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भोजपुरी फिल्मों के घटिया स्तर के पीछे है भोजपुरी जगत की मनमानी, बोले फिल्म निर्माता अरुण कुमार ओझा

कोरोना काल के बाद धीरे धीरे जनजीवन सामान्य स्थिति में लौट रहा है। सिनेमा जगत भी अब अपने रंग में दिखाई...
भोजपुरी फिल्मों के घटिया स्तर के पीछे है भोजपुरी जगत की मनमानी, बोले फिल्म निर्माता अरुण कुमार ओझा

कोरोना काल के बाद धीरे धीरे जनजीवन सामान्य स्थिति में लौट रहा है। सिनेमा जगत भी अब अपने रंग में दिखाई देने लगा है। शाहरुख खान की फिल्म पठान की कामयाबी के बाद सिनेमा जगत के लोगों में उत्साह और खुशी साफ देखी जा सकती है। कोरोना काल में सिनेमाघरों में फिल्म का रिलीज होना बहुत कठिन हो गया था। जो फिल्में रिलीज भी हो रही थीं,उनका प्रदर्शन अच्छा नहीं था। मगर अब स्थिति बदल रही है। फिल्में फिर से सिनेमाघरों में रिलीज हो रही हैं और उन्हें दर्शकों का सहयोग मिल रहा है। आगामी 24 फरवरी को फिल्म "खेला होबे" सिनेमाघर में रिलीज होने जा रही है। छोटे बजट की फिल्मों का सिनेमाघर तक पहुंचना एक संघर्ष होता है। इसी संघर्ष और फिल्म की यात्रा को लेकर सह निर्माता अरुण ओझा से आउटलुक के मनीष पाण्डेय ने बातचीत की।

 

कला के प्रति आकर्षण किस उम्र में पैदा हुआ ?

 

मैं सेना की पृष्ठभूमि से हूं। मेरे परिवार के लोग भारतीय सेना से जुड़े रहे हैं। मैं भी भारतीय सेना में शामिल होना चाहता था। मगर किन्हीं कारणों से यह संभव न हो सका। मैंने जीवन के शुरुआती दौर में दिलीप कुमार की फिल्म मशाल देखी थी। मैं फिल्म से बहुत प्रभावित हुआ था। सिनेमा के प्रति आकर्षण इसी फिल्म से पैदा हुआ। मशाल को देखकर मेरे मन में विचार आया कि जब किसी दिन सामर्थ्य होगा, मैं भी ऐसी अर्थपूर्ण फिल्म बनाऊंगा। जब भारतीय सेना में मेरा चयन नहीं हो सका तो मैंने साल 2000 से लेकर 2018 तक शेयर, फाइनेंस सेक्टर में काम किया। इस क्षेत्र में पैसा कमाने और परिवार की स्थिति सुदृढ़ करने के बाद, मेरे मन में अभिलाषा उठी कि मुझे फिल्म बनानी चाहिए। तब मैं 2018 में फिल्म निर्माण के क्षेत्र में आया। 

 

 

फिल्मी दुनिया की अपनी यात्रा के बारे में बताएं?

 

