‘सआदत हसन मंटो’, अपने वक़्त के बेहद मशहूर-ओ-मारूफ़ अफ़सानानिग़ार थे, जिनकी शख़्सियत उनके मुतनाज़ा (विवादास्पद) अफ़सानों की वजह से उनके ज़िंदा रहते ही बेहद बदनाम करार दी गयी थी। उनके तमाम लिखे को बिना सही ढंग से समझे, उनके बारे में अनाप-शनाप, औल-फौल, बोला, लिखा-पढ़ा और प्रचारित किया गया। मंटो फ़ितरती तौर पर बग़ावती तेवर वाले शख़्स थे, ऊपर से ज़माने की खुदगर्ज़ी, दोगलापन, औरतों को दोयम दर्जे पर रखे जाने, उनके साथ वहशियाना ढंग से पेश आने से हमेशा नाशाद (नाखुश) रहे। उस वक़्त औरतों को लेकर समाज की सोच निहायत गलीज़ होने से औरतों की भयंकर दुर्दशा थी। उन्होंने ऐसे में ख़ासकर मजलूम औरतों का दर्द बहुत गहरे महसूस करके, पूरे खुलेपन और बेपर्दगी के साथ, कहानियों का मजमून बनाकर अपने अफ़सानों में बयां किया। मंटो का अपने अफ़सानों के बारे में कहा हुआ सार उनका सही तार्रुफ़ कराता है कि ‘‘अगर आप मेरे अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते, तो इसका मतलब है कि ज़माना ही नाकाबिले-बर्दाश्त है।’’
'मंटो' का बग़ावती रवैया उनके समकालीन अफ़सानानिग़ारों, अदीबों और अवाम को सख़्त नागवार गुज़रा इसीलिए मंटो की शख़्सियत और दास्तां समझी गयी दागदार, जिसकी वजह से मंटो ने ताज़िंदगी ज़िल्लत उठाई बेशुमार। मंटो कहते थे कि, ‘‘मैं अपनी कहानियों को आइना समझता हूँ जिसमें समाज अपनेआप को देख सके।’
'मंटो' उर्दू में लिखी "बू", "खोल दो", "ठंडा गोश्त", "काली सलवार", "टोबा टेकसिंह" तथा और भी चर्चित कहानियों के लिए मशहूर हुए। कहानीकार के अलावा वे फिल्म और रेडिया पटकथा लेखक, पत्रकार भी थे। अपनी छोटी सी ज़िंदगी में उन्होंने बाइस लघुकथा संग्रह, एक उपन्यास, रेडियो नाटक के पांच संग्रह, रचनाओं के तीन संग्रह और व्यक्तिगत रेखाचित्र के दो संग्रह प्रकाशित करवाए। रचनाओं के अश्लील (फुहश) होने के आरोप के चलते मंटो छह बार अदालत गए लेकिन एक बार भी आरोप साबित नहीं हुआ। मशहूर मगर मुतनाज़ा (विवादास्पद) लोगों की तरह, जीते जी मंटो को भी ज़माने ने बड़ी बेरहमी से दुत्कारा, सताया, उनके सच्चे, ईमानदार लेखन को अपनी नालायकी, नासमझी, एहसासे-कमतरी की वजह से बेहद कमतर आंका।
मंटो ताज़िंदगी कई लड़ाइयां लड़ते रहे, मसलन उनके लेखन के मेयार के हिसाब से लोगों द्वारा कमतर आंके जाने की वज़ह से उन्हें वाजिब मेहनताना नहीं मिला। मंटो के लिखे अफ़सानों में मौजूद खुलेपन, बेपर्दगी और तल्ख़ हक़ीक़तों को फ़ुहश (अश्लील) साहित्य का नाम दिया गया और अदब के मेयार पर बहुत निचले स्तर का माना गया। उनको ज़िंदगी भर अपने साहित्य को सही साबित करने की लड़ाई लड़नी पड़ी। ऐसे कठिन दौर में बीवी सफिया के साथ तीन बच्चियों को पालने की ज़िम्मेदारियां भी थीं। मंटो को अपनी मुख़्तसर ज़िंदगी में, कदम-कदम पर ग़मों, मुफलिसी, नाउम्मीदी और नुक़्ताचीनियों का सामना करना पड़ा। आज जब लोगों के कुंद दिमागों में जमी गर्द कुछ हद तक साफ़ हुई है, तब मंटो के जाने के बाद लोगों को उनके लिखे हुए का असली मतलब और महत्व समझ में आया और वे ज़माने भर के लिए किंवदंती बन गए। उनके साथ वही मसल हुयी कि, 'मैं वक़्त के सीने पे धड़कता हुआ दिल हूँ, लोगों मुझे कब तक नज़रअंदाज़ करोगे ?’’ और ये भी कि, ‘सारी दुनिया की निगाहों से गिरा था कभी,तब कहीं जाकर दिलों में जगह पायी है’..
