भारत के प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" से विभिन्न महापुरुषों को सम्मानित करने की मांग आये दिन उठती रहती है। इनमें से कुछ मांगे तो राजनीति से प्रेरित होती है, कुछ बेहद गंभीर होती है। वहीं कुछ ऐसे महापुरुषों के लिए इस सम्मान की मांग की जाती हैं जिन्हे एक नहीं कई "भारत रत्न" से सम्मानित किया जा सके और ऐसे ही महापुरुषों में शामिल हैं स्वामी सहजनान्द सरस्वती।
उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला के देवा ग्राम में जन्में और बिहार को कर्म भूमि बनाने वाले सहजानन्द भारतीय इतिहास के वह युग पुरुष हैं,जिन्होंने एक साथ और एक समय में धर्म, राजनीति, समाज और शास्त्र को समजोपयोगी बनाने के लिए संघर्ष का मार्ग प्रशस्त किया। उनके व्यक्तिव में धर्माचार्य, जननायक, लोकचिंतक, साहित्यकार और समाज सुधारक का अनोखा समिश्रण हुआ था। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में आजादी की ज्योति को शहरों से निकालकर कर गांवों से लेकर सुदूर तक ले गए और तब के 80 प्रतिशत देशवासियों के बीच राष्ट्रीयता का बीज बोया। पांच हजार वर्षों के भारतीय कृषक इतिहास में किसानों को पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर संगठित किया और उसके नेतृत्वकर्ता बने। इनकी अध्यक्षता में पहले वर्ष 1929 के 17 नववंबर को बिहार राज्य किसान सभा और वर्ष 1936 के 11 अप्रैल को अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई थी।
उल्लेखनीय है कि 1939 के रामगढ कांग्रेस अधिवेशन में सहजानन्द ने ही पहली बार "भारत छोडो" का नारा दिया था और इसी दण्डी स्वामी के बारे में सुभाषचंद्र बोस ने कहा था ‘‘साबरमती आश्रम में मैंने खादी धोती पहने पूंजीपतियों के सााथ एक सन्यासी को देखा, परन्तु भारत का एक सच्चा सन्यासी मुझे सीताराम आश्रम पटना (इसी आश्रम में सहजानन्द रहते थे) में मिला।राहुल सांकृत्यायन ने उन्हें 'नये भारत का नया नेता' से सम्बोधित किया है। अमेरिकी विद्ववान वाल्टर हाउजर ने किसान आंदोलन पर अपने शोध कार्य में सहजानन्द की दो अप्रकाशित पुस्तकों झारखंड के किसान और खेत मजदूर का उपयोग करते हुए भारतीय राष्ट्रीय किसान आंदोलन का सबसे बडा नायक माना है। इतिहासकार विलियम पिंच ने अपने शोध ग्रंथ में कहा है कि ग्रामीण क्षेत्र में संत एंव किसानों का पारस्परिक संबंध बढा मधुर था और निश्चित रुप से अपनी संत छवि के कारण सहजानन्द ग्रामीण क्षेत्रों में सहज स्वीकार्य किए गए और उनके क्रांतिकारी कार्यों का जोरदार समर्थन किसान वर्ग ने किया। इसी कारण तब के 80 प्रतिशत ग्रामीण भारतीयों के बीच आज़ादी के आंदोलन की ज्योति जलाने में सहजानन्द कामयाब रहे।
दरअसल , कांग्रेस के अलावा समाजवादी क्रांतिकारियों के साथ सहजानंद का किसान आंदोलन ही स्वतंत्रता आंदोलन की सबसे बड़ी धारा थी और किसानों के बीच आज़ादी की दीवानगी का परवान चढ़ने के बाद ही स्वतंत्रता आंदोलन तीव्र और तीखा हुआ था। सहजानन्द ने किसान संगठन को तब के कांग्रेस के मुकाबले खड़ा किया था। किसान संगठन की लोकप्रियता का आंकलन इसी से किया जा सकता है कि उसकी सभाओं में कांग्रेस की सभाओं के मुकाबले की भीड़ जुटा करती थी।