कोविड ने एक व्यापी रूप से अर्थव्यवस्था और परिवारों की वित्तीय सुरक्षा को बाधित किया है। जब विशेषज्ञ आर्थिक आंकड़ों पर चुटकी ले वाद-विवाद कर रहे होते हैं, तो यदि आपकी कोविड के चलते नौकरी बहाल नहीं हुई या आपके व्यवसाय फिर से नहीं खुले तो भारत की अर्थव्यवस्था 7% घटी या 5 % बढ़ी,इस आपके दैनिक जीवन में कोई अंतर नहीं पड़ने वाला।ये। भी पर सच है कि ये नम्बर अर्थव्यवस्था की सामान्य दिशा ज़रूर इंगित करते हैं। टी .वी. के कार्यक्रमों में, बिज़्नेस न्यूज़ पेपरों में दिन भर आँकड़ों की बौछार हम पर की जाती है कठिन से कठिन आर्थिक ज्ञान की शब्दवाली में। अब उसका अपनी सुविधा के हिसाब से जिसको जो मतलब निकालना है वो निकाल ले। पर आँकड़ों को समझना और उनमें निहित अर्थ को पकड़ पाना, ये जान पाना के उनसे निष्कर्ष क्या निकलता है और वो हमारे जीवन और आस पास कि घटनाओं से कैसे जुड़े हुए हैं, यही असल मुद्दा है।
आइए हम कठिन रास्ता अपनाएँ और आरबीआई, वित्त मंत्रालय, नीति आयोग आदि द्वारा हम पर फेंके गए आधिकारिक आंकड़ों को ही एक बार मान लें। कोविड में कितने लोगों की मृत्यु हुई उसी तरह सरकारी आँकड़े मान लेने में थोड़ा कष्ट होगा, पर बात के छोर तक पहुँचने में मदद मिलेगी। हमें बताया गया है कि भारत वित्त वर्ष 2021 में 10% या उससे अधिक की ग्रोथ रेट से बढ़ेगा। लेकिन पिछले दो वर्षों में हम केवल 1.5% ही बढ़े होंगे। 6% से अधिक मुद्रास्फीति के साथ, इसका मतलब यह भी है कि वास्तविक रूप में, जहाँ तक देश की क्रय क्षमता का संबंध है, हम 4.5% की गिरावट देखेंगे।
अब अर्थव्यवस्था का एक चौथाई या अधिक भाग अनौपचारिक अर्थव्यवस्था है जहां आँकड़े ठीक से जमा करने का सरकार के पास ना कोई साधन है ना ही कोई सुदृढ़ व्यवस्था।किसी को यह जानने के लिए अर्थशास्त्री या सांख्यिकीविद् होना अनिवार्य नहीं है कि कोरोना के समय में, अनौपचारिक और छोटे उद्योग सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। आपके ढाबे के मालिक, उसके वेटर, रेहड़ी-पटरी वाले, निर्माण मजदूर, कोरोना प्रभावित सेक्टरों के कर्मचारी आदि सब अस्त-व्यस्त हो गए हैं। यह कहना तर्कसंगत होगा कि ये क्षेत्र औपचारिक क्षेत्र की तुलना में कम से कम दुगनी मात्रा में गिरा है। औपचारिक उद्योगों के बड़े खिलाड़ी जैसे अम्बानी,अड़ानी इत्यादि कोविद काल में और समृध हुए हैं। ख़ैर, अगर हम इस अभ्यास को करते हैं, तो चीजें सामान्य होने के बाद, हम ठीक उसी स्थान पर वापस आ जाते हैं जहां हमने 100 से शुरू किया था तो 6% मुद्रास्फीति के साथ, 94% पर: इसलिए, 2 वर्षों में क्रय क्षमता के हिसाब से 6% नीचे।
अब मुद्रास्फीति का परिणाम होता है कि निश्चित आय (वेतन और वेतन अर्जक) वर्ग से परिवर्तनीय आय ( व्यापारिक) वर्ग कीदिशा में धन का हस्तांतरण होता है।सरल शब्दों में इसका मतलब होगा, पहले से ही एकअसमान और विकृत आर्थिक ढाँचे में बढ़ती असमानता। हम दशकों से वैसे भी एक ऐसा देश बन चुक है जहां एक तरफ़ पश्चिम राष्ट्रों के उपभोग स्तर और समृद्धि तो दूसरी तरफ़ उप-सहारा अफ़्रीका के स्तर की गंदगी, ग़रीबी और कुपोषण ने सहवास करना सीख लिया है। अब वैसे तो पिछले दो वर्षों में देश का विकास नाममात्र भी ना हो पर शीर्ष पर बैठे 11 अरबपतियों की फाइलिंग से पता चलता है कि उन्होंने लॉकडाउन के बाद से अपनी संपत्ति में 35% की वृद्धि की है। इसका मतलब है कि जो भी वृद्धि हुई, वो गुरुत्वाकर्षण के सिधांतों को अनदेखा कर सीधे ऊपर जा कर बैठ गई।