मंटो का साहित्य पढ़ने पर जाना-समझा जा सकता है कि मंटो निहायत सच्चे, खरे-बेबाक, ग़ैरतमंद थे जिनपर ये उक्ति चरितार्थ होती है कि, मिली थी मंटो को कलंदराना रविश, उसे कभी किसी दरवेश ने दुआएं ना दीं’..
मंटो को पढ़ने पर ऐसा लगता है कि वो अपनी ज़िंदगी में हमेशा तिश्नगी और तल्ख़ी महसूस करते रहे। उस तल्ख़ी की शिद्दत बढ़ाने में इस अफ़सोसनाक हक़ीक़त का बड़ा हाथ है कि उन्होंने जिन दोस्तों से मोहब्बत करके दिल में जगह दी, उन्हीं दोस्तों ने उनके जज़्बातों से खेला और उनकी बेलौस मोहब्बत का नाजायज़ फ़ायदा उठाया। वो मंटो से दग़ा-फ़रेब करते रहे और लुत्फ़ ये है कि मंटो इन दग़ाबाज़ियों को जानने-समझने के बावजूद उनसे मोहब्बत करते रहे। मंटो जानते थे कि दोस्त उन्हें बेवक़ूफ़ बनाते थे मगर फिर भी वो बेवकूफ़ बनते थे। मंटो के दोस्तों की दग़ाबाज़ी पर ये शेर कितना मौजूं है..
‘बातें जो भी करते हैं अख़लाक़ भरी लोग, दामन में लिए बैठे हैं पत्थर भी यही लोग’..ऐसे दगाबाज़ दोस्तों के लिए किसी शायर ने क्या खूब लिखा है..‘उनसे ज़रूर मिलना सलीके के लोग हैं, स र भी कलम करेंगे बड़े एहतराम से’...
मंटो की दोस्ती का दम भरने वाले कई अफ़सानानिगारों ने उनके मुताल्लिक़ राय क़ायम की थी कि मंटो हद दर्जे के अय्याश, आवारा, बदचलन और शैतान थे। मंटो हर तरफ़ से नाउम्मीद हुए क्योंकि किसी को मंटो की बेलौस मोहब्बत की क़दर ना हुई। जब-जब पानी सर से गुज़रा तो उनके सीने के अंदर हंगामा सा बरपा हो गया और उनके इन्तेहाई जज़्बाती वुजूद में जंग सी छिड़ी।
वैसे वो फ़ख़्र महसूस करते थे कि उन्होंने ज़िंदगी का सही रास्ता इख़्तियार किया था। उनकी नज़र में उनकी नाकामियां ही कामयाबियां थीं। मगर वो इस बात से हैरान भी होते थे कि लोग दूसरों की दास्तानों में अपनी दिलचस्पी का सामान क्यों तलाश करते हैं? उनके सीने में दफ़्न बेइंतेहा दर्द कलम के रास्ते बाहर निकलते रहे। मंटो के ज़ेहन में आने वाले एहसासात बेहद तल्ख़ अंदाज़ में लिखे गए और मंटो को उस तल्ख़ी का एहसास कभी नहीं हुआ जिसकी बड़ी गहरी वजूहात थीं।
बकौल मंटो, औरत और मर्द के बीच का रिश्ता हर इंसान को मालूम है, पर मंटो ताज़िंदगी इस रिश्ते में आई हैवानियत से परेशान और नाराज़ रहे। मंटो मानते थे कि अगर मर्द किसी औरत से मोहब्बत करता है, तो वो इंसानियत के इस मुक़द्दस जज़्बे में हैवानियत को क्यों दाख़िल करता है? बकौल उनके, क्या इसके बग़ैर मोहब्बत की तकमील नहीं हो सकती, यानि क्या जिस्म की मशक़्क़त का नाम ही मोहब्बत है? उनके हिसाब की पाक मोहब्बत, फ़िराक़ गोरखपुरी ने इस शेर में बखूबी बयां की है..‘हुस्न-परस्ती पाक मोहब्बत बन जाती है जब कोई,वस्ल की जिस्मानी लज़्ज़त से, रूहानी कैफियत ले’..
