माकपा के इतिहास में पहली बार ऐसा व्यक्ति महासचिव बना है जो सांसद भी है। माकपा के नए महासचिव सीताराम येचुरी राज्यसभा के पश्चिम बंगाल से सांसद हैं। अब येचुरी और माकपा के सामने यह दुविधा है कि सांसद बना रहा जाए या यह पद छोड़ दिया जाए। हालांकि अगर वह यह सीट छोड़ते हैं तो संसद में पहले से कम वामदलों की उपस्थिति और कम हो जाएगी। हिंदुत्व और सांप्रदायिक फासीवाद के खतरनाक उभार, सत्ता पर उनका काबिज होना, आर्थिक उदारीकरण की खुली मार और वाम तथा प्रगतिशील खेमों की तेजी से छीजती जमीन-ये सारे मुद्दे नए माकपा महासचिव के सामने पहाड़ सी चुनौती पेश कर रहे हैं। आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा सिंह ने सीताराम येचुरी से तमाम ज्वलंत मुद्दों पर लंबी बात की, पेश हैं प्रमुख अंश:
आपके महासचिव बनने का बहुत बड़े तबके ने स्वागत किया, क्या इसकी वजह आपकी उदार छवि है?
सही कहा आपने, बहुत दूरदराज से शुभकामनाएं मिल रही हैं। यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। इसका मतलब यह भी है कि यह बड़ा तबका वामपंथ के प्रति आशावान है। छवि पार्टी की ही होती है। इसके लिए माकपा को जाना जाता है, उसी के लिए उनके कैडर को भी।
आपके सामने क्या बड़ी चुनौतियां हैं?
देश और वामपंथ के सामने चुनौतियां बेहद गंभीर हैं। सबसे बड़ी चुनौती केंद्र में आसीन सरकार की प्रवृति से है। इस समय केंद्र सरकार की नीतियों के तीन रुझान हैं-1) मनमोहन सिंह से कई गुना अधिक उदारवादी नीतियों को लागू किया जा रहा है। सीधे-सीधे जनविरोधी नीतियों को लागू करने के लिए सरकार ने सारा जोर लगा दिया है। इनमें से कई तो ऐसी हैं जिनका भाजपा ने उस समय विरोध किया था, जब वह विपक्ष में थी। 2) उग्र सांप्रदायिकता का खतरनाक उभार। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को खुला प्रोत्साहन। यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धर्मनिरपेक्ष छवि पर हमला बोलने वाले अपने सांसदों, नेताओं के बयानों पर यह भी आश्वासन देने से मना कर दिया कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई होगी। किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई भी नहीं। सरकार और भाजपा का असली एजेंडा खुलकर सामने है, वे भारत को धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र से बदलकर हिंदूराष्ट्र बनाना चाहते हैं। 3) संसदीय नियमों का खतरनाक ढंग से उल्लंघन हो रहा है। लोकसभा में बहुमत होने के नाते पूरी मनमानी चल रही है। कोई भी नया कानून स्टैंडिग कमेटी तक नहीं भेजा जा रहा है। लोकतांत्रिक प्रणाली को नजरअंदाज किया जा रहा है। ये तीनों पहलू खतरनाक स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। देश की अंदरूनी एकता-अखंडता कमजोर हो रही है। इनसे हमें भिड़ना है और देश को बचाना है।
भाकपा और माकपा का विलय क्या आपके एजेंडे में है?
नहीं। अभी तो यह संभव नहीं दिखता। जिन परिस्थितियों और सवालों की वजह से ये दोनों पार्टियां अलग हुई थीं, जब तक वे सुलझते नहीं, विलय संभव नहीं।
वाम मोर्चे को व्यापक करने, उसमें भाकपा (माले-लिबरेशन) सहित अन्य दलों को लेने पर कोई विचार?
भाकपा और माकपा में रिश्ते बेहतर हो रहे हैं। जनसंगठनों तथा जमीनी स्तर पर साथ मिलकर काम करने की शुरुआत हो गई है।
बाकी वाम पार्टियों के बारे में बताइए...।
वही कह रहा हूं कि अभी जरूरत नीचे से, कतारों के स्तर पर वाम एकता को मजबूत करने की है। दो तरीके होते हैं एकता के, एक नीचे से और दूसरा ऊपरी नेतृत्व के स्तर पर। नीचे से एकता की अभी ज्यादा जरूरत है।
लेकिन इस दौर में व्यापक मोर्चे बन रहे हैं। एक दूसरे का विरोध करने वाले दल साथ आ रहे हैं, जैसे जनता परिवार...।
देखिए, हमारा उद्देश्य कोई मौकापरस्त, चुनावी गठबंधन बनाना नहीं है। जनसंघर्षों को मजबूत करना जरूरी है।
माकपा के अंदर केरल और पश्चिम बंगाल के दो धड़ों के आपसी टकराव पर खासी चर्चा है, कैसे निपटेंगे इससे?
अपनी जमीन, अपना आधार बचाना जरूरी है। तभी महासचिव बनने के एक हक्रते के भतीर केरल और पश्चिम बंगाल का चक्कर काट लिया। आत्मालोचना, आत्मविवेचना और सही रणनीति से ही फिर खड़े होंगे।
आपको माकपा के पूर्व महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत का वारिस माना जाता है, जिन्होंने माकपा को गठजोड़-गठबंधन की राजनीति में दखलकारी भूमिका में उतारा, अब आप...
हमने अपनी कांग्रेस में तय किया है कि पार्टी की स्वतंत्र ताकत को मजबूत करना है। जब तक स्वतंत्र ताकत मजबूत नहीं होगी तब तक तालमेल कामयाब नहीं होंगे। कॉमरेड सुरजीत के नेतृत्व में पार्टी ने जो लाइन ली वह उस समय की स्थिति के अनुकूल थी। गठबंधन और सहयोग हर दौर में जरूरी होता है पर जमीन पुख्ता करना पहली प्राथमिकता है। इसके बिना वाम का नेतृत्व संकटग्रस्त रहेगा।
पार्टी नेतृत्व में दलितों और महिलाओं को पर्याप्त प्रतिनिधित्व क्यों नहीं?
कम्युनिस्ट पार्टियों में नेतृत्वकारी निकायों में चयन की प्रक्रिया अलग होती है। हालांकि इस बार केंद्रीय समिति से लेकर पोलित ब्यूरो में उचित प्रतिनिधित्व का ध्यान रखा गया है। वैसे यह सही है कि इस दिशा में बहुत कुछ और किया जाना बाकी है।
तुरंत के कार्यभार क्या हैं?
कम्युनिस्ट आंदोलन को सिर्फ आर्थिक सवालों पर केंद्रित आंदोलन के बजाय व्यापक सामाजिक सवालों पर सक्रिय करना। हिंदी पट्टी में इसका विस्तार करना। चुनावों में धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के साथ सिर्फ चुनावों के दौरान सीट बंटवारे में जाना, बाकी अपने स्वतंत्र आधार को सुदृढ़ करना।