मैंने यह निश्चित किया था कि मैं देशभक्ति पर आधारित फिल्में बनाऊंगा। मैं चाहता था कि आम जनता तक सैनिक का संघर्ष पहुंचे। मेरी पहली फिल्म आर्मी की जंग जब बनी तो लोगों ने उसे खूब पसंद किया। मुझे खुशी है कि यह फिल्म 15 अगस्त और 26 जनवरी को जी बायस्कोप पर प्रसारित की जाती है। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया बेहद कठिन है। इसमें पैसा तो लगता ही है, साथ में आपके धैर्य की परीक्षा भी होती है। इंसान मेहनत से अपने खून पसीने की कमाई लगाकर फिल्म बना लेता है मगर फिर उसे रिलीज करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ता है। मगर इस संघर्ष को मैंने एक लक्ष्य की तरह देखा और ईश्वर, माता पिता के आशीर्वाद से अपनी मंजिल तक पहुंचने में सफल रहा। आज मैं 5 फिल्में बना चुका हूं, जिसमें 3 भोजपुरी और 2 हिंदी फिल्में शामिल हैं। गांव से निकलकर यदि सैनिक का बेटा 5 फिल्में बनाने में सफल हो गया है तो यह यात्रा सुखद और कामयाब ही कही जाएगी। फिल्मों से पैसा कमाना कभी मेरा उद्देश्य नहीं रहा है। मैं तो चाहता हूं कि मेरी फिल्मों का सारा मुनाफा आर्मी वेलफेयर फंड में जाए। मैं भविष्य को लेकर आशावान हूं और आने वाले समय में सार्थक सिनेमा बनाना चाहता हूं। 

 

 

अपनी फिल्म "खेला होबे" के बारे में कुछ बताइए? 

 

"खेला होबे" एक राजनीतिक फिल्म है। फिल्म की कहानी राघवगढ़ नामक स्थान की राजनीति पर आधारित है, जहां सत्ता पर काबिज होने के लिए विभिन्न चुनावी उम्मीदवार हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं और इसी से कहानी में रोचकता पैदा होती है। यह फिल्म 24 फरवरी को सिनेमाघरों में रिलीज होने जा रही है। मुझे उम्मीद है कि दर्शकों को यह फिल्म जरुर पसंद आएगी। 

 

 

"खेला होबे" में हिन्दी सिनेमा के सफल अभिनेता ओम पुरी ने काम किया। ओम पुरी से जुड़ी क्या यादें हैं ? 

 

ओम पुरी के साथ काम करना अद्भुत अनुभव था।ओम पुरी की महानता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इतना ज्ञान, हुनर और अनुभव होने के बाद एक सदा सीखने और सुनने के लिए लालायित रहते थे। वह ठीक वैसा ही करते, जैसा कि निर्देशक द्वारा कहा जाता था। इसके साथ ही वह फिल्म के सेट पर बहुत सहज रहते थे और दूसरों को भी उत्साहित और सरल बनाते थे। जहां आज के कलाकार कई बार में एक शॉट दे पाते हैं, यह ओम पुरी का जादू था कि उनका हर शॉट एक बार में ही फाइनल हो जाता था। 

 

 

आपने हिन्दी फिल्मों के साथ ही भोजपुरी फिल्में भी बनाई हैं, भोजपुरी फिल्म जगत का क्या अनुभव है ? 

 

भोजपुरी जगत में हिंदी फिल्म जगत जैसी ही संभावनाएं हैं। इसकी ऑडियंस तकरीबन 40 से 50 करोड़ लोगों की है। यदि अच्छे ढंग और नियत से फिल्म निर्माण हो तो भोजपुरी फिल्में भी कमाल कर सकती हैं। लेकिन दुखद है कि भोजपुरी फिल्म जगत में मोनोपोली हावी है। यहां कुछ पुराने लोग ही सब कुछ तय कर रहे हैं। नए आदमी की कोई जगह नहीं है। यही कारण है कि भोजपुरी फिल्में केवल और केवल अश्लीलता का अड्डा बन चुकी हैं। पूरे देश और दुनिया में भोजपुरी फिल्मों और समाज की छवि धूमिल हो चुकी है। यदि कोई सार्थक काम करना चाहता है तो उसे सहयोग नहीं मिलता। फिल्म को बनाने से लेकर बेचने में भयंकर संघर्ष है। इस संघर्ष में निर्माता औने पौने दाम पर फिल्में बेच देते हैं और फिर कभी फिल्म बनाते। जब तक भोजपुरी फिल्मों के इन मठाधीशों का अहंकार नहीं टूटेगा, भोजपुरी फिल्में हेय दृष्टि से ही देखी जाती रहेंगी। 

 

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