“बिहार के एक छोटे-से गांव से निकलकर मुंबई मायानगरी में बुलंद मुकाम हासिल करने के इस सफर के बारे बातचीत”
पंकज त्रिपाठी की गिनती आज हिंदी सिनेमा के सबसे सशक्त अभिनेताओं में की जाती है। उनके सहज और स्वाभाविक अभिनय के दुनिया भर में लाखों लोग मुरीद हैं। उन्होंने बिहार के एक छोटे-से गांव से निकलकर मुंबई मायानगरी में बुलंद मुकाम हासिल करने के इस सफर के बारे में गिरिधर झा से विस्तार से बातचीत की। संपादित अंश:
सबसे पहले हम आपसे अपने गांव से मुंबई तक की यात्रा के बारे में जाना चाहेंगे, जो बहुत प्रेरणादायक है, खासकर आपके गृह राज्य बिहार के युवाओं के लिए। आपको चार वर्ष पूर्व न्यूटन (2017) में अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री में तो आप 2004 से ही संघर्षरत थे। अपने संघर्ष के उन दिनों से लेकर अभी तक की अपनी यात्रा को कैसे देखते हैं?
बहुत दिलचस्प रही है मेरी यात्रा। बिलकुल पहाड़ी नदी की तरह, जिसे जब रास्ता जिधर से मिलता है, ढलान बनाते हुए बह चलती है। कभी-कभी वह सूख भी जाती है, तो कभी-कभी दो भागों में बंट जाती है। वाकई बहुत ही दिलचस्प यात्रा रही है। मैं जब मुंबई आया तो यहां किसी की नहीं जानता था। उस वक्त हम बस के नंबर याद करते थे कि कौन-सी बस कहां से कहां जाती है। सिर्फ यह पता करने में दो-तीन साल लग गए कि मुंबई में फिल्में कहां बनती हैं। इस पूरी यात्रा में जो भी मैं बना हूं, जो भी मेरी समझ बनी है, जो भी मैंने अनुभव किया है, सब इसी सफर में हुआ है। मैं अक्सर बोलता हूं मनोज (वाजपेयी) भैया की जर्नी के बारे में उनके एक इंटरव्यू से प्रेरणा मिली कि कोई अगर बिहार के बेतिया के बेलवा से, जो उनका गांव है, जा सकता है, तो मैं भी गोपालगंज के अपने गांव बेलसंड से जा सकता हूं। अब शायद मेरी भी यात्रा के बारे में कोई बच्चा पढ़ेगा या सुनेगा। बिहार या किसी अन्य प्रदेश के सुदूरवर्ती गांव या कस्बे में बैठा होगा तो वह भी अपने सपने की उड़ान भर सकता है, चाहे उसके सपने किसी क्षेत्र से संबंधित हों। इतिहास में हो, खेल में हो, उसे सिविल सेवा में जाना है, कुछ भी करना हो, नामुमकिन नहीं है। मैं हमेशा से सुविधाओं के न होने या कमियों को बहुत सकारात्मक तरीके से लेकर चलता था। मैं बोलता था कि नदी में अगर नाव नहीं है तो तैरना सीख जाओगे। जो सुविधा बचपन में नहीं मिली, मुझे उसका कोई मलाल नहीं है और वही मेरी आगे चलकर ताकत बनी। शायद मेरी यात्रा किसी और बच्चे को प्रेरणा दे।
आपके करियर को हम तीन भागों में बांट सकते हैं। मैं हाल में निर्माता बोनी कपूर साहब का एक इंटरव्यू देख रहा था। आपने उनकी फिल्म रन (2004) में एक छोटी-सी भूमिका से अपने करियर का आगाज किया लेकिन उन्हें यह तब याद आया जब आपने उन्हें उसकी याद दिलाई। अगले आठ वर्षों तक संघर्ष करते रहे। फिर, 2012 में गैंग्स ऑफ वासेपुर से आपकी पहचान बनी। फिर, निल बटे सन्नाटा (2016), बरेली की बर्फी (2017) और न्यूटन (2017) से आप उम्दा कलाकार के रूप में स्थापित हो गए। अभिनेता के रूप में करियर के इन तीनों दौर को आप किस रूप में देखते हैं?
