चुनावी मौसम में मतदाताओं की मायूसी से संविधान-विशेषज्ञ तो चिंतित हैं, लेकिन नेता सहज हैं। उनके स्वार्थों की टकराहट और नीतिविहीनता ने मोहभंग की स्थिति को जन्म दिया है। राजनीतिक दलों के लिए अब आदर्श महत्वपूर्ण नहीं रहे। कुछेक राजनीतिक दलों को छोड़ कर शेष दल नेताओं की निजी जागीर बन चुके हैं।
नेताओ की रूचि गरीबी उन्मूलन में होती तो मतदाता मौन नहीं रहते. 18 वीं लोकसभा चुनाव के पहले चरण में बिहार की चार सीटों नवादा, औरंगाबाद, गया (सु.) एवं जमुई (सु.) में मतदान का औसत गिर गया है। हालांकि पहले चरण में कुल 102 निर्वाचन क्षेत्रों के लिए 60 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ है, लेकिन राजनीतिक रूप से सबसे ज्यादा जागरूक राज्य बिहार में त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, मणिपुर, मेघालय, असम, उतराखंड, महाराष्ट्र, राजस्थान एवं तमिलनाडु की अपेक्षा कम मतदान होना खतरे की घंटी है। दूसरे चरण की पांच सीटों- किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया, भागलपुर एवं बांका- के लिए हुए मतदान में भी 2019 की तुलना में लगभग पांच प्रतिशत की कमी दर्ज की गयी है। चुनाव आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद अगर मतदाता उदासीन हैं तो इसका निहितार्थ यही है कि नेताओं की विश्वनीयता खत्म हो गयी है।
बिहार की कृषि व्यवस्था अर्द्धसामंती तत्वों के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी है। खेतिहर मजदूर और छोटे किसान आज भी पारंपरिक कर्ज की डोर से बंधे हुए हैं। भूस्वामियों और बड़े किसानों की रुचि खेती-किसानी के आधुनिक तौर-तरीकों में नहीं है। चतुर्थ आम चुनाव के पश्चात् राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन की बयार तो बही, लेकिन एक नए अभिजात्य वर्ग का उदय भी हुआ जो भूमिहीनों के कल्याण का स्वांग रचने में कुशल है। किसानों के बीच तैयार हुआ एक विशिष्ट मध्यवर्ग सत्ता में भागीदारी के लिए शक्ति प्रदर्शन की नई तरकीबें ढूंढने लगा है। यह वर्ग आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए प्रयासरत नहीं है।
उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में किसान संगठित हुए तो न केवल जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हुआ बल्कि ग्रामीण जीवन को एक नई दिशा भी मिली। चौधरी साहब बहुफसली खेती के समर्थक थे। बिहार में पिछड़े वर्ग के नेताओं ने भूमि सुधारों की चर्चा तो खूब की, लेकिन वे सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के वाहक नहीं बन सके। इसलिए आमजन ठगा सा महसूस कर रहे हैं।
राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी कम मतदान का प्रमुख कारण गर्मी का अधिक होना मानते हैं। गर्मी के प्रतिकूल प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता, लेकिन विकास के विभिन्न मुद्दों पर मतदान के बहिष्कार की खबर को गंभीरता से लेने की जरूरत है। उम्मीदवार जब अपने काम के बजाय अपने नेता के नाम पर वोट पाते हैं और जीत हासिल करने के बाद सियासत के मजे लेने लगते हैं तो मतदाता मौन साधने के लिए विवश हो जाते हैं। लोकतंत्र और राष्ट्र-राज्यों के इस युग में यदि राजनीतिक दलों के प्रति लोगों की निष्ठा में कमी होती है तो जिम्मेदार वैसे नेता हैं जिन्होंने राजनीति को सेवा का माध्यम न मान कर इसे धनार्जन का जरिया बना डाला है। उत्तर-स्वातंत्र्यकाल में लोकतांत्रिक संस्थानों में पलती और पनपती नकारात्मक प्रवृत्तियों के कारण निर्धन नागरिक आज भी अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत हैं।