मंटो अपने सारे लेखन से हमेशा बाख़बर रहे। लोग ज़ेहनी तौर पर मुफ़्लिस होते हैं पर मंटो जो महसूस करते थे, अपनी कलम से सच्चाई और बेबाकी से बयां करते थे। मंटो खुद को अफ़सानों के ज़रिए तार-तार कर चुके थे, फिर भी उन्हें हमेशा और नंगा करने की कोशिश होती रही। उन्हें बखूबी मालूम था कि वो कभी किसी को दुख नहीं पहुंचा सकते बल्कि वो हमेशा अपनी ही आग में फुंकते रहे। मंटो के दर्दमंद दिल के नर्मोनाज़ुक जज़्बे ने मंटो को भयानक दुख पहुंचाए जिससे उनकी रूह हमेशा बेचैन रही। दिल की दर्दमंदी उनके खून के कतरों से ख़ुराक हासिल करती रही और उनकी ज़िंदगी सरापा दर्द बनी रही। उनकी ज़ख़्मी रूह यकीनन गुनगुनाती होगी कि, ‘सरापा दर्द हूँ, हसरत भरी है दास्ताँ मेरी’..
शायर फ़िराक गोरखपुरी का ये शेर मंटो की अज़ीम शख़्सियत को समर्पित है..‘हज़ारों बार ज़माना यहाँ से गुज़रा है, नई-नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी’’
मंटो को हिंदुस्तान की मिट्टी से बेइंतेहा मोहब्बत थी और उन्हें हिंदुस्तान की आज़ादी की उतनी ही तमन्ना थी जितनी उस दौर में हर हिंदुस्तानी को थी। विभाजन के बाद एक ख़ास कौम के प्रति नफ़रत पनपती देख मंटो को मज़बूर होकर, बम्बई छोड़कर पाकिस्तान जाना पड़ा पर बम्बई के दोस्तों को मंटो ना कभी दिल से निकाल पाए ना ही भुला पाए।
उस्ताद शायरों के ये अशआर मंटो की सच्ची रूह द्वारा उनके मुरीदों को समर्पित हैं..‘कहाँ-कहाँ से अलग कर सकोगे तुम मुझको, हज़ारों एहसासों से तुमसे बावस्ता हूँ मैं’
ये भी कि, ‘इनमें ही कहीं होगा अब ज़िक़्र हमारा भी, जो बंद किताबें हैं, दुनिया तेरे हाथों में’
ज़माने भर का दर्द सीने में दफ़्न किए, 18 जनवरी, 1955 को मंटो की महान रूह ने इस फानी दुनिया को अलविदा कह दिया और दुनिया एक अलबेले, अनोखे, निराले अफ़सानानिगार के कई अनकहे अफ़सानों से हमेशा के लिए महरूम हो गई।