मैं बदलता रहा। बतौर एक्टर आपकी समझ और प्रगति या काम सीखते रहना तो रोज का सिलसिला है। यह 100 मीटर की रेस नहीं कि जो नौ सेकेंड में दौड़ गया, वही दुनिया का सबसे अच्छा धावक है। कला रोज प्रैक्टिस करने वाली चीज है, हर अनुभव के साथ समझ बढ़ती है। अंत तक यह सिलसिला चलता रहता है। हम रोज कुछ न कुछ सीखते हैं, हर फिल्म में सीखते हैं। बतौर अभिनेता, हम हर निर्देशक, हर यूनिट के साथ कुछ सीखते हैं। यह सिलसिला जीवन भर चलता रहता है।
कहा जाता है कि जब थिएटर से आए किसी अभिनेता की मांग बढ़ जाती है तो कमर्शियल सिनेमा उस पर हावी हो जाता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से आए नसीरुद्दीन शाह से लेकर ओम पुरी जैसे दिग्गजों के साथ ऐसा देखा गया है। आपसे पहले एनएसडी से आए आपके कई सीनियर कलाकार सार्थक सिनेमा करने का ख्वाब लेकर आए थे लेकिन कमर्शियल सिनेमा के ग्लैमर और पैसे की चमक से अधिकतर बच न पाए। आप इन चीजों से कैसे अपने आपको दूर रख पाएंगे?
आज अच्छी बात यह है कि सार्थक और कमर्शियल सिनेमा की जो लकीर 10-15 साल पहले बहुत मोटी थी, अब वह धुंधली हो रही है। न्यूटन ने करीब 40 करोड़ रुपये का व्यवसाय किया, स्त्री (2018) बड़ी हिट रही, उसे आप व्यावसायिक फिल्म की श्रेणी में रखेंगे या सार्थक सिनेमा की? स्त्री के सब-टेक्स्ट में एक मैसेज है। वह सिर्फ कॉमेडी नहीं, वह कहानी बताती है कि जिन पुरुषों को आजादी है, उन पर चार दिनों की पाबंदी है। उनका रात को निकलना रिस्की है वरना स्त्री उठा लेगी। आज सिनेमा में वह लाइन धूमिल हो रही। जब ओ माय गॉड 2 प्रदर्शित होगी तो यह कहना मुश्किल होगा कि यह किस कैटेगरी की फिल्म है। वह बस एक अच्छी फिल्म होगी। उसमें मनोरंजक सिनेमा की चीजें भी हैं लेकिन वह सिर्फ मनोरंजन नहीं कर रही है। वह सामाजिक जागरूकता की बात भी कह रही है। मैंने पिछले पांच-छह वर्षों में जितनी फिल्में की हैं, उनमें अधिकतर सफल रही हैं, चाहे वह स्त्री हो, गुंजन सक्सेना (2020) हो, लूडो (2020) हो या मिमी (2021)। एक बात जो आप इन सब फिल्मों में देखेंगे कि ये सिर्फ कमर्शियल फिल्में नहीं हैं।
यह क्या संकेत दे रहा है? अभी तक तो अमूमन यही होता रहा है कि अच्छी-बुरी कैसी भी फिल्म हो, दर्शक किसी सुपरस्टार के नाम पर थिएटर में आ जाते थे। क्या आज हम कह सकते हैं कि हिंदी सिनेमा का सुपरस्टार अब जरूरी नहीं कि बांद्रा से आए, वह बेलवा या बेलसंड जैसे गांवों से भी आ सकता है?
