दिलीप कुमार
(11 दिसंबर 1922-7 जुलाई 2021)
कई बार ऐसा लगता है कि कुछ शब्द ज्यादा ही इस्तेमाल किए जाते हैं, जो अक्सर सही नहीं होते। जैसे, किसी के भी बारे में कहा जाता है कि वे अपने आप में एक इंस्टीट्यूशन या संस्था हैं। लेकिन दिलीप कुमार साहब के बारे में यह बिलकुल उपयुक्त है। वे अच्छे अभिनेता से भी बहुत बड़ी चीज थे। दुनिया में एक ‘मेथड स्कूल ऑफ एक्टिंग’ कहलाता है, जिसके तहत किरदार निभाने का अपना एक खास तरीका होता है। बहुत कम लोगों को पता होगा कि दिलीप साहब ने ही दुनिया में सबसे पहले ‘मेथड एक्टिंग’ शुरू की। मुझे नहीं मालूम कि जब उन्होंने 1944 में ज्वार-भाटा से अपने करिअर का आगाज किया, तो उन्हें यह बात पता थी या नहीं। जैसे ऑक्सीजन नामकरण होने के पहले भी जो सांस हम ले रहे थे, वह भी ऑक्सीजन ही थी। कभी-कभी लोग अपने अंदर कुछ विकसित कर लेते हैं और उस पर काम करने लगते हैं और बाद में उन्हें पता चलता है कि इस प्रक्रिया का नाम तो यह है। दरअसल, पूरी दुनिया में फिल्मों में अगर कोई पहला मेथड एक्टिंग करने वाला अभिनेता था तो वे दिलीप साहब ही थे। हालांकि, आम तौर पर मार्लन ब्रांडो को पहला मेथड एक्टर समझा जाता है, लेकिन वे करिअर में दिलीप साहब से सात-आठ साल जूनियर थे।
मगर उस समय हिंदुस्तान की फिल्म इंडस्ट्री में क्या हो रहा था, वह बाहर की दुनिया में पता नहीं होता था। यहां की फिल्में भी बाहर नहीं दिखाई जाती थीं। ऐसे ही यहां की बहुत सारी बातें हैं, जो बाहर के लोगों को पता नहीं होतीं। अभी कुछ साल पहले अमेरिका में पता चला कि नीम में एंटीसेप्टिक तत्व पाए जाते हैं, लेकिन मुझे याद है कि जब बचपन में मेरे शरीर पर दाने हो गए थे तो मेरी नानी नीम की पत्तियां पानी में उबाल कर उन पर लगाया करती थीं। हमारी ऐसी परंपराएं रही हैं।
ऐसी ही एक्टिंग की एक परंपरा दिलीप साहब ने शुरू की, जिसे बाद में मेथड स्कूल ऑफ एक्टिंग के नाम से जाना गया। मुझे नहीं पता कि जब स्टेनिस्लाव्सकी ने इस स्कूल का ईजाद किया तो यहां उसकी खबर थी या नहीं, मगर दिलीप कुमार ने 1944 में जो एक्टिंग की स्टाइल विकसित की, उसकी झलक आज 2021 के अभिनेताओं में भी मिलती है। लेकिन इन अभिनेताओं को यह नहीं मालूम कि यह कहां से आई है, क्योंकि यह एक्टिंग स्टाइल पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रही है। जैसे हमारी-आपकी गाडि़यों में पहिये लगे हैं लेकिन हमें यह नहीं मालूम कि इसका आविष्कार किसने किया। दिलीप साहब का असर हिंदुस्तानी अभिनेताओं पर बहुत गहरा है। मैं किसी दूसरे अभिनेता के बारे में ऐसा नहीं कह सकता, जिसने हिंदी सिनेमा की आने वाली कई पीढि़यों को प्रेरित किया।
