बापू का उपवास उस सदविवेक को जगाने का उपक्रम था, जिसे उन्मादियों ने जहरीला बना दिया था, आज भी कुछ वैसा ही दौर लौटता लगता है।
1948 की 12 जनवरी थी! अभी-अभी आजाद हुए देश की राजधानी दिल्ली का बिड़ला भवन...दमघोंट चुप्पी सब ओर जमी हुई थी-थरथराती हुई! हर सुबह की तरह आज भी 3.30 बजे सभी प्रार्थना के लिए जमा थे, लेकिन कहीं कुछ था कि जो बर्फ की तरह जमा धरा था, बापू थे और प्रार्थना में डूबे थे...लेकिन जैसे वे वहां नहीं थे...आज उनका मौन दिवस था...लेकिन यह दूसरे मौन दिवसों से कुछ अलग था, क्योंकि बापू कहीं भीतर ही गुम थे। प्रार्थना खत्म हुई, उन्होंने इधर-उधर देखा कि जैसे कुछ खोज रहे हों...मनु करीब आईं और उनके सहारे वे उठे...उलझते-से पांवों से अपने कमरे की ओर चले...मनु ने ओढ़ा कर सुला दिया और खुद भी सोने चली गईं...बापू सोये नहीं, उठ बैठे और कुछ लिखने लगे...जो लिखा उसका अनुवाद सुशीला नैयर करती थीं। वे अनुवाद बोलती जाती थीं और मनु लिखती जाती थीं।
हर सोमवार को यह अनुवाद-बैठक होती थी। उस रोज भी हुई और सुशीला जी ने पढ़ना शुरू किया कि अचानक वे चीख पड़ीं: “अरे, मनु, देख यह क्या...वे जो पढ़ रही थीं और जो कह रही थीं उस पर उनका ही भरोसा नहीं बैठ रहा था...“अरे...मनु...देख...बापू तो कल से अनशन पर जा रहे हैं!!”...और मनु कुछ समझतीं कि सुशीला जी बेतहाशा भागीं बापू के पास!...बापू मौन थे। कुछ भी सुनना-कहना नहीं था उन्हें! इशारे से इतना ही कहा कि बात तो मौन खत्म होने पर ही होगी, अभी तो जो लिखा है उसका अनुवाद करो!...यह कैसे संभव है! ...उपवास फिर?... अभी ही तो बमुश्किल छह माह पहले कलकत्ता का वह भयंकर उपवास हुआ था...मौत एकदम सामने आ बैठी थी...पागल कलकत्ता...खून सवार था जिसके सर पर उसके सामने प्रार्थनारत उपवास पर बैठी बापू की वह दुबली-पतली काया...सारी शैतानी के केंद्र में थे सुहरावर्दी जो आज खुद का सामना भी नहीं कर पा रहे थे...हैदरी मेंशन का वह दृश्य भला कौन भूल सकता था...जैसे तेज आंधी में कोई दीया जल रहा हो...हवा का हर झोंका जिसकी लौ को खात्मे तक खींच ले जाता था और बुझते-बुझते फिर-फिर लौ संभल कर स्थिर हो जाती थी...
