साल 2017 में सोशल मीडिया में एक नरकंकाल की तस्वीर वायरल हुई, जिसे देखकर सबके रोंगटे खड़े हो गए। दावा किया गया कि वह कंकाल एक बुजुर्ग महिला का था, जो मुंबई में सात करोड़ रुपये के अपने फ्लैट में अकेले रहा करती थीं। महिला के पति की मौत 2013 में हो चुकी थी और उनका एनआरआइ बेटा अमेरिका में नौकरी करता था, जिससे उनकी बात कुछ महीने पहले हुई थी। उनकी मौत का पता तब चला जब उनके बेटे ने फ्लैट के अंदर से बंद दरवाजे को खुलवाया। सोशल मीडिया वाली भयावह तस्वीर तो 2016 में नाइजीरिया में घटी किसी दूसरी घटना की निकली, लेकिन मुंबई वाली खबर सही थी। अमेरिका से लौटे एक बेटे को वाकई अपनी मां का कंकाल उनकी मौत के कई महीनों बाद मिला। उस महिला का सुसाइड नोट भी मिला, जिसमें उन्होंने मौत के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया था। बेटे का कहना था कि वह अमेरिका में पत्नी से तलाक के कानूनी मामले में व्यस्त था और अपने छोटे बच्चे को अकेला छोड़ कर अपनी मां के पास आने की स्थिति में नहीं था। यह भी पता चला कि अकेलेपन की परेशानियों की वजह से महिला या तो बेटे के पास जाना चाहती थीं या बेटे को वापस अपने पास बुलाना चाहती थीं।
यह त्रासदी अकेली उस महिला की नहीं थी। हाल की कई घटनाओं से स्पष्ट है, यह उनके जैसे कई मां-बाप की दास्तान है, जो ढलती उम्र में किसी न किसी कारण से अपने परिजनों से दूर अकेला जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उनमें कुछ ऐसे हैं जिनका कोई भी अपना अब दुनिया में नहीं है, लेकिन बहुत ऐसे भी हैं जिनके बेटे-बेटियां, रिश्तेदार सब मौजूद हैं। इसके बावजूद, वे तन्हा जिंदगी गुजारने को विवश हैं। ग्रेटर नोएडा में पिछले दिनों पटना की एक वृद्ध महिला चिकित्सक का मृत शरीर उनकी मृत्यु के कुछ दिनों बाद मिला। वह भी अपने घर में अकेले रह रही थीं, जबकि कुछ ही मील दूर उनका बेटा दूसरे घर में रह रहा था। हरियाणा के एक संपन्न परिवार के उम्रदराज दंपती ने तो अपने परिजनों पर अत्याचार का आरोप लगा कर खुदकशी कर ली।
समाज में बुजुर्गों की उपेक्षा की खबरें नई नहीं हैं, लेकिन जिस तरह की घटनाएं आजकल हो रही हैं, वह समाज में बिखरते परिवारों की हृदयविदारक कहानी बयान कर रही हैं। शायद संयुक्त परिवार के विघटन का सबसे बड़ा खामियाजा बुजुर्गों को ही भुगतना पड़ा है। वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद हर गांव और कस्बे से बड़ी संख्या में नौकरी के लिए नौजवानों का पलायन हुआ। कंप्यूटर क्रांति के बाद हजारों पढ़े-लिखे युवा सुदूर देशों में भी जा बसे। बाद में उनके लिए यह मुमकिन न हुआ कि वे अपनी नौकरियां छोड़कर अपने बूढ़े मां-बाप के पास लौट आएं या अपने पास रहने को बुला लें। कई माता-पिता के लिए भी अपना घर छोड़ विदेशों में बस जाना आसान न था। नतीजतन, आज देश के लगभग हर शहर में बड़ी-बड़ी कोठियां या तो वीरान हो गई हैं या जहां कोई बुजुर्ग एकाकी जीवन जी रहा है। किसी समय उन्होंने बड़े शौक से उन आलीशान घरों को इस उम्मीद में बनवाया होगा कि उनकी कम से कम दो-तीन पीढियां तो वहां रहेंगी। लेकिन, अपने जीवन की गोधूलि बेला में ही उन्हें वहां जिस वीरानी का मंजर देखने को मिल रहा है, वह बहुत कुछ कह कर रहा है।
लेकिन, क्या परिवार के टूटने के लिए सिर्फ युवाओं को दोष देना चाहिए, जो निजी महत्वाकांक्षा के लिए अपने माता-पिता को भूल गए? यहां की संस्कृति में वृद्ध माता-पिता की सेवा करने के लिए श्रवण कुमार का उदाहरण आदिकाल से दिया जाता रहा है और उनकी उपेक्षा को सामाजिक दृष्टि से आज भी अक्षम्य अपराध समझा जाता है। क्या अब ये गुजरे जमाने की बातें हो गई हैं?
आधुनिक पाश्चात्य संस्कृति में 30 वर्ष से 55-60 उम्र के लोगों को सहानुभूतिपूर्वक ‘सैंडविच जेनरेशन’ कहा जाता है क्योंकि इस पीढ़ी पर एक तरफ तो अपने माता-पिता की देखभाल करने की जिम्मेदारी है तो दूसरी तरफ उन्हें अपने बच्चों के भविष्य को संवारने की जद्दोजहद में भी जुटे रहना है। उनकी प्राथमिकता क्या होती है, यह बतलाने की जरूरत नहीं।
फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि आने वाले समय में स्थिति बेहतर होगी, लेकिन सरकार और समाज को मिलकर इस पर संजीदगी से सोचने की जरूरत है। बुजुर्गों की देखभाल हर सभ्य समाज का दायित्व है। देश में उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान करने के लिए कई कानून बने हैं लेकिन अत्याचार की घटनाओं में कोई कमी नहीं आई है। अभी भी लाखों बुजुर्ग ऐसे हैं जिन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है। यह कटु सत्य है कि आधुनिकता की अंधी दौड़ में खून के रिश्तों की जड़ों को सींचने वाला भावनात्मक जुड़ाव दिनोदिन कमजोर हो रहा है। आज भी देश के किसी कोने में कोई बीमार महिला इस इंतजार में होगी कि उसका बेटा वापस आकर उसका इलाज कराएगा, कहीं कोई सीनियर सिटीजन इस उम्मीद में होगा कि उसका बेटा कम से कम एक बार फोन करके उसकी सुध लेगा। आउटलुक का यह अंक उन्हीं की त्रासदी की ओर समाज और सरकार का ध्यान आकृष्ट करने का प्रयास है।