इस जनादेश से क्या रोजगार, पलायन, शिक्षा, स्वास्थ्य, आरक्षण के मुद्दे गौण हो जाएंगे, क्या मंडल के दौर के बाद की सियासत का उभर रहा है नया स्वरूप
तय था कि बिहार चुनाव का नतीजा समूचे देश की राजनैतिक धारा का रुख मोड़ने-बदलने वाला है। तैयारी भी हर तरफ से ऐसी थी, जो हाल के दौर में कम या नहीं देखी गई। कुछ तो यकीनन ऐतिहासिक थी, सत्तारूढ़ और विपक्ष की ओर से ही नहीं, अंपायर ने तो जैसे खुद को इतिहास में दर्ज कराने की जिद ही ओढ़ ली कि हम ही सबसे संवैधानिक, हम ही सबसे सही। और यही बड़ा मुद्दा बन गया। बाकी राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक मुद्दे-मसले तो बिहार की शोक कही जाने वाली कोसी नदी की प्रलयंकारी बाढ़ की तरह तटबंध तुड़ा रहे थे। उनकी धार तीखी थी और 2020 के चुनावों से ही उसमें इस कदर उफान दिख रहा था कि एक नए किरदार में सियासत को सिरे से बदल डालने और नई बड़ी लकीर खींचने की उम्मीदें छलांग लेने लगी थीं। वोट डालने के आंकड़े (67.4 प्रतिशत) भी आजाद बिहार के इतिहास में चोटी छू गए। लेकिन ईवीएम से जो निकला, वह इस कदर ‘‘अस्वाभाविक, समझ को मात देने वाला’’ था कि बड़े से बड़े राजनैतिक, चुनावी पंडि़तों की उंगली दांतों तले पहुंच गई, सिर चकरा गया।
नतीजा ऐसा निकला, जैसे उफनती बाढ़ का यू-टर्न हो गया, ज्वार मैनेज हो गया हो। मुद्दे-मसले फना हो गए। बेरोजगारी, पलायन, नौकरी, रोजगार, पेपर लीक, भ्रष्टाचार, लुंजपुंज लुढ़कती शिक्षा-स्वास्थ्य व्यवस्था, आरक्षण, दलित और स्त्री उत्पीड़न, बढ़ती अपराध की घटनाएं सब शांत हो गईं या कर ली गईं। बीपीएससी और रेलवे भर्ती में पेपर लीक के मुद्दे ने तो राजधानी पटना और बिहार की सड़कों पर महीनों तक कोहराम मचाए रखा था। नौजवानों को पुलिस की जोरदार लाठियां खानी पड़ीं। लेकिन जब जनादेश आया, तो लगा मानो कुछ हुआ ही नहीं था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और बड़े ‘सुशासन बाबू’ बनकर उभरे और पूरे एनडीए कुनबे को नए मुकाम पर पहुंचा दिया। यह सब जीत की विशाल संख्या (243 में 202 सीटें, 83 फीसदी स्ट्राइक रेट) में ही नहीं, 1952 के चुनावों से लेकर अब तक के सबसे अधिक मार्जिन में भी दिखा, जबकि बिहार में लगभग हमेशा ही कांटे की टक्कर दूसरे राज्यों के मुकाबले अधिक होती रही है।

रोजी रोटी के लिए दूसरे प्रदेशों में जाते प्रवासी बिहारी बाशिंदे