कलकत्ता में बापू के प्रार्थनामय उपवास से क्या होगा, न कोई जानता था, न मानता था लेकिन हर कोई भीतर-भीतर यह जान रहा था कि इस आदमी के अलावा दूसरा कोई नहीं है कहीं कि जो सब कुछ लील जाने वाली इस आग को लील सकता है...इस आग को लगाने-उकसाने वाले सुहरावर्दी को कहां पता था कि यह आदमी अपनी जान उनके हाथ में छोड़ कर इस कदर निर्विकार प्रार्थनारत हो जाएगा...सुहरावर्दी इस उपवास का मुकाबला नहीं कर सके और हालात पर काबू करने में उन्होंने खुद को झोंक दिया...फिर वह सब हुआ कि जिसे वायसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन ने अपनी ‘वनमैन आर्मी’ का चमत्कार कहा...बापू को अस्तित्व की आखिरी लकीर तक पहुंचा कर वह उपवास पूरा हुआ था...बापू की बात छोड़ें हम, बापू के लोग भी अभी उस उपवास से संभले नहीं थे...कि अनुवाद से निकल आया यह नया उपवास!! ... हालत कलकत्ता से भी बुरी है और यहां कोई सुहरावर्दी भी नहीं है। सुशीला, मनु सभी पागल हुए जा रहे थे लेकिन वे दोनों जान रही थीं कि अनुवाद पूरा करना पहली प्राथमिकता है...वह पूरा नहीं हुआ तो उपवास की परीक्षा और दारुण हो जाएगी...इसलिए घनश्यामदास बिड़ला तक बात पहुंचा कर दोनों अनुवाद पूरा करने बैठ गईं...
बात जंगल में आग की तरह फैल गई। सरदार, जवाहर, राजेन बाबू, मौलाना, देवदास सभी एक-पर-एक पहुंचने लगे सब एक-दूसरे से आंखें चुरा रहे थे...किसी के पास कहने को कुछ नहीं था...ढले चेहरे, झुके कंधे और खोई निगाहें...सब कितनी ही रातों से सोये नहीं थे...सड़कों पर भागते, दंगाइयों से लड़ते, अधिकारियों को कसते और भीड़ को समझाते वक्त रेला किधर से आ कर किधर जा रहा था, किसी को पता नहीं था...लेकिन यह सबको पता था कि यह बूढ़ा आदमी नहीं रहा तो किसी के बस का कुछ भी नहीं रह जाएगा...आशंका सबको थी, क्योंकि इस बार कलकत्ते से जब बापू लौटे तबसे ही जैसे कुछ था जो उन्हें मथ रहा था। वे बहुत चुप हो गए थे, ज्यादा सुनने में लगे रहते थे। हर खबर, हर आदमी, हर घटना जैसे उन्हें कुचल कर निकल जाती थी...वे आए थे तब दिल्ली में रुकने की बात ही नहीं थी। उन्हें पश्चिमी पंजाब जाना था। कलकत्ते में अग्नि-स्नान करके, अब वे पंजाब के दावानल में उतरना चाहते थे। दिल्ली तो रास्ते का पड़ाव भर था...लेकिन...दिल्ली स्टेशन उतरते ही वे बारूदी गंध को भांप गए। उन्हें लेने स्टेशन पर सभी आए थे, लेकिन जैसे हर कोई उनसे नजरें चुरा रहा था। दिल्ली में किसी श्मशान की शांति पसरी हुई थी।
