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राजीव हत्याकांड/नजरिया: एक शब्द!

  “पेरारिवालन और उनकी मां राजीव गांधी की हत्या के लिए भी माफी कहतीं तो बेहतर होता” पढ़ रहा हूं कि...
राजीव हत्याकांड/नजरिया: एक शब्द!

 

“पेरारिवालन और उनकी मां राजीव गांधी की हत्या के लिए भी माफी कहतीं तो बेहतर होता”

पढ़ रहा हूं कि राजीव गांधी की हत्या के अपराधियों में से एक ए.जी. पेरारिवालन की मां अरपुथ्थम अम्माल को एक शब्द की तलाश है! ऐसा शब्द जिससे वे उन सबका आभार व्यक्त कर सकें जिन सबने उनके बेटे की 31 साल लंबी कैद के दौरान उन्हें भरोसा, साहस, समर्थन और साधन दिए। 75 साल की मां अम्माल को किसी भाषा में वह एक शब्द नहीं मिला, जिससे वे आभार की अपनी भावना को परिपूर्णता से प्रेषित कर सकें, “एक ऐसे सामान्य व्यक्ति के समर्थन में खड़ा होने के लिए, जिसकी कोई खास पृष्ठभूमि नहीं है, न्याय के प्रति आपका गहरा जुड़ाव जरूरी है। जिस आदमी से वे लोग कभी मिले ही नहीं, कभी न देखा न बातें कीं, उसके लिए समय और शक्ति लगाना बताता है कि उनके मन में कितना प्यार और अपनापन भरा है। मैं उन एक-एक आदमियों तक पहुंच कर, उनका हाथ पकड़ कर अपना आभार और नमन बोलना चाहती हूं जिन्होंने 31 साल लंबे मेरे संघर्ष के विभिन्न मोड़ों पर मेरा साथ दिया। यह करके भी मैं उस ऋण से उऋण नहीं हो सकती। बस एक ही शब्द है मेरे पास जिसे खुशी, प्यार और सम्मान के आंसुओं से भरी आंखों से मैं कह सकती हूं: आभार!” 75 साल की आयु, जर्जर और 31 साल की कानूनी जंग में अपने अस्तित्व की बूंद-बूंद जला कर क्षत-विक्षत हुई अम्माल अपने होने का ओर-छोर संभालती, 50 साल के अपने बेटे पेरारिवालन की बांह पर निढाल होती, बस यही कह सकीं।

अम्माल की तरह मैं भी इस पूरे विवरण को एक शब्द में व्यक्त करने के लिए एक उपयुक्त शब्द खोजता रहा और अंतत: मिला मुझे भी वही एक शब्द- मां। मां के अलावा भला ऐसा कौन हो सकता है?

हमारे सर्वोच्च न्यायालय को भी कोई एक शब्द नहीं मिला जिससे वे बता पाते कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के सिद्ध मामले में फांसी की सजा पाए पेरारिवालन को सजा और कैद से मुक्ति देते हुए वे हमारे संवैधानिक न्याय की किस धारा का पालन कर रहे हैं। न्यायमूर्ति नागेश्वर राव, बी.आर.गवई और ए.एस.बोपन्ना की पीठ ने कहा, “संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत मिले अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए हम यह निर्देश देते हैं कि हमारी नजर में वादी ने अपने अपराध की सजा पा ली है। वादी, जो पहले से ही जमानत पर है, तत्क्षण से ही आजाद किया जाता है। जमानत की उसकी अर्जी भी अभी से निरस्त होती है।”

इतना आदेश देने के साथ ही पीठ ने कई बातें साफ कीं, मसलन तमिलनाडु मंत्रिमंडल का ऐसा प्रस्ताव करना कि राजीव गांधी के हत्यारे की सजा माफ की जाए, कि ऐसे प्रस्ताव के ढाई साल बाद तमिलनाडु के राज्यपाल का उस प्रस्ताव को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजना किसी भी दृष्टि से संवैधानिक नहीं है। उसने यह भी कहा कि केंद्र सरकार की इस दलील का कोई संवैधानिक आधार नहीं है कि 2014 के सर्वोच्च न्यायालय के (केंद्र सरकार बनाम श्रीहरन) निर्देश के मुताबिक ‘वैध सरकार’ मतलब केंद्र सरकार को ऐसे मामलों में अंतिम निर्णय का अधिकार है। पीठ ने यह भी साफ किया कि अनुच्छेद 161 के अंतर्गत राज्यपाल को सजा माफ करने, राहत देने, स्थगित करने या पुनर्विचार करने का जो अधिकार है वह अधिकार न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर नहीं है। पीठ ने इस मामले को राज्यपाल के पास पुनर्विचार के लिए भेजने से भी इनकार कर दिया।

