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आवरण कथा/इंटरव्यू/रजत अरोड़ा: ‘‘लेखक कैसा हो, इसका एहसास सलीम-जावेद ने कराया’’

हिंदी सिनेमा के बारे में प्रचलित धारणा है कि सलीम-जावेद युग के बाद यहां लेखकों को उनका जायज सम्मान और...
आवरण कथा/इंटरव्यू/रजत अरोड़ा: ‘‘लेखक कैसा हो, इसका एहसास सलीम-जावेद ने कराया’’

हिंदी सिनेमा के बारे में प्रचलित धारणा है कि सलीम-जावेद युग के बाद यहां लेखकों को उनका जायज सम्मान और मेहनताना नहीं दिया गया। सुपरस्टार केंद्रित फिल्म इंडस्ट्री में यह धारणा कुछ हद तक ठीक भी है, मगर जबसे दर्शक अच्छी कहानियों की तरफ आकर्षित हुए हैं, लेखक का महत्व बढ़ा है। टैक्सी नंबर 9211 (2006), वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई (2011), द डर्टी पिक्चर (2011) और किक (2014) जैसी कई हिट फिल्मों के लेखक रजत अरोड़ा हिंदी सिनेमा जगत की वर्तमान स्थिति और उसमें लेखक के स्थान को लेकर सकारात्मक नजर आते हैं। ‘कैप्टन मार्वल’ का हिंदी अनुवाद लिखने वाले रजत अरोड़ा कहते हैं कि नए माध्यमों के आने से लेखक की स्थिति बेहतर हुई है। रजत अरोड़ा से हिंदी सिनेमा और लेखकों की स्थिति पर गिरिधर झा ने बातचीत की। मुख्य अंश:

 

 

 

हिंदी सिनेमा में धारणा है कि हॉलीवुड में लेखकों को जो महत्व मिलता है, वैसा सम्मान और मेहनताना हिंदी फिल्म लेखक को नहीं दिया जाता। आपके क्या अनुभव हैं?

 

दुनिया में जितने भी प्रोफेशन हैं, वहां सभी के अलग अनुभव होते हैं। कुछ लोगों को गॉडफादर मिल जाते हैं, तो उनकी नजर में प्रोफेशन शानदार होता है। कुछ लोगों का शोषण होता है, तो उनकी नजर में प्रोफेशन दलदल की तरह दिखाई देता है। दूसरी बात यह है कि हॉलीवुड का स्तर और क्षेत्र बॉलीवुड की तुलना में बड़ा है। इसलिए हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि हमारे लेखकों को भी हॉलीवुड लेखकों जितना पैसा मिले। मैं सिर्फ अपनी बात कहूं तो मुझे हमेशा ही सम्मान मिला है। मैंने किक, द डर्टी पिक्चर, वंस अपॉन ए टाइम इन मुंबई जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्में की हैं। मुझे इन फिल्मों के लिए पूरा सम्मान और मेहनताना दिया गया। लेकिन सच यह भी है कि मैंने अपने फिल्मी करियर में अन्याय की बातें सुनी और देखी हैं। मगर यह सब जगह होता है। हम इस बात का प्रचार करना शुरू कर देंगे तो नए लेखक कभी भी फिल्मों में काम नहीं करना चाहेंगे। इसलिए डर का माहौल बनाने की जगह बेहतर यह है कि हमारे साथ गलत होता है तो हम संघर्ष और न्याय का रास्ता चुनें। सलीम-जावेद ने जब अपनी शर्तों पर काम किया, रीढ़ की हड्डी रखी, तभी उन्हें सुपरस्टार जैसा मुकाम हासिल हुआ।

 

ओटीटी प्लेटफॉर्म आने से क्या लेखकों के लिए परिस्थितियां बेहतर हुई हैं?