इसी को विपक्षी महागठबंधन के एक घटक भाकपा (माले) के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ‘‘अस्वाभाविक, समझ से परे’’ कह रहे हैं। हालांकि राजद या कांग्रेस के बड़े नेताओं की ओर से कोई प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली। मुख्यधारा की राजनीति को चुनौती देने और रोजगार, पलायन तथा बिहारी स्वाभिमान को मुद्दा बनाने वाली नई-नवेली जन सुराज का ऐसा सूपड़ा साफ हुआ कि उसके संरक्षक प्रशांत किशोर प्रेस कॉन्फ्रेंस मुल्तवी करते रहे। पार्टी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह ने जरूर बताया कि एनडीए सरकार ने हाल के महीनों में 40,000 करोड़ रुपये की खैरात बांटी, जो राज्य पर बढ़ते कर्ज में इजाफा कर गया, जो चुनाव आचार संहिता का घोर उल्लंघन है।
तो, क्या बिहार के वोटरों को ‘स्वाभिमान’ के बदले ‘खैरात’ ज्यादा पसंद आई? यह दलील दी जा रही है कि ऐन मतदान के दिन महिलाओं को मुख्यमंत्री रोजगार सहायता योजना के मद में एकमुश्त 10,000 रुपये डालने से बाजी पलट गई। आंकड़ों के मुताबिक महिलाओं (करीब 72 फीसदी) ने पुरुषों (63 फीसदी) की तुलना में ज्यादा वोट डाले। अंपायर यानी चुनाव आयोग महिलाओं को पैसा बांटने पर आंखें मूंदे रहा। विपक्ष और दूसरे राजनैतिक विश्लेषक आलोचना करते रहे। आयोग पर एसआइआर के दौरान 30 सितंबर तक आखिरी सूची से 69 लाख वोटरों के नाम कटने, करीब 22 लाख नाम जोड़ने (उसके प्रेस नोट के मुताबिक करीब 14 लाख नई अर्जी थी) पर भी सवाल उठे। इसके अलावा 30 सितंबर की सूची के 6 अक्टूबर को प्रकाशन के बाद मतदान के बाद जारी आंकड़ों में करीब 3 लाख लोगों के नाम और जोड़ने पर भी सवाल उठाए गए। पहले बिहार में वोटरों की संख्या 7.42 करोड़ बताई गई, जो 11 नवंबर के प्रेस नोट में 7.45 लाख हो गई।
दलील यह भी है कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) बीस साल पहले अपने ‘जंगल राज’ के पिछले रिकॉर्ड के कारण बुरी तरह हार गया, और कि नीतीश कुमार को पिछले दो दशकों के सुशासन और गिरते स्वास्थ्य की वजह से मिले सहानुभूति वोटों ने एनडीए को बढ़त दिला दी। लेकिन इन दोनों में से कोई भी कारण इस भारी जनादेश की व्याख्या करने के लिए काफी नहीं है। 2020 के चुनाव में महागठबंधन का महज 0.03 फीसदी या 12,000 वोटों से पीछे रह जाना यह नहीं बताता कि दो दशक पहले की धारणा आज भी जोरदार बनी हुई है। इसके अलावा जिस तरह इस साल पिछले कुछ महीनों में पटना और कई जगहों पर अपराध की घटनाएं हुईं, वे भी नई कहानी कह रही हैं।
जहां तक आर्थिक मोर्चे की बात है, तो क्या 2020 के बाद से बिहार का प्रदर्शन बेहतर रहा है? इसके कोई प्रमाण तो नहीं मिलते। बेशक, सड़कों और बिजली में सुधार हुआ है। यह कई साल से चल रहा है। लेकिन भ्रष्टाचार के कारण, बुनियादी ढांचे की गुणवत्ता काफी खराब है। मसलन, नए बने या निर्माणाधीन पुल ढह रहे हैं। तब, क्या बुनियादी ढांचे में मामूली सुधार ही लोगों को सत्तारूढ़ एनडीए को इतने बड़े पैमाने पर वोट देने के लिए पर्याप्त है?