मौन पूरा हुआ। बापू को ही कहना था, बापू ने ही कहा: “पंजाब जाने के लिए आया था यहां, लेकिन देखा कि दिल्ली तो वो दिल्ली बची नहीं है। हमेशा ही हंसी-मजाक करने वाले सरदार के चेहरे पर हंसी की एक रेखा नहीं थी। मैंने समझ लिया कि यह मेरा पहला मोर्चा है। सिपाही तो वही है न जो सामने आए मोर्चे पर डट जाए न कि आगे के किसी मोर्चे के लिए इस खतरे से मुंह फेर ले। मैंने भी अपना धर्म समझ लिया। दिल्ली हाथ से निकली तो हिंदुस्तान निकला समझिए! यह खतरा मोल नहीं लिया जा सकता है। मैंने देखा कि हिंदू, मुसलमान, सिख एक-दूसरे के लिए पराए हो चुके हैं। कल की दोस्ती का आज कहीं पता नहीं है। ऐसे में कोई सांस भी कैसे ले सकता है! जो मिला उसी ने बताया कि दिल्ली में मुसलमानों का रह पाना अब संभव नहीं है। मुसलमान भाइयों के चेहरे पर एक ही सवाल मैं पढ़ पा रहा था: “हम क्या करें?” मेरे पास कोई जवाब नहीं था। ऐसा बेजुबान तो मैं कभी भी नहीं हुआ था। ऐसी लाचारी के साथ जीना तो मैं कभी कबूल न करूं। लेकिन करूं क्या! ऐसे में कोई सत्याग्रही कैसे अपनी भूमिका तय करे और उसे निभाए? यही सवाल मुझे मथे जा रहा था। फिर जैसे भीतर ही कहीं बिजली कौंधी, रोशनी में मुझे अपना कर्तव्य साफ दिखाई दे गया! जब दूसरे की जान की कोई कीमत नहीं की जा रही हो तब अपनी सबसे कीमती चीज को, अपनी जान को अपनी राजी-खुशी से दांव पर लगा देने का रास्ता ही तो बचता है न! इस प्रार्थना के साथ मैं उपवास के रास्ते आ लगा हूं कि मुझमें अगर पवित्रता है तो यह आग बुझेगी ही! मेरे उपवास का कोई अरसा नहीं है, कोई शर्त भी नहीं है। मेरी प्रार्थना से जब यह आवाज आएगी कि सभी कौमों के दिल मिल गए हैं और वे किसी बाहरी दबाव के कारण नहीं, बल्कि अपना धर्म समझ कर रास्ता बदल रहे हैं, मेरा उपवास छूट जाएगा...,” वे थोड़ा रुके जैसे अपने ही भीतर कुछ टटोल रहे हों।
आज उनके शब्द मुंह से नहीं, आत्मा की अतल गहराइयों से निकल रहे थे, “आज एशिया और दुनिया के हृदय से भारत की शान मिट रही है। इसका सम्मान कम होता जा रहा है। अगर इस उपवास के कारण हमारी आंखें खुलें तो वह शान वापस लौट आएगी। मैं आपसे हिम्मत के साथ कहता हूं कि अगर भारत की आत्मा खो गई तो आज के झंझावात में घिरी दुखी और भूखी दुनिया की आशा की अंतिम किरण का भी लोप हो जाएगा... मेरे कोई मित्र या दुश्मन-अगर ऐसा कोई अपने को मानता हो, तो- मुझ पर गुस्सा न करें। कई लोग हैं कि जो उपवास के मेरे तरीके को ठीक नहीं मानते हैं। मेरी प्रार्थना है कि वे मुझे बर्दाश्त करें और जैसी आजादी वे खुद के लिए चाहते हैं वैसी ही आजादी मुझे भी दें। एक ईश्वर ही है कि जिसकी सलाह से मैं चलता हूं। मुझे दूसरी कोई सलाह चाहिए नहीं। अगर यह उपवास मेरी भूल है, ऐसा जिस किसी भी क्षण मुझे लगेगा, मैं सबके सामने अपनी भूल कबूल कर उपवास छोड़ दूंगा, लेकिन इसकी संभावना कम है। अगर मेरी अंतररात्मा की आवाज स्पष्ट है, जो है ऐसा मेरा दावा है, तो उस आवाज को रद्द कैसे किया जा सकता है! इसलिए आप सबसे मेरी प्रार्थना है कि मेरे साथ दलील न करें, मेरे फैसले को उलटने की कोशिश न करें। जिस निर्णय को बदला नहीं जा सकता, उसमें आप मेरा साथ दें...