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इंटरव्यू। कभी आप्रसंगिक नहीं होती है ‘कला’, इस समय में है इसकी सबसे ज्यादा जरूरत: रत्ना पाठक शाह

बॉलीवुड की दुनिया में कुछ अभिनेत्रियाँ ऐसी हैं जिन्होंने अपने हस्तकला और प्रतिभा के कारण इस उद्योग...
इंटरव्यू। कभी आप्रसंगिक नहीं होती है ‘कला’, इस समय में है इसकी सबसे ज्यादा जरूरत: रत्ना पाठक शाह

बॉलीवुड की दुनिया में कुछ अभिनेत्रियाँ ऐसी हैं जिन्होंने अपने हस्तकला और प्रतिभा के कारण इस उद्योग में अपनी एक अलग पहचान बनाई हैं। रत्ना पाठक शाह भी उन्हीं अभिनेत्रियों की जमात से ताल्लुक रखती हैं। रत्ना पाठक, मशहूर कॉमेडी सीरियल साराभाई वर्सेज साराभाई में अपने शानदार अभिनय के कारण प्रसिद्धि पाई। ये उन अभिनेत्रियों में से हैं जिनका भारतीय रंगमंच में योगदान उत्कृष्ट रहा है और अगर कहें कि भारतीय रंगमंच की दुनिया इनके बिना अधूरी है तो ये अतिश्योक्ति नहीं होगी। रत्ना पाठक शाह की कुछ प्रसिद्ध नाट्य रचनाएँ हैं 'साइलेंस: कोर्ट इज इन सेशन, द लेसन, द मिसअंडरस्टैंडिंग, जस्मा ओडन और डियर लायर।" 

आउटलुक के लिए राजीव नयन चतुर्वेदी ने रंगमंचकर्मी रत्ना पाठक शाह के साथ एक बातचीत में, थिएटर की चुनौतियों, महामारी के बीच उसके संभावित समाधानों के बारे में चर्चा की है। 

इंटरव्यू के महत्वपूर्ण अंश:- 

इस दौर में जहाँ सब कुछ अनिश्चितताओं में फंसा हुआ है, उस समय आर्ट की कितनी ज्यादा ज़रूरत है? 

जब हमारे आस-पास रोजाना इतना कुछ बदल रहा है और असमानता इतनी तेजी से बढ़ रही है, तो ऐसे माहौल में अपनी समझ बनाए रखना और विवेक को संतुलित रखने के लिए आर्ट की बहुत ज्यादा ही जरूरत है। क्योंकि आर्ट के जरिये हम खुद को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ पाते हैं। आर्ट से हमको नए विचार मिलते हैं, जो कठिन समय में हमें सहारा देते हैं। इसलिए आर्ट आज के समय में सबसे ज्यादा प्रासंगिक है। 

क्या रत्ना पाठक शाह भी इस मुश्किल समय में खुद को संतुलित रखने के लिए आर्ट का सहारा लेती हैं? 

हां। मुश्किल समय हो या खुशी का समय हो, कला हमेशा मुझे स्वयं के अस्तित्व का बोध कराती है। किसी भी समय, चाहे मैं जो भी कार्य करती हूं, विशेष रुप से थियेटर हो, या संगीत, ये हमेशा मुझे तृप्ति देता है। 

आप थियेटर में अक्सर काम करती रहती हैं, आपके हिसाब से कोरोना का थियेटर पर कैसा प्रभाव पड़ा है? 

सच तो यह है कि महामारी का थियेटर पर बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा है। शायद कला के किसी भी रूप की तुलना में सबसे अधिक। हालांकि, जब मैं थिएटर की बात करती हूं, तो मेरा मतलब केवल ड्रामा नहीं है। मैं संगीत, गायन, नृत्य जैसी सभी प्रदर्शन कलाओं के बारे में बात कर रही हूं- जो लाइव दर्शकों के सामने परफॉर्म की जाती हैं। महामारी ने इन सभी कलाओं को जबरदस्त नुकसान पहुँचाया है। मैं खुद, पिछले दो सालों में कोई शो नहीं कर पाई हूँ। 

थियेटर को 'मदर ऑफ आल आर्ट' कहा जाता है। लेकिन हम देख रहे हैं कि इस दौर में अधिकांश लोग ओटीटी की तरफ बढ़ रहे हैं और उसमें बड़ा भाग ऐसे लोगों का है जो मनोरंजन के लिए सिर्फ ओटीटी का ही सहारा लेते हैं...ऐसे समय मे थियेटर कितना प्रासंगिक है? 

इंसान को इतना नहीं बदल जाना चाहिए कि उसे दूसरे इंसान की ज़रूरत ही न पड़े। पैंडेमिक में थियेटर की तो और ज्यादा ज़रूरत है। चार लोगों के साथ बैठकर, चार लोगों के नाटक को देखना और उसमें आनंद से अभिभूत हो जाने का मज़ा ही कुछ और है। इसलिए मुझे उम्मीद है कि लोग थियेटर के महत्व को समझेंगे। हालांकि रही बात प्रासंगिकता की तो कला किसी दौर में भी अप्रासंगिक नहीं होती है। 

ओटीटी के विकास को आप कैसे देखती हैं? 