बिहार देश का सबसे गरीब राज्य बना हुआ है। बेरोजगारी दर सबसे ज्यादा है और बढ़ती जा रही है। रोजगार के लिए कृषि पर निर्भरता बनी हुई है, उद्योग-धंधे घट रहे हैं। रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में लोग दूसरे राज्यों में पलायन करने को मजबूर हैं। कोविड-पूर्व अनुमान के अनुसार, 65 प्रतिशत परिवार बाहर की कमाई पर निर्भर हैं। इस पलायन की शुरुआत बड़े पैमाने पर अस्सी-नब्बे के दशक से हुई, जब खेती-किसानी संकट में घिरने लगी। यह सब उस दौर के चर्चित साहित्यकार अरुण कुमार की कहानी भईया एक्सप्रेस में दर्ज है। मंडल के बाद के दौर के बाद लालू प्रसाद हों या नीतीश कुमार उसका हल कुछ रेलगाडि़यां चलाकर ही करते रहे और पलायन को मुद्दा मानने से इनकार करते रहे। उसके दशक भर बाद पढ़ाई और इलाज के लिए भी बड़े पैमाने पर पलायन होने लगा है। 2014 के बाद इन स्थितियों में कई गुना इजाफा है।
तो, 2020 और 2025 के बीच ऐसा क्या बदला, कि जो चुनाव पहले कांटे की टक्कर माना जा रहा था, वह विपक्ष की करारी हार में बदल गया? सबसे बढ़कर यह कि ये मुद्दे कैसे लोगों के जेहन से उतर गए। बिहार में औसत व्यक्ति की स्थिति में कोई खास बदलाव भी नहीं आया। लेकिन सत्तारूढ़ एनडीए का वोट 37.3 फीसदी से बढ़कर 46.6 फीसदी हो गया है, जबकि महागठबंधन का वोट 37.2 फीसदी से बमुश्किल 37.9 फीसदी तक बढ़ा।
इसके अलावा, 2020 के विधानसभा चुनाव (57.3 फीसदी) और 2019 के लोकसभा चुनाव (57.3 फीसदी) के मुकाबले 2025 (67 फीसदी) में मतदान बढ़ गया। अगर वोटरों के जेहन में बुनियादी मुद्दे नहीं थे, तो वे क्या कारण हैं कि करीब दस प्रतिशत ज्यादा संख्या में लोग वोट देने निकले। कांग्रेस के एक नेता के मुताबिक, यह बात भी गौर करने लायक है कि 2020 में देर शाम तक कतारें लगी दिखी थीं, लेकिन इस बार मतदान में भारी इजाफे के बावजूद शाम को बड़ी लाइनें कम देखी गईं।
इस बार यह फर्क जरूर था कि एनडीए सरकार ने चुनावों से ठीक पहले और चुनाव के दौरान दोनों ही वक्त लोगों के लिए मुफ्त योजनाओं की भरमार कर दी। विपक्ष, खासकर तेजस्वी यादव ने भी हर परिवार में एक सरकारी नौकरी का वादा किया, लेकिन वह तो सिर्फ वादा था, जबिक सरकार तो रकम बांट रही थी।
चुनाव से ठीक पहले एकमुश्त रकम खाते में डालने का यह मॉडल इससे पहले मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में सरकारी दल ने पेश किया था, जहां विपक्ष बुरी तरह पराजित हुआ। उसके पहले 2019 के लोकसभा चुनावों से ऐन पहले किसान सम्मान निधि के तहत 6,000 रुपये की रकम पिछले महीनों से देश भर के किसानों के खाते में डाली गई थी। हालांकि दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार को चुनाव से पहले महिलाओं के खाते में रकम डालने की योजना चालू नहीं करने दी गई थी।
यही नहीं, ये चुनावी नतीजे बिहार की खासकर मंडल सियासत के साढ़े तीन दशकों के बाद एक बदलाव की तस्वीर भी पेश करते हैं। सबसे अहम तो आरक्षण का मामला है। 2023 में नीतीश की अगुआई में महागठबंधन की सरकार ने जाति सर्वेक्षण कराया और आरक्षण की सीमा 65 प्रतिशत करने प्रस्ताव केंद्र को भेजा, जो अदालत में अटक गया। ऐसा लगता है कि वह मुद्दा भी इस बार गौण हो गया। इसके अलावा, नब्बे के दशक के बाद करीब 12 फीसदी अगड़ी आबादी के विधायकों की संख्या 58 तक पहुंच गई, जबकि 13 प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाले यादवों के 28 विधायक ही जीते। इसी तरह अति पिछड़े, दलितों के विधायकों की संख्या भी घटी।
इस तरह मुद्दों का मर जाना लोकतंत्र और सियासत पर जनमत के असर का बेमानी होना है। इससे पहले हरियाणा चुनावों के नतीजों से किसानों की एमएसपी की कानूनी गारंटी का मुद्दा भी हवा-सा हो गया है। तो, क्या चुनाव लोगों के दीर्घकालिक मुद्दों के बदले सिर्फ तात्कालिक रियायतों की बानगी बनकर रह जाएंगे, यह सवाल सबसे तीखा होकर बिहार के जनादेश से उठा है।