शुद्ध उपवास भी शुद्ध धर्म-पालन की तरह है। उसका बदला अपने-आप मिल जाता है। मैं कोई परिणाम लाने के लिए उपवास नहीं करता। मैं उपवास करता हूं, क्योंकि तब वही मुझे करना चाहिए...अगर मुझे मरना है तो शांति से मरने दें। मुझे शांति तो मिलने ही वाली है, यह मैं जानता हूं। हिंदुस्तान का, हिंदू धर्म का, सिख धर्म का और इस्लाम के नाश का बेबस दर्शक बने रहने के बनिस्बत मृत्यु मेरे लिए सुंदर रिहाई होगी...जो लोग दूसरे विचार रखते हैं, वे मेरा जितना भी कड़ा विरोध करेंगे, मैं उनकी उतनी ही इज्जत करूंगा। मेरा उपवास लोगों की आत्मा को जाग्रत करने के लिए है, उसे मार डालने के लिए नहीं। जरा सोचिए तो सही कि आज हमारे प्यारे हिंदुस्तान में कितनी गंदगी पैदा हो गई है! इसलिए आपको तो खुश होना चाहिए कि हिंदुस्तान का एक नम्र सेवक, जिसमें इतनी ताकत है और शायद इतनी पवित्रता भी है कि वह इस गंदगी को मिटा सके, वह कदम उठा रहा है। अगर इस सेवक में ताकत और पवित्रता नहीं है, तब तो यह पृथ्वी पर बोझ रूप है। जितनी जल्दी यह उठ जाए और हिंदुस्तान को इस बोझ से मुक्त करे, उतना ही उसके लिए और सबके लिए अच्छा है। मेरे उपवास की खबर सुन कर सभी मेरे पास दौड़े न चले आएं। इसकी जरूरत नहीं है। आप जहां हैं, वहां का वातावरण सुधारने का प्रयत्न करें तो यही काफी है...उपवास के दरम्यान मैं नमक, सोडा और खट्टे नींबू के साथ या इनके बिना पानी पीने की छूट रखूंगा।”
बात पूरी हो गई! सन्नाटा और गहरा हो गया! अब कोई एकदम शांत व उत्फुल्ल था तो बापू ही थे। अब उन्हें रास्ता मिल गया था- सत्याग्रह का अंतिम रास्ता! दोपहर में वे स्वतंत्र भारत के पहले वाइसरॉय माउंटबेटन से मिलने गए। लौटे तो सारा कमरा खचाखच भर चुका था। “अब यह क्या? ...” वे परेशानी से हंसे और फिर बोले, “कोई भी न घबराए! सभी जहां-जहां हैं, वहीं रहें और अपना काम करें।” देवदास गांधी से बोले- “पटना के मोर्चे पर ही रहना है!” जवाहरलाल भी हैं और सरदार भी हैं। देवदास इस उपवास से सहमत नहीं हैं। उन्हें लगता है कि यह बापू के अधैर्य का प्रतीक है। सरदार तो बहुत ही नाराज हैं... सरकार कानून-व्यवस्था बनाने में परेशान है और बापू ने बिना सलाह-मशविरे के अनशन शुरू कर दिया! यह क्या बात हुई? ...देवदास गांधी ने पूछा: यह अनशन मुसलमानों के लिए है और हिंदुओं के खिलाफ है? जवाब आया: हां, यहां यह मुसलमानों के लिए है और हिंदुओं के सम्मुख है। पाकिस्तान में यह हिंदुओं के लिए है और मुसलमानों के सम्मुख है। यह उपवास हर उस कमजोर और अल्पसंख्यक के लिए है, जिसे कोई ताकतवाला, बड़ी संख्या वाला दबा या डरा रहा है। ऐसे मुल्क कैसे चल सकता है?