इस बीच, हम ऐसे सैकड़ों गैर-फैशनेबल तथ्यों को भूल जाते हैं जो हमें घेरते और प्रत्यक्ष रूप से हमें प्रभावित करते हैं। अंडे जैसी साधारण चीजें 15% तक महंगी हो गई हैं, तेल-घी 31% और दालें 9% तक महंगी हो गई हैं। अब इस तरह की चीजें गरीब परिवारों के पोषण पर गंभीर प्रभाव डालती हैं। वैसे भी, लॉक डाउन और कोरोना महामारी ने उनकी बचत को गायब कर दिया है, उनके स्वास्थ्य व्यय को बढ़ा दिया है और कई लोगों को बेरोजगार कर दिया है।
इसने सरकार के लिए सबसे गरीब लोगों को भोजन और चिकित्सा सुरक्षा प्रदान करने की अनिवार्य आवश्यकता पैदा कर दी है, जो आने वाले कुछ वित्तीय वर्षों के लिए सार्वजनिक वित्त पर दबाव बनाए रखेगा। अतिरिक्त स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के निर्माण की आवश्यकता के साथ, यह आने वाले कुछ वर्षों में सामान्य बुनियादी ढांचे के विकास के माध्यम से विकास को प्रोत्साहित करने की सरकार की क्षमता को और कम कर देगा। सिक्के के दूसरे पहलू देखें देश के शीर्ष 11 अरबपतियों ने इस दौरान इतना पैसा अतिरिक्त अर्जन किया है कि स्वास्थ्य मंत्रालय के वर्तमान बजट के हिसाब से 10 वर्षों का बजट उस अतिरिक्त आय से चल सकता है। लेकिन क्या सरकार आवश्यक देश निर्माण के ख़र्चों लिए जिन्हें हम अल्ट्रा रिच यानी अत्यंत समृध कहते हैं, उन पर कोई कर लगा पाएगी? उत्तर आप भी जानते हैं, संभवत नहीं।
सबसे गरीब लोगों के लिए विकास के मामले में अगले कुछ वर्षों के लिए विकास परिदृश्य बहुत उज्ज्वल नहीं दिखता है। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने एक अध्ययन में दावा किया है कि कोरोना के बाद 22 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे चले गए हैं। भले ही इसका 50% सच हो, तब भी ये तस्वीर कोई बहुत सुखद है।सेंटर ऑफ मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) का आकलन है कि कोरोना के बाद 97% भारतीय पहले से ज्यादा गरीब हैं।
सरकार हमेशा, जैसा कि दुनिया भर की सरकारें करती हैं, पैसे छाप सकती हैं। समस्या केवल यह है कि उत्पादन और उत्पादकता बढ़ाने के क्षेत्र में हमारी व्यवस्थाएँ बहुत दुर्बल हैं। उसी समान है जैसे पथरीली मिट्टी पर पानी डाल भी देंगे तो वो स्तर से ही बह जाएगा और जड़ तक नहीं पहुँचेगा। पौधे यानी अर्थव्यवस्था की वृधि कुछ नहीं होगी बस आसपास पानी-पानी यानी मुद्रास्फीति बढ़ जाएगी ।
हम एक ऐसी पहेली देख रहे हैं जहां दुनिया, जिसमें भारत भी शामिल है, निर्मित तरलता से भरी हुई है, जो केंद्रीय बैंकों द्वारा बनाई गई है। ये केंद्रीय बैंक जो वैसे काग़ज़ों पर तो स्वायत्तता का दावा करते हैं पर वास्तविकता में केंद्र सरकार के इशारे पर काम करते हैं । कोविद अंतराल में जहां अर्थव्यवस्था चरमरा रही है, भारतीय शेयर बाजार मार्च 2020 से दोगुना हो गया है ल शेयर बाज़ार रोज नए आयाम छू रहा है। ये बड़े लोगों के लिए नया आईपीएल है। पिछले तीन वर्षों में हमने औसतन 43 लाख नए डीमैट खाते जोड़े, इस वित्त वर्ष 2021 में अकेले हम 143 लाख जोड़ने जा रहे हैं!
