प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने कहा है कि भारत में हजारों वर्षों से व्यवस्था के ताकतवर लोग दूसरों को हीन और दोयम मानते रहे है। वे अपने स्वार्थों और आवश्यकताओं के अनुसार दूसरों को अपना भी बनाते रहे हैं। मशहूर कवि, चिंतक और रंग समीक्षक नेमिचंद्र जैन की जन्म शताब्दी के अवसर पर आयोजित ‘अन्यता की उपस्थितिः आदिकालीन उत्तर भारत में धर्म और समाज’ विषय पर व्याख्यान में थापर ने कहा कि आज भी मुस्लिमों को पराया माना जा रहा है।
दूसरी सहस्राब्दी बीसी में भी बंटा हुआ था समाज
देश की जानी-मानी इतिहासकार रोमिला थापर ने व्याख्यान में देश के आदिकालीन इतिहास से लेकर मध्य काल तक के विभिन्न खंडों की घटनाओं का उल्लेख करके अपने और परायों को लेकर समय-समय पर अपनाए गए दृष्टिकोणों पर प्रकाश डाला। उस समय भी समाज ताकतवर और कमजोर वर्गों में बंटा हुआ था। धर्म भी औपचारिक और अनौपचारिक में बंट गया। आमतौर पर सत्ताधारी ताकतवर वर्ग का धर्म औपचारिक बन गया जिसे प्रोत्साहन दिया गया और पूजा स्थल जगह-जगह स्थापित हो गए। इसके विपरीत अनौपचारिक धर्म कमजोर वर्ग के लोगों की व्यक्तिगत और सामाजिक मान्यता पर आधारित था। उन्होंने कहा कि द्वितीय सहस्राब्दी बीसी में ही उपनिवेश बनाना शुरू हो गया था। 19वीं सदी में ब्रिटिश इतिहासकार मैक्स मुलर के सिद्धांत से यह बात सामने आई।
शुद्ध संस्कृत न बोल पाने वालों को दास मान लिया
थापर के अनुसार वेदिक काल में आर्य समाज के लोग संस्कृत भाषा और सामाजिक परंपराओं के मामले में ज्यादा परिष्कृत थे। इसके विपरीत दास वर्ग के लोग शुद्ध संस्कृत नहीं बोल पाते थे। वे सामाजिक परंपराओं को निभाने में आर्यों से अलग रहते थे। इस वजह से दासों को निचले दर्जे का माना जाने लगा। समाज में उनका काम सिर्फ आर्यों की सेवा करना था। दासों को लालची और राक्षस के रूप में भी प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने व्याख्यान में कहा कि ऐसा नहीं है कि कमजोर वर्ग के सभी व्यक्ति दास ही बने रह गए। उनमें से कुछ ऐसे भी थे जिन ब्राह्मणों ने अपने साथ मिला लिया और उन्हें ब्राह्मण मान लिया। इतिहास में ऐसे कई दासी पुत्र ब्राह्मणों का उल्लेख मिलता है। इनमें गौतम का उल्लेख मिलता है।
हमेशा मित्रवत नहीं रहे जैन और बौद्ध धर्म से संबंध
उन्होंने कहा कि प्रथम सहास्राब्दी बीसी में ब्राह्मणों के मध्य मतभेद बढ़ गए। इसके कारण समाजा में बड़ा बदलाव देखा गया। औपचारिक धर्म और परंपराओं को न मानने वालों को नास्तिक कहा गया। यहीं से कई पंथों का जन्म होने लगा। इनमें जैन और बौद्ध शुरू में पंथ के तौर पर अलग हुए। शुरू में जैन और बौद्ध कोई औपचारिक धर्म नहीं थे। कई धर्म एक साथ पनपते रहे। हालांकि इन धर्मों का सहअस्तित्व हमेशा मित्रवत नहीं था बल्कि कभी-कभी उनमें स्पर्धा और शत्रुता भी थी। इस दौर में कौटिल्य यानी चाणक्य भी मौर्य काल के दौरान सामाजिक व्यवस्था में कोई बदलाव नहीं लाए। थापर ने कहा कि इस दौर में भी समाज में दूसरे धर्मों को तब तक पराया ही माना गया जब तक वे ताकतवर नहीं हो गए। जब दूसरे धर्म के लोग शक्तिशाली हो गए तो उन्हें अपना लिया गया। 500 सदी से लेकर 1500 सदी तक पूरे देश में कई धर्म और पंथ विकसित होने के बाद मिश्रित समाज बन गया। इस अवधि में शक, हूण, कुषाण भारत आए। यहां पहले से स्थापित व्यवस्था ने उन्हें बाहरी और अलग माना। यहां के ताकतवर लोग बाहरी लोगों को आमतौर पर म्लेच्छ और यवन कहा करते थे। लेकिन जब वे उन्हें जीतने में नाकाम रहे तो उन्हें अपने ही धर्म में मिला लिया।
आज जरूरत नहीं हो मुस्लिमों को पराया मान लिया
1600 सदी में भारत में भक्ति आंदोलन ने जोर पकड़ा। सूफीवाद भी इस समय विकसित हुआ। इस दौरान कबीर, रविदास, रसखान, अब्दुल रहीम खानखाना, हरिदास, सैयद मोहम्मद जायसी जैसे कवि और समाज सुधारकों का उदय हुआ इस दौर में मुस्लिमों का प्रभाव बढ़ने से समाज में काफी बदलाव आया। लेकिन ताकतवर के सामने झुकने और कमजोर को झुकाने की प्रवृत्ति बरकरार रही। इल दौरान अफगान और मुगल आए। कई हिंदू राजाओं ने मुस्लिम शासकों के साथ अपनी बेटियों की शादियां कर दीं। इससे उन्होंने मुस्लिम शासकों के साथ राजनीतिक और सामाजिक रिश्ते बना लिए और काफी हद तक उन्हें अपने साथ मिला लिया। लेकिन आज जब मुस्लिमों की आवश्यवकता नहीं है तो उन्हें पराया माना जा रहा है।