वह लेखक के रूप में भी आ सकता है। कई बार मुझे लगता है स्क्रिप्ट ही असली स्टार है। अगर आपके हाथ में अच्छी कहानी है, खासकर ओटीटी प्लेटफॉर्म पर तो जो दो साल का कोविड काल का तजुर्बा है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि जो अच्छी कहानिया हैं, वही काम कर रही हैं। कह सकते हैं कि फिल्मकार के लिए, स्ट्रगलर्स के लिए, नए एक्टर्स के लिए बहुत अच्छा समय है।
मेरे जैसा अभिनेता, जिसने जीवन में कभी नहीं सोचा था कि मेरे पास अगले एक साल तक इतनी सारी फिल्मों का कमिटमेंट होगा। अभी मेरे पास छह फिल्में हैं और नए ऑफर रोज आ रहे हैं। मैंने अपने आपको थोड़ा रोक कर रखा है। मैं चाहता हूं कि उनमें कम से कम तीन तो खत्म हों, तब नई स्क्रिप्ट सुनूं। आज भी मैं फ्लाइट में स्क्रिप्ट पढ़ता आया। मुझे हर रोज दो फिल्मों के ऑफर आते हैं। इसमें शक नहीं कि कहानियां महत्वपूर्ण हो गई हैं।
अगर स्क्रिप्ट ही स्टार हो गई है तो क्या वर्षों पुराना स्टार सिस्टम ध्वस्त हो जाएगा या उसकी एक समानांतर दुनिया बदस्तूर चलती रहेगी?
जो स्टार हैं, वे भी तो एक्टर ही हैं। वे भी अच्छी कहानियां चुनेंगे। यह बहुत ही महीन रेखा है। हम बार-बार मनोरंजन और सेंसिबल सिनेमा को अलग करके देखते हैं। ऐसा जरूरी नहीं है। आज के दौर में सार्थक सिनेमा के लिए भी जरूरी है वह मनोरंजन करे। दर्शक थिएटर में चार-पांच सौ रुपये खर्च कर मनोरंजन के लिए आता है। वह हंसता है। हंसना अपने आप में मेडिटेशन है, जब आदमी हंसता है तो कुछ हार्मोनल बदलाव होते हैं। हंसाने वाले सिनेमा को हम महज व्यावसायिक सिनेमा के वर्ग में नहीं रख सकते। जहां तक स्टार सिस्टम की बात है, इतनी जल्दी यह कहना ठीक नहीं होगा कि यह खत्म हो जाएगा। मैं ट्रेड नहीं जानता हूं, मैं सिर्फ आर्ट जानता हूं, अभिनेता हूं। लेकिन मुझे लगता है, स्टार भी मीनिंगफुल कहानियां चुनेंगे।
नेटफ्लिक्स और अमेजन प्राइम वीडियो जैसी अंतररष्ट्रीय कंपनियां ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आ गई हैं। उनके आने से आप जैसे अभिनेता के लिए क्या फर्क पड़ा है?
बहुत फर्क पड़ा है क्योंकि यहां बॉक्स ऑफिस पर ओपनिंग का दवाब नहीं कि पहले वीकेंड पर क्या हुआ या पहले सोमवार को फिल्म ने कितना कमाया। यह किसी को पता ही नहीं। यहां कहानियां अच्छी हैं या बुरी, उसी की बात होती है। ओटीटी ने नए फिल्मकारों को मौका दिया है, जो नए-नए इलाकों की नई-नई कहानियां लेकर आ रहे हैं।
आपके निभाए गए किरदारों में मिर्जापुर के कालीन भैया का अक्सर जिक्र आता है। आपको उम्मीद थी कि वह इतना लोकप्रिय हो जाएगा?