टुकड़ों में बापू ने जब भी कुछ कहा, उन्हें जोड़ दें तो बात कुछ इस तरह बनती है: मैं जब से यहां हूं, देख रहा हूं कि लोग मेरे मुंह पर एक बात कहते हैं और होती है दूसरी बात! सरकार के दो बड़ों के बीच गंभीर मतभेदों का दंड आम जनता को भुगतना पड़ रहा है। सरकार के भीतर गंदगी बढ़ती जा रही है...भगवान सभी को शुद्ध करें और सम्मति दें... दो शब्द अपने मुसलमान भाइयों से अदब के साथ कहना चाहता हूं। यह अनशन उनके नाम से शुरू हुआ है तो उनकी जिम्मेदारी बढ़ जाती है। उन्हें कम-से-कम इतना तो निश्चय करना ही चाहिए कि हम हिंदू और सिखों के दोस्त बन कर रहेंगे। जो यूनियन में रहना चाहते हैं वे यूनियन के प्रति वफादार रहें। ये लोग कहते तो हैं कि हम वफादार रहेंगे पर आचरण वैसा नहीं करते। मैं तो कहूंगा कि कम बोलो पर कर के ज्यादा दिखाओ...मैं तो कहूंगा कि चाहे पाकिस्तान में सभी हिंदू-सिख काट डाले जाएं, तो भी यहां एक नन्हा-सा मुस्लिम बच्चा भी सुरक्षित रहना चाहिए। जो कमजोर हैं, निराधार हैं, उन्हें मारना बुजदिली है। पाकिस्तान में जितनी मार-काट मचे, दिल्ली अपने फर्ज से न चूके! सुहरावर्दी जैसे भी, जिन्हें गुंडों का सरदार कहा जाता है, जहां चाहें आजादी से घूम-फिर सकें...आज मैं हिम्मत के साथ कहता हूं कि पाकिस्तान एक ‘पाप’ ही है। मैं पाकिस्तान के नेताओं के खेल या भाषण देखना नहीं चाहता। मैं तो मांगता हूं उनका सदाचरण, सत्कर्म! अगर ऐसा होगा तो भारत के लोग अपने-आप सुधर जाएंगे। आज मुझे शर्म के साथ कहना पड़ता है कि हम लोग सचमुच पाकिस्तान की बुराइयों की नकल कर रहे हैं...
ऐसी पृष्ठभूमि में शुरू हुआ उपवास 18 जनवरी 1948 तक यानी छह दिनों तक चलता रहा। हर दिन जैसे एक आग में वे और उनके साथी भी उतरते थे और फिर उससे कहीं ज्यादा दहकती आग में प्रवेश की तैयारी करते थे। करीब 80 साल के होने जा रहे बापू ने आश्चर्यजनक मानसिक व शारीरिक उत्फुल्लता से ये छह दिन निकाले। आवाज लगातार क्षीणतर होती गई और बोलना, चलना असंभव होता गया, लेकिन वे सबको संभालते-संवारते चलते गए। सभी बेसहारा थे- जो सांप्रदायिक आग में जले वे भी और वे भी जो इस आग से लोगों को बचाने में लगे थे, एकदम अकेले व बेसहारा थे...आसरा बस यही था- 80 साल का बूढ़ा!...
वायसरॉय और सारी भारत सरकार और सारा भारत सारे दिन-रात यहीं के चक्कर काटता मिलता था। बापू रोज सुबह 3.30 पर उठते और रात 9 बजे सोने जाते, लेकिन उपवास कैसे छूटे? बापू ने इसकी सात शर्तें सामने कर दीं:
-महरौली में स्थित ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार की मजार महफूज रहेगी और मुसलमानों को वहां आने-जाने में कोई खतरा नहीं होगा। आने वाला उर्स मेला पहले की तरह ही लगेगा और महरौली के हिंदू-सिख इसकी गारंटी दें कि वहां मुसलमानों को खतरा नहीं होगा।
-दिल्ली की 117 मस्जिदों पर हिंदू-सिख शरणार्थियों ने कब्जा कर लिया है या उन्हें मंदिर में बदल लिया है। वे मुसलमानों को वापस कर दी जाएं और वहां के हिंदू-सिख भरोसा दिलाएं कि सभी मस्जिदें पहले जैसी ही रहेंगी और मुसलमान वहां बेखटके आ-जा सकें.
