“गुजरात में इस बार का विधानसभा चुनाव भाजपा की पारंपरिक राजनीति का स्वाहा होना है”
चुनाव से पहले सरकार बदल दी। ऐन वक्त बीस बरस पुराने दंगों के घाव को उभार दिया। देश के प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने पूरी ताकत झोंक दी। दर्जन भर कैबिनेट मंत्री तो चार राज्यों के मुख्यमंत्री प्रचार करने पहुंचे। सारे मुद्दे हवा हो गए। न मोरबी पुल का दर्द, न महंगाई का गुस्सा। न जीएसटी की तबाही का रोष, न बेरोजगारी का आक्रोश। फिर पाटीदार बंट गया। मुसलमान बंट गया। दलित ऊना को भूल गए। आदिवासी भी आदिवासी राष्ट्रपति के बनने से भाजपा का मुरीद हो गए। ओबीसी के सामने कोई चेहरा नहीं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ही ओबीसी नेता माना। बिलकिस बानो कांड से छलनी कानून का राज भी डगमगाकर पटरी पर लौट आया। कांग्रेस की खामोशी ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओ को बाहर नहीं निकाला तो ‘आप’ के शोर ने बिना संगठन केजरीवाल की हवा बना दी, जो सोशल मीडिया पर हंगामा खड़ा करती चली गई। जमीन पोपली ही रह गई। सत्ताईस बरस की सत्ता की लहर कुछ इस तरह बनी, जिसमें लगा ही नहीं कि सत्ता विरोधी लहर भी कोई चीज होती है या गुजरात अपने किसी नए नेता या पार्टी को चुनने निकला है, क्योंकि सामने मोदी-शाह हैं जिन्होंने अपने ही राजनीतिक प्रयोगों को बदला। अपनी ही जीत के पुराने रिकार्ड को तोड़ नया रिकार्ड बनाया।
भाजपा की 156 सीटों की जीत ने हर रिकार्ड को तोड़ा। यह गुजरात में भाजपा की पारंपरिक राजनीति का स्वाहा होना है। बीते बीस बरस में गुजरात में इससे पहले कभी जाति समीकरण और ओबीसी दांव पर नहीं था। इससे पहले कभी त्रिकोणीय मुकाबले की राह नहीं थी। याद कीजिए, 2002 के दंगों की छांव तले जीती 127 सीटों के अपने रिकार्ड को भी इस बार भाजपा ने तोड़ा। 2007 में ‘मौत का सौदागर’ के खौफ भरे नारे ने भाजपा को 117 सीट दिलवाई थी तो 2012 में दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने के सपने को जगाकर 115 सीट पर मोदी को जीत मिली थी। 2017 में दिल्ली से गुजरातियों के लिए बनते रास्ते के ख्वाब को परोसा गया, तब उसे 99 सीट पर जीत मिली। 2022 हालांकि सबसे अलग और निराला है।
दिल्ली से गांधीनगर को चलाना। हार्दिक पटेल के जरिये पाटीदार आंदोलन की एकजुटता को खत्म करना। त्रिकोणीय मुकाबले के लिए ‘आप’ को खड़ा करना। मुसलमान वोट का कांग्रेस और ‘आप’ में बंटना। युवाओं के आक्रोश के सामने केजरीवाल की उम्मीद को खड़ा करना। पटेलों के दोनों समुदाय कड़ुआ और लेउआ पटेलों को भाजपा की झोली में लेकर आना। समीकरणों की इस ताकत ने मुद्दों को कैसे दरकिनार किया और भाजपा को एतिहासिक जीत दिला दी। गुजरात का यह राजनीतिक मॉडल सिर्फ गुजरात तक सिमट कर रह जाएगा, ऐसा नहीं है। इस नायाब प्रयोग ने मोदी-शाह को वह ताकत दी है कि भाजपा शासित राज्यों में कोई मुख्यमंत्री यह न सोचे कि वह जीत सकता है या उसके भरोसे भाजपा को जीत मिल सकती है। भाजपा के भीतर कद्दावर नेताओं को भी इस नायाब राजनीतिक प्रयोग के सामने शीश झुकाना होगा, चाहे वे नितिन गडकरी हों या राजनाथ सरीखे बड़े नेता क्योंकि गुजरात का यह मॉडल हिमाचल और दिल्ली से अलग है। हिमाचल और दिल्ली में सत्ता विरोधी हवा चलती है और भाजपा हार जाती है, लेकिन गुजरात में 27 बरस की सत्ता के बावजूद कोई एंटी इन्कंबेसी नहीं होती। उलटे लहर में तब्दील हो जाती है।
यह प्रयोग कर्नाटक के नेताओं के लिए भी है और राजस्थान व छत्तीसगढ के पुराने कद्दावर नेता जो मुख्यमंत्री रह चुके हैं, उनके लिए भी है। चाहे वह रमन सिंह हों या वसुंधरा राजे। आधा दर्जन राज्यों में 2024 के लोकसभा से पहले चुनाव होने हैं। गुजरात की जीत के साथ मोदी-शाह ने जो लकीर खींची है उसमें गुजरात के इस मॉडल को देश भर में जमीन पर उतारना ही सबसे जरूरी है, जिसमें भाजपा एक पिरामिड की शक्ल में है और शीर्ष ही हर निर्णय लेने के लिए स्वच्छंद है।
यह मैसेज रूठे हुए संघ के लिए भी है और नए रास्ते को तलाशते कॉरपोरेट के लिए भी है। भाजपा 2024 में 2019 से भी बड़ी लकीर खींचने की दिशा में जाना चाहती है। इसके लिए स्वयंसेवकों को कार्यकर्ता में तब्दील होना होगा और कॉरपोरेट को पॉलिटिकल फंडिंग की दिशा में सिर्फ एक पार्टी का रुख करना होगा। गुजरात के इस राजनीतिक मॉडल ने 1985 के कांग्रेस के माधव सिंह सोलंकी के 149 सीटों के रिकॉर्ड को मात दी है। 2024 की बिसात पर विपक्ष कितनी चाल चल पाएगा यह तो दूर की कौड़ी है, लेकिन नरेंद्र मोदी के सामने अब 1984 में राजीव गांधी की 415 सीट से ज्यादा सीटें लाने की चुनौती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, टीवी शख्सियत और टिप्पणीकार हैं। व्यक्त विचार निजी हैं)