इसके अलावा, एक अजीब-सी बात है कि आप अगर किसी खराब एक्टर की दस फिल्में देख लें तो भी उसके बारे में कुछ नहीं पता नहीं चलता, लेकिन अगर आप किसी अच्छे अभिनेता की कुछ फिल्में देख लें तो धीरे-धीरे आपको उसकी पूरी शख्सियत का अंदाजा हो जाता है। दिलीप साहब की एक्टिंग हो या जाती जिंदगी, गरिमा उनकी पर्सनालिटी में बहुत बड़ी चीज थी। उन्होंने कभी हल्की या छोटी बात नहीं की। जैसे, वे बड़ों से बड़े अदब और इज्जत से पेश आते थे, वैसे ही छोटों के साथ प्यार-मोहब्बत से। अशोक कुमार साहब उनसे दस-बारह साल सीनियर थे और मैंने उन दोनों को एक साथ देखा है। आखिरी वक्त तक दिलीप साहब उन्हें हमेशा अशोक भैया कहते थे और उनकी वैसी ही इज्जत करते थे और वैसी ही तहजीब और अदब से बात करते थे, जैसी बड़ों से करनी चाहिए। दिलीप साहब उसकी बहुत बड़ी मिसाल थे, परदे पर भी और निजी जिंदगी में भी। ऐसा तौर-तरीका, ऐसी संस्कृति दुनिया से खत्म होती जा रही है। आज आम तौर पर लोग हल्की बातें करते हैं, चाहे वे किसी भी क्षेत्र के हों। आज जब हम ऐसे कुछ गरिमापूर्ण लोगों से मिलते हैं, जिनमें ठहराव हो तो लगता है कि वे पुराने जमाने के हैं। पहले के और आज के लोगों में जो फर्क अब दिखता है, वह लेदरबाउंड, हार्डबाउंड, लाइब्रेरी एडिशन की किताबें और पेपरबैक एडिशन के बीच का फर्क है।
मैंने होश संभालने के बाद छह-सात वर्ष की उम्र में जो पहली फिल्म देखी, वह थी दिलीप साहब की आन (1952)। मैं तो हमेशा से उनका फैन रहा हूं। बाद में, मेरे लिए यह बड़े इज्जत की बात है कि मुझे उनके साथ काम करने का मौका मिला। मैंने उनके लिए फिल्में और संवाद लिखे।
व्यक्तिगत रूप से हमारे बहुत अच्छे ताल्लुकात थे। मुझे उनके साथ कई फिल्मों में और अन्य चीजों में भी काम करने का मौका मिला। वे लोगों को बहुत इज्जत और मोहब्बत देते थे। उनके बात करने का ढंग ऐसा था कि लोगों को लगता था कि बस उनको सुनते रहें। जो आकर्षण उनका परदे पर था, वही उनकी असली जिंदगी में भी था। जो भी उनसे मिलता था, उन पर फिदा हो जाता था।
मुझे आज तक याद है, जब मैं पहली बार उनसे मिलने गया था और जब मेरा उनसे परिचय कराया गया, उस समय मेरे हाथ कांप रहे थे। बाद में वह भी दौर आया जब हमने साथ काम किया। वे बेहतरीन मेजबान थे। ऐसे भी बहुत मौके हुए जब हम दो-तीन बजे रात तक साथ बैठे रहते थे। वे बहुत ही जहीन शख्सियत के मालिक थे और उनकी पूरी मुकम्मल पर्सनालिटी थी।
इनसान का जिस्म चला जाता है, लेकिन उसके संस्कार और काम रह जाते हैं। दिलीप साहब का अभिनय हमेशा रहेगा, चाहे वह देवदास (1955) हो या गंगा जमुना (1961), राम और श्याम (1967) हो या शक्ति (1982)। और उससे भी ज्यादा जिंदा रहेगी एक बात। दिलीप साहब से हिंदुस्तान के अभिनेताओं ने बहुत सीखा, उनसे बहुत प्रेरणा ली। जब तक उनका काम हमारे नए नौजवान एक्टरों में जिंदा दिखता रहेगा, दिलीप साहब जिंदा रहेंगे।
(जावेद अख्तर ख्यातिप्राप्त लेखक, पटकथा लेखक और कवि हैं, उन्होंने दिलीप कुमार के साथ शक्ति और मशाल जैसी फिल्मों में काम किया। गिरिधर झा से बातचीत पर आधारित)