 

यह सच है। ओटीटी प्लेटफॉर्म एक क्रांतिकारी बदलाव लेकर आया है। यूं भी नए माध्यम के आने से कलाकारों के लिए अवसर पैदा होते हैं। पहले की तुलना में आज अधिक मात्रा में कंटेंट बन रहा है और रिलीज हो रहा है। इसका यह असर हुआ है कि आपमें प्रतिभा है तो आपको जरूर काम मिलेगा। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि ओटीटी प्लेटफॉर्म के आने से सिनेमा की दुनिया में विविधता आई है। आज हॉरर, रोमांस, क्राइम, साइंस फिक्शन, साइकोलॉजिकल थ्रिलर, बॉयोपिक कंटेंट बन रहा है और दर्शक उसे देखना पसंद कर रहे हैं। ऐसे में हर तरह का कंटेंट लिखने वालों को मंच मिल रहा है। यह स्थिति सुखद है।

 

ऐसी धारणा है कि हिंदी सिनेमा जगत ओरिजिनल कहानी की तुलना में रीमेक पर अधिक भरोसा करता है। आपका इस बारे में क्या कहना है?

 

मेरा अपना अनुभव यह है कि किसी के पास अच्छी कहानी है तो उसे देर-सबेर निर्देशक और निर्माता मिल ही जाता है। हिंदी सिनेमा जगत में कुछ ऐसे निर्देशक-निर्माता हैं, जो नई कहानी को ही महत्व देते हैं। तभी आज हिंदी सिनेमा में एक से बढ़कर एक नए विषयों पर फिल्में दिखाई दे रही हैं। इसलिए हिंदी सिनेमा जगत पर यह लेबल लगा देना कि यहां रीमेक को ही महत्व दिया जाता है, ठीक नहीं है। यहां एक बात का ध्यान रखना जरूरी है कि सिनेमा कला के साथ ही व्यापार भी है। कला और व्यापार के संतुलन से ही फिल्म इंडस्ट्री चल रही है। इसलिए निर्माता को लगेगा कि ओरिजिनल कहानी में दम है और यह पैसा कमा कर दे सकती है तो वह जरूर निवेश करेगा।

सलीम-जावेद की फिल्म जंजीर को रिलीज हुए 50 साल पूरे हो रहे हैं। सलीम-जावेद ने हिंदी सिनेमा में लेखकों की स्थिति को मजबूत किया है। आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?

 

मेरी जानकारी के अनुसार फिल्म जंजीर के पहले केवल कहानी को ही महत्व दिया जाता था। स्क्रीनप्ले और स्क्रीनप्ले राइटर को महत्व दिलाने का काम जंजीर ने किया। आज जब जंजीर के 50 साल पूरे हो रहे हैं, तो मैं और मुझ जैसे तमाम हिंदी फिल्म लेखक सलीम-जावेद के शुक्रगुजार ही हो सकते हैं। उन्होंने ही आने वाली लेखक पीढ़ी को रास्ता दिखाया। उनके काम को देखकर ही लेखकों ने सीखा है। उनके उसूल, तौर-तरीके से ही हिंदी फिल्म लेखकों ने अपना महत्व पहचाना है। एक लेखक को कैसा होना चाहिए, एक लेखक क्या कुछ हासिल कर सकता है, इसका एहसास हिंदी सिनेमा जगत को सलीम-जावेद ने ही करवाया है।

 

आपने हिंदी सिनेमा जगत के बड़े सुपरस्टार्स के साथ काम किया है। ऐसा कहा जाता है कि स्टार्स अक्सर स्क्रिप्ट में बदलाव कराते हैं, कहानी निर्माण में दखल देते हैं। आपके इस बारे में क्या अनुभव रहे हैं?

 