लोगों को ओटीटी के वजह से अलग-अलग तरह की कहानियां सुनने की आदत पड़ रही हैं। हम सब जो फिल्मों में एक तरह की कहानियां सुनते हुए बढ़े हैं, उसमें ओटीटी एक आंख खोलने वाली घटना है। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने कई तरह से कहानी कहने की तकनीक खोली है। तरह-तरह की कहानियां सामने आ रही हैं, तरह-तरह के अभिनेता परफॉर्म कर रहे हैं, जो कि हमने अपने देश में कभी नहीं देखा है। लेकिन मेरा एक डर है कि हम हिंदुस्तानी अगर किसी भी अच्छी चीज को पा लेते हैं तो उसको कबाड़ बना देते हैं। ओटीटी में भी वेराइटी एक जैसे न हो जाए इसका मुझे डर लगता है। ऐसा टेलीविजन में हो गया है और शायद यहाँ भी ऐसा हो सकता है। 

हम अपने देश में भयानक पहली और दूसरी लहर देख चुके हैं। आप ड्रामा से जुड़ी रही हैं..तो आप बताइए ऐसे कौन से कदम उठाए जाने चाहिए जिससे इस समय में भी ड्रामा फले-फूले? 

इस सवाल के इतने पहलू हैं कि मैं क्या कहूँ? पहली बात तो ये है कि हम ये मानें कि थियेटर बंद होने से बहुत लोग अपनी आजीविका गवाएं हैं। दूसरी बात ये है कि अगर क्रिकेट स्टेडियम में तीस हजार लोगों को एक साथ बैठने की इजाज़त हो जाती है, तो मुझे समझ नहीं आता है कि थियेटर में 200 लोग क्यों नहीं बैठ सकते हैं? अगर थियेटर खुलते भी हैं तो बोला जाएगा कि आधे लोगों को बैठाओ, तो इतने कम पैसों में वो थियेटर कैसे मैनेज कर पाएंगे? गुजराती और मराठी थियेटर तो अब खत्म हो चुके हैं। आप आईपीएल जैसे खेल, जिससे आपको पैसे मिलते हैं- उसे जारी रखते हैं, लेकिन थियेटर को नहीं खुलने देते क्योंकि इसमें पैसा नहीं है? हालांकि, थियेटर ने भी सैकडों लोगों को रोजगार दिया है। मुझे लगता है सरकार को इस महत्वपूर्ण पहलू पर ध्यान देना चाहिए। 

चूंकि अब हमलोग थियेटर और ड्रामा के बारे में विस्तृत बात कर रहे हैं, तो मेरा सवाल ये है कि आपके अनुसार से सिनेमा के एक्टर थियेटर में क्यों काम नहीं करते हैं? जबकि थियेटर से बहुत लोग सिनेमा में जाते हैं। 

डिफरेंस ऑफ टेस्ट! लोगों को पसंद नहीं है की इतनी कम पैसों में इतना काम कोई क्यों करे? जब आप फ़िल्म कर लाखों कमा सकते हैं तो थियेटर से 500 क्यों कमाना चाहेंगे? इसलिए कोई भी एक्टर थियेटर में काम नहीं करते हैं। सबसे बड़ी बात तो ये है कि थियेटर एक कमिमेंट मांगता है, जो सबके बस की बात नहीं है। 

क्या आजकल एक्टर्स थियेटर को बॉलीवुड में जाने का जरिया बना रहे हैं? आपको क्या लगता है? 

कुछ लोगों ने ऐसा किया है। मुझे दुख होता है कि जिससे (थियेटर) आपको पहचान मिली, उसके तरफ आप कभी वापस भी नहीं लौटते हैं। क्या आपको अब थियेटर बिल्कुल अच्छा नहीं लगता है? अगर ऐसा है तो इसका मतलब यह है कि आपको थियेटर में कभी मज़ा आया ही नहीं था। आप बस थियेटर फायदे के लिए कर रहे थे और जब आपको इससे अटेंशन मिल गया, तो अब आपको इसकी कोई ज़रूरत नहीं हैं। खैर जैसे आपको थियेटर की ज़रूरत नहीं है, थियेटर को भी आपकी ज़रूरत नहीं है। 

मेरा अगला सवाल है कि आप और नसीरूद्दीन साब, दोनों लोग बॉलीवुड में भी कार्य करते हैं, ऐसे में आपलोग बॉलीवुड और थियेटर के बीच बैलेंस कैसे स्थापित कर पाते हैं? 

हम थियेटर करते हैं क्योंकि हमें ये पसंद है। हम थियेटर एन्जॉय करते हैं और ऐसा नहीं है कि हम ये ऐसा कर किसी का फेवर कर रहे हैं। हम अपने संतुष्टि के लिए खुद का स्वयं फेवर कर रहे हैं। हमलोग बहुत भाग्यशाली है कि हमें ये करने का मौका मिला। 

आप थियेटर के भविष्य को कैसे देखती हैं? 

मुझे लगता है कि चीजें जैसे चल रही हैं, वो बदल जानी चाहिए। मुझे नहीं पता थियेटर खुद को कैसे स्थापित कर पाएगा। लेकिन मुझे ये लगता है कि थियेटर में लोगों को फिर से लाने के लिए अच्छे ड्रामा बनने चाहिए और इसके लिए हम सब प्रयासरत हैं।


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