वर्ष 1938 में अखिल भारतीय किसान संगठन के पंजीकृत सक्रिय सदस्यों की संख्या दो लाख थी जो तत्कालीन कांग्रेस के सदस्यों के बाद दूसरी बड़ी संख्या थी। किसान संगठन के बूते ही सहजानन्द ने अपनी राजनीतिक छवि का आकार गांधी, नेहरु, बोष और तिलक के समकक्ष खडा किया था। गौरतलब है कि सहजनान्द ने जमींदारी प्रथा के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन किया था और इनके प्रयासों का ही नतीजा था कि आज़ादी मिलने के बाद जमींदारी का पुरे देश से उन्मूलन हो गया और बिहार जमींदारी उन्मूलन करने वाला पहला राज्य बना था। जमींदारी उन्मूलन के बाद ही भारतवर्ष के किसान अपने खेतों का मालिक बहाल हो पाये।
धर्म के क्षेत्र में सहजानंद ने वैसा ही योगदान दिया जैसा दयानन्द और विवेकानन्द का है। उन्होनें धार्मिक मानदंडों से उपर “रोटी” को रखा। वहीं समाज सुधार में सहजानन्द के का अर्थपूर्ण हस्तक्षेप के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने उन्हें ‘दलितों का सन्यासी’कहा है। उन्होने संस्कृत भाषा पर विशेष अधिकार को चुनौति देकर एक समाजिक क्रांति का सूत्रपात किया।जबकि उनकी दर्जनों प्रकाशित पुस्तकों एंव लघु-निबन्धों में एक अन्वेषी पाठक को न सिर्फ सामाजिक क्रांति के पूर्ववर्त्ती आधारभूत विचारों के गहन दार्शनिक चिंतन की छाप मिलती है, बल्कि उन विचारों के वैज्ञाानिक विश्लेषण का ठोस प्रमाण भी मिलता है।धर्म, परंपरा जाति और कर्म की दृष्टि से उनके द्वारा रचित 'गीता हृदय' और 'झूठ, भय मिथ्या, अभिमान 'अत्यन्त ही शोध परक रचना है।चौदह सौ पृष्ठों का 'कर्मकलाप' कर्मकांड संबंधी सबसे बड़ी रचना है। 'मेरा जीवन जीवन संघर्ष' उनकी अनमोल साहित्यक कृति है, जिसमें उनकी आत्म कथा है।यह ग्रंथ अपने समय की सामाजिक और राजनीतिक गतिविधयों का दर्पण है।
दरसल, महान स्वतंत्रता सेनानी, किसान-मजदूर प्रणेता, शास्त्र पारंगत सन्यासी, समाज सुधारक और सबसे बड़े कमर्काण्ड सहित दर्जनों पुस्तकों के लेखक स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने सेवा , वैराग्य और बलिदान को आत्मसाथ करने के साथ ही भारत के राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, साहित्यिक, आर्थिक क्षेत्रों को संगठन, नेतृत्व, क्रांति, धर्म, दर्शन व परंपरा के माध्यम से सींचा हैं। सहजानन्द वह वह सन्यासी हैं जो एक दो नहीं बल्कि कम-से-कम पांच क्षेत्रों में भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान "भारत रत्न" पाने के प्रथम हक़दारों में से एक हैं।
लेकिन दिलचसप तथ्य यह है कि उन्हें "भारत रत्न" देने कि बात अबतक बेजा है ही, आज़ादी के 75 वर्ष बाद भी उन्हें भारत के इतिहास लेखन में उचित स्थान नहीं मिला है। भारतीय इतिहासकारों ने स्वतंत्रता आंदोलन की तीन बड़ी धाराओं में किसान आंदोलन की गिनती करने के बाद भी किसान आंदोलन को कायदे से कुछ-एक पन्नों में समेट दिया है। सहजानन्द के नाम पर भारत का आधुनिक इतिहास मौन है।यही वजह है कि संघर्ष के नायक रहे सहजानन्द के लिए ''भारत रत्न " की मांग के साथ ही उन्हें इतिहास के पन्नों में भी उचित स्थान दिलवाने के लिए उनके अनुआईयों को संघर्ष करना पड़ रहा है।
(लेखक स्वामी सहजानन्द सरस्वती के विचारों के वाहक हैं। हर वर्ष सहजानन्द पर बोधगम्य स्मारिका का प्रकाशन व प्रसार करते हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं )