हिंदी भाषा और साहित्य के विद्वान प्रोफेसर मैनेजर पांडेय (1941-2022) का रविवार को दिल्ली स्थित आवास पर देहांत हो गया। चर्चित आलोचक नामवर सिंह उन्हें ‘आलोचकों का आलोचक’ कहते थे। पांडेयजी उनकी इस स्थापना से सहमत नहीं थे। पिछले साल अगस्त में जब मैंने उनसे इस बाबत एक इंटरव्यू में पूछा तब उन्होंने कहा था, ‘उनके कहने का अर्थ ये था कि मैं व्यावहारिक आलोचनाएँ नहीं लिखता। यह झूठ है।’ असल में, सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना दोनों क्षेत्र में पिछले पचास सालों में उन्होंने भरपूर लेखन किया। मार्क्सवादी आलोचक के रूप में उनकी ख्याति के केंद्र में ‘साहित्य और इतिहास दृष्टि’ और ‘साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका’ किताब रही, हालांकि उन्होंने पीएचडी सूरदास के साहित्य पर की थी। पांडेयजी ने भक्तिकालीन कवियों के साथ नागार्जुन, अज्ञेय, कुमार विकल, धूमिल जैसे कवियों पर लिखा।साथ ही ‘उपन्यास और लोकतंत्र’ जैसे विषय और नए रचनाकारों पर भी उनकी हमेशा नजर रही।कुछ साल पहले उन्होंने ‘मुगल बादशाहों की हिंदी कविता’ को संकलित कर प्रकाशित करवाया।
पांडेयजी की आलोचना में स्वतंत्रता और सामाजिकता पर विशेष जोर रहा है।उन्होंने कहा था कि ‘लोकतंत्र में विरोध की प्रवृत्ति उसकी आत्मा है’ ‘आलोचना की सामाजिकता’ नाम से लिखी किताब में उन्होंने नोट किया है: ‘आलोचना चाहे समाज की हो या साहित्य की, वह सामाजिक बनती है, एडवर्ड सईद के शब्दों में, ‘सत्ता के सामने सच कहने के साहस से’।आश्चर्य नहीं कि बाबा नागार्जुन उनके प्रिय लेखक-कवि थे। नागार्जुन ने लिखा है-‘जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ? जनकवि हूँ मैं, साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ।’ उन्होंने कहा था: “बाबा नागार्जुन मुख्यत: किसान-मजदूरों के कवि थे। वे जन आंदोलनों के कवि थे।दलित, आदिवासी पर उन्होंने कविता लिखी है। इन सब कारणों से वे मुझे पसंद हैं। वे जटिलता को कला नहीं मानते थे।”
वे दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से लंबे समय तक जुड़े रहे और एक पीढ़ी को साहित्य और संस्कृति का पाठ पढ़ाया। वे जन संस्कृति मंच (जसम) के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे। मेरे बड़े भाई, नवीन, एमए (1992-94) में उनके छात्र रहे थे। सेंटर और पांडेयजी के कई किस्से मैंने उनसे सुन रखे थे। बीस साल पहले जब मैं भारतीय भाषा केंद्र, जेएनयू में एक शोधार्थी के रूप में ज्वाइन किया तब वे विभाग के अध्यक्ष थे। एमफिल इंटरव्यू के लिए नागार्जुन के उपन्यासों पर ही ‘सिनाप्सिस’ लिख कर मैं ले गया था। इंटरव्यू बोर्ड में पांडेय जी सहित सभी शिक्षक थे। सवाल-जवाब ठीक चल रहा था। आखिर में प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने मुझसे एक सवाल पूछा: नागार्जुन के उपन्यास में ऐसी कौन सी सांस्कृतिक विशिष्टता आपको दिखाई देती है, जो औरों के यहां नहीं है? मैने मिथिला समाज के चित्रण की बात की और कहा कि उनके यहाँ भोजन की प्रचुरता और कमी का एक साथ विवरण मिलता है। जर्मनी के हिंदी विद्वान लोठार लुत्से को उद्धृत करते हुए मैंने आगे जोड़ा कि 'उन्होंने कहा है कि मिथिला के ब्राह्मण खाते हैं और सोते हैं। सोते हुए वे सोचते रहते हैं कि फिर क्या खाना है।' तलवार जी कुछ कहते उससे पहले ही पांडेय जी ने जोर से हंसना शुरु कर दिया। साथ ही सारे प्रोफेसर हंसने लगे। वह हंसी मुझे अभी भी याद है।
बाद में नागार्जुन के उपन्यासों पर जब मैंने वीर भारत तलवार के निर्देशन में लघु शोध प्रबंध लिखा तब उनके जेएनयू स्थित दक्षिणापुरम आवास पर नागार्जुन के साहित्य और जीवन को लेकर एक लंबी बातचीत की थी। उन्होंने नागार्जुन से जुड़े कई संस्मरण सुनाए और इतिहासकार प्रोफेसर राधाकृष्ण चौधरी की पुस्तक-‘मिथिला इन द एज ऑफ विद्यापति’ पढ़ने की सलाह दी थी। दिल्ली में नागार्जुन उनके यहाँ अक्सर आकर ठहरते थे।
उन्होंने हमें ‘साहित्य का समाजशास्त्र’ का पेपर पढ़ाया था। हम उनके लिए लगभग आखिरी बैच के छात्र थे। वे आखिरी दिनों में भी तैयारी के साथ लेक्चर देने आते थे, नोट्स लेकर. उनके पढ़ाने की शैली सहज थी, जिसमें वाक् विदग्धता (विट) हमेशा रहती थी। वे हमें प्रेम कविता और प्रेम कहानियों का उदाहरण देकर साहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करते थे।पांडेयजी कहते थे कि अभी आप युवा हैं और प्रेम प्रसंग को ज्यादा ठीक से समझेंगे। वे लोकप्रिय साहित्य के समाजशास्त्र पर भी जोर देकर बात करते थे। उन्होंने अपनी किताब में लिखा है: ‘लोकप्रिय साहित्य के पाठक सभी वर्गों के लोग होते हैं।इतने पाठक समुदाय की उपेक्षा करके साहित्य पर बात करना बेमानी है।’ यह बात लोकप्रिय संस्कृति के अन्य रूपों मसलन, सिनेमा, संगीत, आदि के प्रसंग में भी सच है जिस पर हिंदी लोकवृत्त में आज भी गंभीर विमर्श का अभाव दिखता है।
वर्ष 2009 में जेएनयू से निकलने के बाद मैं मुनिरका में उनके बिलकुल पड़ोस में आ गया। मैं दोस्तों से मजाक में कहता था कि ‘हम आलोचक की गली में रहते हैं’। गाहे-बगाहे उनसे भेंट और बातचीत हो जाती थी। दो साल पहले जिस दिन मेरे पिताजी गुजरे वे बिना-बताए घर आ गए थे। तब भी उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं था। हम दोनों भाई रेलिंग पकड़ कर पहली मंजिल की सीढ़ियों से नीचे उतरते उन्हें भरी आँखों से देख रहे थे।
जब भी मैं उनके घर जाता मन में एक संकोच रहता था कि उनके पढ़ने-लिखने में व्यवधान डाल रहा हूँ।अस्सी वर्ष की उम्र में भी वे एक युवा शोधार्थी की तरह पाइप (चुरुट) पीते हुए, अपने अध्ययन कक्ष में किताबों के बीच घिरे दिखते थे। मेरी इच्छा थी कि विद्यापति पर उनसे विस्तार से लंबी बातचीत करूं, पर नहीं कर सका। कोरोना को लेकर हम सब डरे थे। कुछ महीने पहले कोरोना से संक्रमित होने के बाद वे बिस्तर से उठ नहीं सके। घर है, गली है, पड़ोस है, अब सर नहीं हैं।
इंटरव्यू में मैंने उनसे दारा शिकोह के ऊपर लंबे समय से चल रहे काम के बारे में पूछा था। पांडेयजी ने सोफे पर फैली किताबों की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि ‘दारा शिकोह पर ही मैं काम कर रहा हूँ। एक-दो महीने में पूरा कर लूँगा, फिर किताब प्रेस में जाएगी।’ यह काम अधूरा ही रहा, लेकिन उनकी कृतियाँ और स्मृतियाँ हमारी थाती है।
(यह लेख पत्रकार एवं लेखक अरविंद दास ने लिखा है)