-करोलबाग, सब्जीमंडी और पहाड़गंज में मुसलमान आजादी से आ-जा सकें और उन्हें कोई खतरा न हो।
-जो मुसलमान डर से या परेशान हो कर पाकिस्तान चले गए हैं वे वापस आकर फिर से बसना चाहें तो हिंदू-सिख उसमें बाधा न बनें।
-रेलों में सफर करने वाले सुरक्षित सफर कर सकें।
-मुसलमान दुकानदारों का बहिष्कार न किया जाए।
-दिल्ली शहर के जिन इलाकों में मुसलमान रहते हैं, उनमें हिंदुओं-सिखों के बसने का सवाल वहां के मुसलमानों की रजामंदी पर छोड़ दिया जाए। बस, यही सात बातें, और कुछ नहीं!!
उनका ऐलान ही समझिए कि मेरी जान बचानी हो तो भारतीय समाज को सात कदमों का यह सफर पूरा करना होगा। किया, लोगों ने सात कदमों का यह सफर पूरा किया! 18 जनवरी को भावावेश में कांपती आवाज में कांग्रेस के सभापति राजेंद्र प्रसाद ने बापू के कमरे में मौजूद दिल्ली के आला प्रतिनिधियों की उपस्थिति में कहा, “सबने उन बातों की गारंटी दी है, जिनका जिक्र आपने हमसे किया है। हालात की निगरानी के लिए कुछ समितियां भी हम बना रहे हैं।” फिर तो सभी बोले- मौलाना आजाद भी, हबीब-उल रहमान, गोस्वामी गणेश दत्त, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हरिश्चंद्र, पाकिस्तान के हाइकमिश्नर जहीद हुसैन, सिखों के हरवसन सिंह, दिल्ली के उपायुक्त रंधावा, फिर सबकी तरफ से अंतिम बात राजेन बाबू बोले, “अब आप उपवास छोड़ें!”
अब जवाब बापू को देना था, लेकिन अब आवाज इतनी भी नहीं रह गई थी कि सुना जा सके! उन्होंने अपनी बात लिखवाई, जिसे प्यारेलाल जी ने पढ़ कर सुनाया: “यह मुझे अच्छा तो लगता है, मगर एक बात अगर आपके दिल में न हो तो यह सब निकम्मा समझिए! इस मसविदे का अगर यह अर्थ है कि दिल्ली को आप सुरक्षित रखेंगे और बाहर चाहे जितनी भी आग जले, आपको परवाह न होगी, तो आप बड़ी गलती करेंगे और मैं भी उपवास छोड़ कर मूर्ख बनूंगा। मैं देखता हूं कि ऐसा दगा आज हिंदुस्तान में बहुत चलता है। हमें आला दर्जे की बहादुरी दिखानी है। यह कहना कि हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं का है और पाकिस्तान मुसलमानों के लिए है, तो इससे बड़ी बेवकूफी क्या हो सकती है! शरणार्थी समझें कि पाकिस्तान का उद्धार भी दिल्ली के ही मार्फत होगा। आज हम सीखें कि कोई भी इंसान हो, कैसा भी हो, उसके साथ हमें दोस्ताना तौर पर काम करना है। हम किसी के साथ, किसी हालत में दुश्मनी नहीं करेंगे, दोस्ती ही करेंगे। शाहिद साहब और दूसरे चार करोड़ मुसलमान यूनियन में पड़े है। वे सब-के-सब फरिश्ते तो हैं नहीं। हममें अच्छे लोग भी हैं और बुरे भी। मुसलमान बड़ी कौम है। यहीं नहीं, सारी दुनिया में मुसलमान पड़े हैं। अगर हम ऐसी उम्मीद करें कि सारी दुनिया के साथ हम मित्र भाव से रहेंगे तो क्या वजह है कि हम यहां के मुसलमानों से दुश्मनी करें। मैं भविष्यवक्ता नहीं हूं फिर भी ईश्वर ने मुझको अक्ल दी है, दिल दिया है। उन दोनों को टटोलता हूं और आपको भविष्य