साइनाथ जनवरी के पहले पखवाड़े में वेबसाइट के बारे में बात करने के लिए दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मौज़ूद थे। खचाखच भरे हॉल में उन्हें सुनने छात्र, नौजवान, पत्रकार, ऐक्टिविस्ट और नेता वहां मौजूद थे। साइनाथ ने ग्रामीण भारत के हर पहलू को इस वेबसाइट में जगह देने की कोशिश की
है। इसमें बच्चों, महिलाओं, आदिवासियों और दलितों के मुद्दों को खास तरजीह दी गई है। ये ग्रामीण जीवन के विविध उत्सवों और विडम्बनाओं को भी सामने लाती है। ऑडियो और वीडियो से समृद्ध इस वेबसाइट में ग्रामीण भारत की कई कहानियों और दृश्यों को पढ़ा और देखा जा सकता है।
फिलहाल परी के साथ एक छोटी सी टीम जुटी है। ग्रामीण इलाकों को कवर करने के लिए परी पांच फैलोशिप दे रही है। जल्द ही ये संख्या बढ़ाकर पचास करने की योजना है। ये पचास पत्रकार देश के पचास विभिन्न ग्रामीण इलाकों में काम करेंगे। देश के कई पत्रकार साइनाथ की इस कोशिश में स्वेच्छा से जुड़े हैं। देश-विदेश के विश्वविद्यालयों के पत्रकारिता के छात्र भी उनके साथ हैं।
वेबसाइट के बारे में पी. साइनाथ ने आउटलुट से बातचीत की। पेश हैं अंश:
परी का खयाल कैसे आया?
हमारे देश में ग्रामीण रिपोर्टिंग की हालत बहुत खराब है। किसी दैनिक अखबार के पास कोई पूर्णकालिक ग्रामीण संवाददाता नहीं है। अखबारों के पास श्रमिकों, कमजोर तबकों, किसानों और हाशिए के समुदायों के मुद्दों को कवर करने वाला कोई रिपोर्टर नहीं होता। इस तरह मीडिया देश की 75 फीसदी आबादी की चिंता नहीं करता। गरीबों के लिए मीडिया के दरवाजे पूरी तरह बंद हैं। उन्हें तभी खबरों में जगह मिलती है जब मुख्यधारा के मीडिया को उनके जीवन में कुछ सनसनीखेज दिखता है।
गांवों की रिपोर्टिंग करते हुए मैंने लोगों के जीवन से संबंधित कई कहानियां इक_ा की थी। बहुत सारी तस्वीरें भी एकत्र कीं लेकिन सबको दैनिक अखबारों में इस्तेमाल करना संभव नहीं था। तब मैं सोचा करता था कि एक दिन आर्काइव बनाकर सारी सामग्री उसमें रखूंगा। लेकिन अब जमाना काफी बदल गया है। पत्रकारिता के विद्यार्थियों को पढ़ाते हुए मेरी समझ में आया कि आर्काइव में ज्यादा लोग नहीं जाते। लेकिन इंटरनेट पर अगर वो सारी सामग्री एक जगह मिले तो लोग उसे जरूर देखेंगे-पढ़ेंगे। परी का खयाल मुख्य तौर पर गरीब लोगों की जिंदगी से आया है।
परी को लेकर आपकी क्या उम्मीदें हैं?
हमें एक पत्रकार के तौर पर सच्चाई का पता लगाना है। हमारा मकसद सिर्फ यह पता करना नहीं है कि गांवों में लोग कैसे रहते हैं। हम इस बात को भी सामने लाना चाहते हैं कि उनक़ी अच्छी-बुरी हालत के लिए कौन जि़म्मेदार है।
आपने ग्राणीण पत्रकारिता का रास्ता कैसे चुना?
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की मेरे व्यक्तित्व को गढऩे में महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जेएनयू से इतिहास में एमए करते हुए मुझे पहली बार भारत में भूमि संबंधों के बारे में जानने का मौका मिला। बाद में गांवों को देखते हुए उस दृष्टि से काफी मदद मिली।
आज की पत्रकारिता के बारे में क्या सोचते हैं?
मुख्यधारा की पत्रकारिता से स्टोरी टेलिंग खत्म होती जा रही है। परी के माध्यम से हम स्टोरी टेलिंग को फिर से जिंदा करना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि आम लोग अपनी कहानी ख़ुद कहें। मुख्यधारा की पत्रकारिता सिर्फ शक्तिशाली लोगों के बारे में बताती है। उन्हीं के नजरिए से दुनिया को समझाती है। इस तरह सत्ता की सेवा करती है। पत्रकारिता के कॉरपोरेटीकरण ने पत्रकारिता में प्रोफेशनलिज्म की एक फर्जी अवधारणा गढ़ी है। जनता के मुद्दों को उठाने वाले पत्रकारों को ऐक्टिविस्ट करार दे दिया जाता है।
रिपोर्टिंग को अलग-अलग बीट में बांटकर उसे प्रोफेशनलिज्म करार दिया जा रहा है। क्या ग्राणीम मुद्दों को कवर करने वाला पत्रकार राजनीति को भी कवर नहीं कर रहा होता? एक और बीट बनाई है। डेवेलपमेंट जर्नलिज्म। लोग मुझे डेवेलपमेंट जर्नलिस्ट कहते हैं। मुझे इस शब्द से नफरत है। इसका मतलब कुछ डेवेलपमेंट प्रोजेक्ट्स को कवर करना हो गया है। यह विकास के वास्तविक मुद्दों को नहीं उठाती। पत्रकारिता का एनजीओकरण भी खतरनाक है।
आपने परी को अंग्रेजी में शुरू किया है लेकिन देश की ग्रामीण जनता अंग्रेजी नहीं समझती है?
परी अच्छी पत्रकारिता करने के लिए पैदा हुआ है। हम देश की भाषाई विविधता का विशेष ध्यान रखना चाहते हैं और देशभर में जितनी भी बोलियां है उनमें अपनी सामग्री देना चाहते हैं। जैसे हिंदी एक बड़ी भाषा है। हम इसमें भी अपना पोर्टल शुरू करना चाहते हैं।