पर हिंसा फैलाने वालों को चेतावनी भी दे चुके हैं। फिर भी अराजक भीड़ पर अंकुश लगाने में सरकार नाकाम रही है?
प्रधानमंत्री देश की सबसे बड़ी संस्था हैं। उनके प्रयास सराहनीय हो सकते हैं। लेकिन उनकी आवाज जमीन तक नहीं पहुंच पा रही है क्योंकि सबके साथ एक समान बर्ताव नहीं हो रहा है।
आप पर सवाल उठता है कि आप भ्रष्टाचार के मामलों से घिरे लालू परिवार के साथ खड़े हैं।
यह गलत सवाल है। भ्रष्टाचार के खिलाफ एक समान रवैया होना चाहिए। बढ़ई का रंदा चलना चाहिए, न कि चुन-चुन कर बसूला चलाया जाना चाहिए। सब जानते हैं कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में क्या हुआ। सरकार को सबके साथ एक जैसा व्यवहार करना चाहिए। वैसे, सहयोगी दल की पूरी जिम्मेदारी आप नहीं ले सकते। लालू के बेटे पर एफआइआर हुई, लेकिन आरोप साबित नहीं हुए हैं। और क्या लालू के बारे में नहीं पता था।
नोटबंदी और जीडीपी के आंकड़ों को आप किस तरह देखते हैं?
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ज्यादा काबिल अर्थशास्त्री इस सरकार में नहीं है। उन्होंने संसद में नोटबंदी को मॉन्यूमेंटल डिजास्टर करार दिया था। नोटबंदी से देश की दो फीसदी जीडीपी खत्म हो गई। इकोनॉमी को कम से कम दो लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। करोड़ों रोजगार और हजारों उद्योग-धंधों पर मार पड़ी।