कालीन भैया का पात्र निभाते हुए लगा था कि मिर्जापुर पूर्वांचल पर आधारित एक क्राइम ड्रामा है, जिसमें मैं अलग तरह के गैंगस्टर का रोल कर रहा हूं, जो आम तौर पर दिखाए जाने वाले ऐसे किरदारों से अलग है। वह बहुत शांत रहता है, सॉफ्ट स्पोकन है। उसमें गुंडा वाला एलिमेंट नहीं है। इस किरदार के लिए मैंने अपने आपको तैयार किया, जो लोगों को पसंद आया।
आपने पटना के कालिदास रंगालय में थिएटर किया, फिर दिल्ली में एनएसडी गए और फिर मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में आए। क्या ग्रामीण परिवेश में केंद्रित कोई ऐसी भूमिका आपके मन में है, जो आप करना चाहते हैं?
मेरी इच्छा है कि फणीश्वरनाथ रेणु जी की कहानी पर कोई फिल्म बने तो मैं उसका हिस्सा बनंू, क्योंकि उनकी कहानियों की दुनिया मुझे बेहद पसंद है। अभी हाल में मैं कालिदास रंगालय गया था। मुझे लगा कि रेणु जी की कोई कहानी पर फिल्म कभी बने तो करना चाहूंगा।
एक आखिरी सवाल, आपके जैसे ग्रामीण परिवेश से निकालकर बहुत सारे युवा फिल्मों में करियर बनाने मुंबई जा रहे हैं। मौके तो अवश्य बढ़ रहे हैं, लेकिन सबको सफलता नहीं मिल सकती। अगर ऐसे युवाओं के लिए आपसे अपनी सफलता का सूत्र पूछा जाए, तो वह क्या होगा?
पहले तो वे बहुत सेल्फ असेसमेंट करके मुंबई आएं। आप सरस्वती की पूजा लक्ष्मी के लिए करने आ रहे या यह सोचकर कि सरस्वती की पूजा कर रहे हैं तो लक्ष्मी तो आ ही जाएगी। इसका सामान्य अर्थ है कि आप ग्लैमर या पैसा कमाने आ रहे हैं या कला से लगाव के लिए? आपमें सिनेमा या अभिनय के प्रति आकर्षण क्यों है? क्या आप ग्लैमर और पैसा के लिए आ रहे हैं या उसके आर्टिस्टिक पहलू को एक्स्प्लोर करना चाहते हैं। यह आपको स्वयं आकलन करना है। इसके अलावा, ट्रेनिंग बहुत जरूरी है। अब एनएसडी की शाखाएं खुल गई हैं, बनारस में, नार्थ-ईस्ट में। ट्रेंड होकर आएं और साथ ही धीरज लेकर आएं। वहां बहुत समय लगता है। मुझे 18 साल हो गए मुंबई आए और 12-13 साल मैं यहां लॉस्ट ही था। मुझे याद है कुछ वर्षों पूर्व अंग्रेजी आउटलुक के लिए आपने मुझ पर एक लेख लिखा था। उसकी हैडलाइन मैं भूलता नहीं हूं, ‘फायरक्रेकर्स ऑफ अ शैडो डांसर।’ वह शीर्षक मुझे इतना इतना सुंदर लगा था कि कुछ दिनों पहले मैं उसे फिर पढ़ रहा था। मुझे भी कई बार वह चरितार्थ होता लगता है। मैंने भी नहीं सोचा था की मेरी जर्नी यहां तक आएगी। सच पूछिए तो मैं प्लान करके नहीं आया था कि मैं स्टार बन जाऊंगा, हीरो बन जाऊंगा। जहां तक मेरी अपेक्षाएं थीं, वह चार साल पहले पूरी हो गई थीं। अब जो भी हो रहा है, वह सरप्लस हो रहा। इसलिए, मैं बहुत मोह में नहीं पड़ता। यह मां-बाबूजी का आशीर्वाद है, लोगों का प्रेम है, दर्शकों का प्यार है। मैंने तो कुछ खास नहीं किया है।