एकमात्र खेल जो देश में बढ़ रहा है वह है शेयरों का पीछा करना। एक दिन, जब गंदगी छत से टकराएगी; छोटा, उत्साहित, पहली बार आने वाला निवेशक आखिरी व्यक्ति होगा जो हवा निकले हुए शेयर सम्भालता हुआ दिखाई देगा।अब समय आ गया है कि सरकार छोटे निवेशकों को शिक्षित और जागरूक बनाने के लिए कदम उठाए। वह भी अंग्रेजी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी क्योंकि छोटे छोटे क़स्बों में भी शेयरों में निवेश का प्रचलन बढ़ रहा है।ये मंडी कभी छोटे निवेशक की सगी नहीं हुई जब तक वो बहुत प्रशिक्षित ना हों इस तंत्र के आचार,व्यवहार और चालबाज़ी के बारे में। ये कब नरसंहार में बदल जाए छोटा निवेशक जान भी नहीं पाएगा। बड़े निवेशक जिनके पास अग्रिम सूचना रहती है, तेज़ी में भी पैसा कमाते हैं और मंदी में भी।
अब मध्यम वर्गीय व्यक्ति जाए भी तो कहाँ? मजबूरी का एक तत्व भी है। बचत के मध्यम वर्ग के पास बहुत कम अवसर रह गए हैं l अनुसूचित बैंकों के साथ ब्याज दरों का भारित औसत 5.4% के सर्वकालिक निचले स्तर पर आ गयी है। अब मुद्रास्फीति 6% और मुद्रास्फीति की उम्मीद 10.3% के साथ, इसका मतलब है कि वास्तविक अवधि में आपकी सावधि जमा असल मूल्य खो रही है। सेवानिवृत्त जाए तो जाए कहाँ? सम्पतीयों के मूल्य बढ़े नहीं। उनका किराया भी कम हो रहे हैं l और दूसरी तरफ़ शेयरों को अकथनीय ऊंचाइयों तक पहुंचते देख रहे हैं। कोई विकल्प ना होने के कारण से वो भी शेयर मार्केट के सागर में कूद रहे हैं । अब इसे कच्चा लालच कहें या विवशता,ये एक और विवाद का विषयहै।पर एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति जिस की आय अपनी पेन्शन और फ़िक्स्ड डिपॉज़िट पर निर्भर है।
उसके पास शायद कोई और विकल्प नहीं है।अब शेयर बाज़ार की सूचना भी उसे देर से मिलेगी और विश्वसनीय सूचनाएँ उसे हमेशा कम मिलेंगी। उसके पास वो साधन भी नहीं है जिनसे वो ठीक और ग़लत के बीच का चुनाव कर सकें। तो उसके पास , जो वो टीवी में देखता है,दोस्त से सुनता है या पेपर में पढ़ता है, उस सब पर विश्वास करने के इलावा कोई चारा नहीं रहता l अंत में अक्सर ये देखा गयाहै कि छोटा निवेशक ही अफ़वाह भी ख़रीदें हुए छोटे- छोटे शेयरों में अपनी मेहनत से अर्जन की हुई कमाई खो बैठता है l
दूसरी अप्रत्याशित घटना यह घटी है कि विश्व भर में कच्चा माल जैसे स्टील,सीमेंट ,लोहा तेल ,प्लास्टिक इत्यादि इन सब की कीमतों में अत्यंत वृद्धि हुई है। पर यह वृद्धि वित्तीय रूप में सरकार के लिए अत्यंत लाभकारी भी साबित हुई है। अब सरकार जी एस टी और अन्य कर लागत के प्रतिशत रूप में एकत्रित करती है और कच्ची वस्तुओं के दाम बढ़ जाने से यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि अप्रैल के मास में जीएसटी संग्रह बढ़कर 1 लाख 40 हज़ार करोड़ हो गया है और जून में भी उसके यही बने रहने की उम्मीद है । महामारी के बाद एक प्रगतिशील भारत की कहानी वैसे भी कुछ धूमिल सी हो गई है। उस संदर्भ में विदेशी निवेश का संसाधन भी एक गंभीर चुनौती बन चुका है। उधर सार्वजनिक उपक्रमों के विनिवेश की कहानी भी सरकार के प्रक्रियात्मक झगड़ों में उलझी पड़ी है। पूरे विश्व में पुरानी तरह के व्यापारों में निवेश करने की रुझान भी कम दिखाई पड़ता है। उधर सरकार के सामने मरणासन्न क्षेत्रों जैसे रियल एस्टेट, बिजली, छोटे उद्योग और सरकारी बैंक को साफ करने का बहुत बड़ा कार्य खड़ा है। सरकार के पास बहुत खर्चा करने की ताकत और बहुत बड़े निवेश लाने की ताकत काफी सीमित सी है। इस परिप्रेक्ष्य में, कुल स्थिति को देखते हुए, बहुत अधिक सरकारी अपेक्षा रखना उचित और यथार्थवादी नहीं होगा। हमें मन खट्टा ही क्यों ना हो, पर मान लेना पड़ेगा कि आत्मनिर्भर होने का मतलब यह है कि हर नागरिक को अपने आप पर निर्भर रहना पड़ेगा और अपने दम पर जीवन को निर्वाह करना होगा। शायद यह हमारे लिए बेहतर भी है। तो देवियों और सज्जनो, अर्थशास्त्री बहुत गंभीर मुद्रा में अंकों और शब्दों का कुछ भी जाल बिछाएँ ,धरातल पर वास्तविकता यही है कि आज सरकार की क्षमता बहुत हद तक सीमित हैं और सरकारें आर्थिक क्षेत्र में उतनी बलिश्ट नहीं हैं और इस वजह से नागरिक को स्वावलंबी होना ही पड़ेगा। सामान्य नागरिक के पास और विकल्प है ही नहीं।
(लेखक पूर्व-आईपीएस अधिकारी और एक प्रौद्योगिकी उद्यमी हैं। लेख में व्यक्त किए गए विचार इनके निजी हैं।)