मेरा ऐसा मानना है कि आप कुछ भी अच्छा रचना चाहते हैं तो आपको सभी की बात सुननी चाहिए। आप यह समझ लें कि आप ही सब कुछ जानते हैं तो फिर आप तरक्की नहीं कर सकते। दखल सकारात्मक सोच के साथ है तो यह फिल्म के लिए अच्छा है। हर इनसान के अपने अनुभव होते हैं। फिल्म स्टारों ने भी समाज और सिनेमा को करीब से देखा है। इसलिए जब उन्हें लगता है कि कहानी की बेहतरी के लिए कुछ बदलाव होना चाहिए तो वे अपनी राय रखते हैं। मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं होती है क्योंकि मूल कहानी और कहानी कहने का तरीका मेरा ही होता है। उसमें कोई दबाव नहीं डालता। फिर कोई भी कलाकार अपना इनपुट देता है और वह फिल्म के हित में होता है तो उसका हमेशा स्वागत किया जाता है। हिंदी सिनेमा जगत में आज बाउंड स्क्रिप्ट का कॉन्सेप्ट है, फिल्म की बेहतरी के लिए उसमें अंतिम समय तक बदलाव होता है। विचारों में स्वतंत्रता नहीं होगी, नए विचार को मौका नहीं दिया जाएगा, सकारात्मक बातों को अनसुना कर दिया जाएगा तो इसका नुकसान फिल्म को ही होगा। इसलिए एक दृष्टि से देखें तो जब सकारात्मक सुझाव मिलते हैं तो कहानी को मजबूती ही मिलती है।

मल्टीप्लेक्स कल्चर आने के कारण हिंदी सिनेमा जगत में शहरों पर आधारित फिल्मों का दौर आ गया था। इसका नुकसान हिंदी सिनेमा जगत को हुआ और फिल्मों में दोहराव देखने को मिला। इस बारे में आप क्या कहेंगे?

 

यह बात सही है। मल्टीप्लेक्स कल्चर के आने से शहरों पर आधारित फिल्मों की बाढ़ आ गई। इसका असर यह हुआ कि हमारी फिल्मों से गांव, कस्बे गायब होने लगे। लोगों का जो जुड़ाव था, वह फिल्मों से खत्म होने लगा। इसका नतीजा यह हुआ कि बड़ी-बड़ी फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर फेल होने लगीं। यह घड़ी सचेत होने की थी। फिल्मकारों ने अपनी गलती सुधारी और ग्रामीण क्षेत्रों से निकलने वाली कहानियों को सिनेमाई परदे पर जगह दी। इससे ग्रामीण क्षेत्रों से आने वाले लेखकों और निर्देशकों को अवसर मिला। उन्होंने अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और मान-सम्मान पाया। आज आप देखें तो ऐसी ही फिल्मों को दर्शकों की तारीफ मिलती है जिनकी जड़ें भारतीय परिवेश से जुड़ी होती हैं। इस बात को फिल्मकार समझ गए हैं। यानी जो गलती मल्टीप्लेक्स कल्चर के आने पर हुई थी, उसे सुधार लिया गया है।

 

जब आपने स्क्रीनराइटर के रूप में शुरुआत की तो वह कौन-सी फिल्में थीं जिन्होंने आपको राह दिखाने का काम किया?

 

हमारी हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में ऐसी कई फिल्में बनी हैं, जो आपको राह दिखाने का काम करती हैं। सभी फिल्में अपने जॉनर में अद्भुत और सम्पूर्ण हैं। आप उन्हें बार-बार देख सकते हैं और हर बार कुछ नया सीख सकते हैं। मैंने शोले (1975), गाइड (1965), अमर अकबर एंथोनी (1977), आनंद (1971) जैसी फिल्मों से खूब सीखा है। आपको मेरी फिल्मों में जो रोमांस, एक्शन, ड्रामा, हास्य की विविधता दिखाई देती है, वह उन्हीं सब फिल्मों से आई है।

 

संघर्षरत फिल्म लेखकों को क्या सलाह देना चाहेंगे?

 

मेरी सभी लेखकों को बस यही सलाह रहती है कि आप अच्छा से अच्छा साहित्य पढ़ें और अच्छे से अच्छा सिनेमा देखें। जितना कर सकें उतना। इन दो काम के बिना आप सफल लेखक नहीं बन सकते। आपको लेखक के रूप में कुछ ऐसा काम करना है जो दर्शकों के दिलों में जगह बनाए। इसके लिए जरूरी है कि आपको अपने समाज, दुनिया और एक मनुष्य की तरह बेहतर समझ होनी चाहिए। बिना अनुभव के आपके काम में असर पैदा नहीं होगा। इस असर के लिए ही आपको पढ़ना और देखना ही होगा।

 

 

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