पेरारिवालन को राजीव गांधी हत्याकांड में सीधा लिप्त पाया गया था और लंबे मुकदमे के बाद टाडा अदालत ने 28 जून 1998 को 26 अभियुक्तों को मौत की सजा सुनाई थी जिनमें पेरारिवालन भी था। 11 मई 1999 को सर्वोच्च न्यायालय ने पेरारिवालन समेत चार अभियुक्तों की मौत की सजा को स्वीकृति दी थी। अगस्त 2011 में मद्रास उच्च न्यायालय ने फांसी पर रोक लगा दी। यहां से मां अम्माल ने बेटे को बचाने की वह मुहिम छेड़ी जो अब जाकर सफल हुई। अपनी साड़ी पर ‘फांसी की सजा खत्म करो’ का आह्वान लिख कर अम्माल देश भर की जेलों, अदालतों का चक्कर काटती रहीं और सबकी अंतरात्मा पर चोट करती रहीं।

अपनी मां अम्माल के साथ पेरारिवालन

अपनी मां अम्माल के साथ पेरारिवालन 

पेरारिवालन को भी कहने को वह शब्द नहीं मिल रहा था जिससे वे अपना मन खोल सकें। उन्होंने कहा, “अपने जीवन और न्याय के लिए मेरे पास मेरी मां ही एकमात्र आधार थी।” पेरारिवालन ने भी कहा कि फांसी की सजा पर कानूनन रोक लगनी चाहिए। जरूर ही लगनी चाहिए, क्योंकि मैं उन लोगों में से हूं जो हमेशा से मानते हैं कि फांसी मनुष्य की सारी संभावनाओं को समाप्त कर देने वाला एक असभ्य चलन है। मेरे लिए इस प्रावधान की समाप्ति का समर्थन करना एकदम सहज और तर्कसंगत है। मैं जानता हूं कि बाजदफा मनुष्य ऐसे अपराध करता है जिसके बाद उसका जीना घृणित हो जाता है। जब हम पाते हैं कि अपने अमानुषिक कृत्य के लिए उसके मन में पश्चाताप का कोई भाव भी नहीं जागता है, तो लगता है कि उससे जीने का अधिकार छीन लेना चाहिए। लेकिन मैं यह भी जानता हूं कि उसके बाद भी मनुष्य में सुधार और बदलाव की संभावना को खत्म करना अमानवीय है। इससे मानवीय अपराध-शास्त्र में कोई नया आयाम नहीं जुड़ता है। पेरारिवालन स्वयं इसके उदाहरण हैं। 19 साल की उम्र में हत्या के अपराधी के रूप में अपनी गिरफ्तारी के बाद से अपने अच्छे व्यवहार, चाल-चलन के कारण, लगातार पढ़ाई में आगे बढ़ते जाने के कारण ही उनके मामले पर अदालत ने अलग से विचार किया। लेकिन पेरारिवालन से मैं पूछना यह चाहता हूं कि “भाई मेरे, यदि तुम फांसी की सजा खत्म करवाना चाहते हो तो क्या हत्या का अधिकार बरकरार रखना चाहते हो? कानून को किसी की जान लेने का हक न हो तो क्या व्यक्ति को किसी की जान लेने का हक होना चाहिए? जान बम से लो या कानून से, मान्यता तो यही मजबूत होती है न कि जान लेना गलत नहीं है फिर वह जान राजीव गांधी की हो या पेरारिवालन की। दोहरा मानदंड कैसे चल सकता है?”

पेरारिवालन की माफी और मां अम्माल की भावनात्मक अभिव्यक्ति की इस पूरी कहानी में मैं भी एक शब्द ही तो खोजता रहा! तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में 21 मई 1991 को जिस राजीव गांधी की जघन्य हत्या पेरारिवालन और उनके साथियों ने की, वे राजीव देश के पूर्व प्रधानमंत्री भर नहीं थे बल्कि एक भरे-पूरे परिवार के पिता-पति और जीवन केंद्र थे। उस हत्या ने पूरे परिवार को सन्निपात में झोंक दिया। इन सबसे वे कैसे उबरे, कैसे जीवन का मकसद और रास्ता खोजा यह अलग कहानी है। लेकिन एक सच्ची कहानी यह भी तो है कि राजीव गांधी के परिवार ने खुद को इस तरह और इतना संभाला कि हत्यारों की इस पूरी टोली को अपनी तरफ से माफ कर दिया। किशोरी प्रियंका ने तब जेल में जा कर हत्या की दोषी नलिनी से मुलाकात की थी और परिवार की तरफ से उसे माफी के प्रति आश्वस्त किया था। पूरे परिवार ने अपने पति-पिता के हत्यारों के प्रति अपना भाव फिर कभी नहीं बदला। उनके लिए जो बीत गया, वो बीत गया। क्या उस हत्या के लिए, उस परिवार के लिए 31 साल के लंबे उतार-चढ़ाव को देखने-भोगने के बाद भी मां-बेटे के पास एक शब्द नहीं है? यह भाव उनके किसी आंतरिक विकास का प्रमाण नहीं देता है। इस कहानी में एक शब्द छूट रहा है। अम्माल या पेरारिवालन को यदि खोजने पर भी वह शब्द नहीं मिल रहा हो, तो मैं उनकी मदद करता हूं। वे आसमान की तरफ हाथ उठाएं और उस अदृश्य से कहें, “माफी। अपने कृत्य के लिए हमें अफसोस है।” इस एक शब्द के बिना यह कहानी अधूरी और मलिन ही रह जाएगी।

(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष और वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं)

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