सुनाता हूं कि अगर किसी-न-किसी कारण से हम एक-दूसरे से दोस्ती न कर सके, वह भी यहां के ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान के और सारी दुनिया के मुसलमानों से हम दोस्ती न कर सके तो हम समझ लें-इसमें मुझे कोई शक नहीं है-कि हिंदुस्तान हमारा न रहेगा, पराया हो जाएगा। गुलाम हो जाएगा- पाकिस्तान गुलाम होगा, यूनियन भी गुलाम होगा और जो आजादी हमने पाई है, वह हम खो बैठेंगे-मैं फाका छोडूंगा। ईश्वर की जो मर्जी होगी, वही होगा। आप सब साक्षी बनते हैं, तो बनें। 12.25 मिनट हुआ था, जब काल जर्जरित काया को मौलाना आजाद ने 12 औंस ग्लूकोज मिला रस पिलाया कल तक जो बिजली गुल थी, आज, अभी सबके चेहरों पर दमक उठी कितने सारे लोग रो रहे थे। जवाहरलाल रो रहे थे कि हंस रहे थे, कहना कठिन था।
वे इस पूरी अवधि में मौन ही रहे थे- पीड़ा में और संभवत: इस ग्लानि में कि यह आजाद भारत था, यह उनकी सरकार थी और छह माह के भीतर बापू को ऐसी पीड़ा से गुजरना पड़ा। वे इस प्रकरण की समाप्ति के बाद चले गए वे। कोई सौ बुर्काधारी मुसलमान महिलाएं वहां रह गईं कि जो आज यह कहने आई थीं कि आप उपवास तोड़िए। बापू ने हाथ जोड़े और सारी ताकत समेट कर इतना कहा, “मेरे सामने क्या बुरका? मैं तो आपका बाप-भाई हूं हृदय का पर्दा ही काफी है!” बहनों ने तुरंत बुरका निकाल दिया। इंदिरा गांधी ने सिर्फ बापू से कहा- पंडित जी भी आपके साथ अनशन कर रहे हैं! जाते कदम रुके एक कागज मंगवाया और अशक्त हाथों से लिखा-चिरंजीव जवाहरलाल, अनशन छोड़ो! बहुत वर्ष जियो और हिंद के जवाहर बने रहो।
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यह सब क्या हुआ? आज यह इतिहास का हिस्सा है या यही हमारा वर्तमान है? एक आदमी पागल हो तो उसे पागलखाने में डालते हैं, लाखों-करोड़ों लोग पागल हो जाएं तब? कहां रखेंगे आप उनको? और आप कौन, आप भी तो पागलों की उसी दुनिया में हैं? समाज को भीड़ बना, इंसानों को पागलों की जमात बना कर जब सत्ता और संपत्ति का शिकार किया जा रहा हो, तब एक आादमी के बस का बचता ही क्या है, भले वह आदमी महात्मा गांधी ही हो? बचा रहता है यही आत्मबलिदान! बापू का यह उपवास, जिसे हमने उनका अंतिम उपवास बना दिया कि जिसके 12 दिन बाद हमने उनका अंत ही कर दिया, सदविवेक जगाने की आंतरिक पीड़ा से उपजा हाहाकार था! हमारे भीतर जो खो गया है, सो गया है, उन्मादियों ने जिसे जहरीला बना दिया है, उस पर विवेक की बूंदें गिराने का यह उपक्रम था, आज भी कुछ ऐसा ही दौर लौटता लगता है। क्या इसे ही इतिहास का दोहराना कहते हैं? अगर यह इतिहास का यांत्रिक दोहराव मात्र है तब तो बहुत फिक्र नहीं, क्योंकि तब तो बापू भी होंगे ही कहीं दोहराने के लिए लेकिन नहीं, ऐसी कार्बन कॉपियां इतिहास में चलती ही नहीं हैं। हर दौर को अपना गांधी खुद ही पैदा करना पड़ता है। (21 जनवरी 2018)
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)