गौरतलब है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान समाज एवं शासनतंत्र दोनों का एकसमान विकास नहीं हुआ। बिहार जाति के राजनीतिकरण का दिलचस्प उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहां सक्रिय कमोबेश सभी राजनीतिक दल जाति आधारित वोट बैंक निर्मित करने के लिए जाने जाते हैं। नेता अपनी जाति के मतों की एकजुटता पर निर्भर होना पसंद करते हैं। इसलिए आर्थिक विकास की प्रक्रिया उपेक्षित है, जिसके फलस्वरूप मतदान के प्रति उत्साह में कमी है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जनसभाओं में अपनी सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करते हैं। कुछ हद तक उनकी बातों पर यकीन किया जा सकता है। स्कूल जाने वाली बेटियों के लिए साइकिल एवं पोशाक योजना प्रशंसा की हकदार है, लेकिन प्रदेश की सबसे बड़ी चुनौती पलायन एवं बेरोजगारी है। कोरोना काल में जिस तादाद में बिहारी मजदूरों की "घरवापसी" हुई थी, वह एक भयावह तस्वीर पेश करती है। बिहारी श्रमिकों की यात्रा कभी खत्म नहीं होती, वे महानगर में रहते हैं तो अपने गांव के बारे में सोचते हैं और जब गांव में होते हैं तो उनकी गरीबी उन्हें प्रवास के लिए धक्के मारती है।
राज्य के जिला मुख्यालयों में नियोजित विकास के दर्शन नहीं होते। स्वास्थ्य सुविधाओं में कमी के कारण ही गंभीर बीमारियों से ग्रस्त मरीज अन्य राज्यों में बेहतर इलाज हेतु भटकने के लिए मजबूर हैं। चीनी एवं जूट मिलों के उद्धार की योजना त्वरित गति से धरातल पर नहीं आ पा रही है। फलों पर आधारित उद्योगों के विकास की व्यापक संभावनाओं के बावजूद आगे कदम बढ़ाने के लिए अनुकूल माहौल नहीं बन सका है। ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार सृजन की गति धीमी है। जातीय गणना के आंकड़े प्रकाशित हो चुके हैं, लेकिन इनके आधार पर रोजगार योजनाओं का निर्माण अब तक नहीं हुआ है। बिहार का मौलिक स्वरूप कृषि प्रधान है, लेकिन व्यावसायिक स्तर पर कृषि हेतु उपयुक्त अधिसंरचना का अभाव दिखाई देता है। राजस्व एवं भूमि सुधार विभाग को जमीन की मापी के लिए ऐसी व्यवस्था विकसित करनी चाहिए ताकि भूमि-विवाद का स्थायी समाधान ढूंढा़ जा सके।
गौरतलब है कि 1990 के दशक से राज्य की राजनीति पर पिछड़े वर्ग का ही दबदबा है। इसलिए अब सार्वजनिक नीतियों के प्रभावशाली क्रियान्वयन की जिम्मेदारी उन्हें लेनी चाहिए। शिक्षा, शहरीकरण एवं आधुनिकीकरण से जातियां खत्म नहीं हुईं, बल्कि वे संगठित होकर राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली हो गयीं हैं। हालांकि इस मामले में सुखद पहलू यह है कि जाति की राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में निर्णायक भूमिका नहीं है।
मतदाताओं का विश्वास जीतने के लिए यह आवश्यक है कि योजनाएं निचले स्तर पर तैयार हों और उनमें सार्थक समन्वय हो, साथ ही उनके क्रियान्वयन में आम आदमी की सहभागिता भी सुनिश्चित हो। शिक्षा एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में गुणवत्ता पर समुचित ध्यान दिया जायेगा तो निर्धन वर्ग के लोगों को भी मुस्कुराने का अवसर मिलेगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)