भारत में कोविड 19 की टीकाकारण नीति इतिहास में दर्ज हो रही है क्योंकि इस अदूरदर्शी नीति के कारण भारत की मासूम जनता त्राहिमाम कर रही है तो दूसरी तरफ केंद्र और राज्यों के सम्बंध को छिन्न-भिन्न कर रखा है। जैसा कि हम जानते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 1 में भारत को राज्यों का संघ कहा गया है। पर अनुच्छेद 2 और 3 केंद्र को सशक्त बनाता है। जब हम वित्तीय शक्ति को देखें तो पातें हैं कि केंद्र सरकार के पास अधिक वित्तीय शक्ति है क्योंकि उनके पास आय के आकर्षक स्त्रोत हैं। संविधान के बारहवें भाग के माध्यम से आयकर,आयात कर,निर्यात कर,कॉर्पोरेट कर केंद्र के पास जाते हैं। यहाँ तक कि जी.एस.टी. का हिस्सा भी राज्यों को सही समय पर नहीं मिल रहा है। राज्यों को केंद्र अनुदान और ऋण के माध्यम से बजट आवंटित करता है। पर कोविड 19 ने इस वित्तीय व्यवस्था को अव्यवस्थित कर दिया है जिसके कारण राज्यों को कोरोना की दूसरी लहर और टीका न मिलने के कारण वहाँ के नागरिक अपनी जान से हाथ धो रहे हैं।
स्वास्थ्य व्यवस्था के इस परिदृश्य में कोरोना की दूसरी लहर केंद्र और राज्यों के संबंधों में कटुता आई है। सहकारी संघवाद कार्यात्मक नहीं दिख रहा है । संविधान की सातवीं अनुसूची के सूची 2 या राज्य सूची के छठे विषय में यह कहा गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता,अस्पताल और औषधालय राज्य सरकार की जिम्मेदारी हैं।लेकिन राज्य अपने संवैधानिक कर्तव्यों को निभाने में संघर्ष करते दिखते हैं क्योंकि बजट,संस्थागत क्षमता ,और स्वास्थ्य प्रबंधन का सही क्रियान्वयन करने में बाधा उतपन्न करता है। राज्य तकनीकी विशेषज्ञता के लिए भी केंद्र सरकार पर निर्भर रहते हैं। यहाँ तक कि केंद्र सरकार ही स्वास्थ्य नीति और कार्यकम बनाती है।जब हम 7वीं अनुसूची के सूची 3 या संयुक्त सूची के 29वें विषय को देखें तो पाते हैं कि संक्रामक या छूत की बीमारी जो येक राज्य से दूसरे राज्य में फैल रही है तब केंद्र सरकार के पास अधिकार है कि नीतिगत तरीके से बीमारी को फैलने से रोके जिससे जान माल की रक्षा हो सके। वहीं 1897 का महामारी रोग अधिनियम जो टाऊन प्लेग की रोकथाम के लिए लाया गया था, वह आज भी उपयोगी है। कोरोना के समय में भी दिल्ली और महाराष्ट्र में इस एक्ट का उपयोग किया गया था । यह एक्ट स्वाइन फ्लू,कॉलरा,मलेरिया, डेंगू के समय लागू किया जाता रहा है। वहीं, आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 को देखें तो पाते हैं कि यह एक्ट नागरिकों के जीवन की सुरक्षा प्रदान करने के लिए बना था जिसका उपयोग समय-समय पर होता रहा है और कोविड 19 के समय भी इसे उपयोग में लिया जा रहा है। इन सभी संस्थानों को वैश्विक महामारी के समय समन्वय बनाकर इस आपदा से मुकाबला करना चाहिए। इसके अलावा अन्य संस्थानों को देखें तो पाते हैं कि संस्थानों के सुझाव भी सरकार नजरअंदाज कर देती है।उदाहरण के तौर पर अक्टूबर 2020 में एक 31 सदस्यीय स्वास्थ्य पर संसदीय स्थायी समिति ने सुझाव दिया कि भारत में कोविड 19 के समय ऑक्सिजन इन्वेंट्री को बढ़ाना और ऑक्सिजन प्राइस कंट्रोल होना चाहिए पर इस समिति के सुझाव को नजरअंदाज कर दिया गया। वहीं मार्च 2020 में नेशनल कोविड 19 टास्क फोर्स के सदस्यों ने कहा कि मिड फरवरी के बाद भारत में कोरोना की दूसरी लहर आ सकती है। पर इसे भी नजरअंदाज कर दिया गया। इतना ही नहीं यह समिति 11 जनवरी 2021 के बाद 15 अप्रैल 2021 तक किसी बैठक को आयोजित नहीं कर सकी जबकि उस समय कोरोना अपने चरम पर था। ठीक इसी प्रकार नेशनल सुपर मॉडल समिति जिसका गठन मई 2020 में हुआ था ,जिसका उद्देश्य था कि गणित का मॉडल विकसित करे ताकि कोरोना के संक्रमण के बारे में नीति निर्धारक को उचित जानकारी और सलाह दे। इन सुझावों के बावजूद भी संस्थाओं को नजरअंदाज करते हुए कुम्भ मेले का आयोजन किया गया और बंगाल में चुनाव भी आठ चरणों में सम्पन्न कराए गए।जबकि कोरोना अपने गिरफ्त में तेजी से भारत की जनता को अपने गिरफ्त में ले रहा था और भयंकर तांडव मचाये हुए था।
वहीं वैक्सीन की उपलब्धता को देखें तो पाते हैं कि जो टीकाकरण अभियान जनवरी 2021 में शुरू हुई थी वह अभी भी बैलगाड़ी की रफ्तार से से चल रही है। इसका मुख्य कारण वैक्सीन की कमी है। भारत सरकार वैक्सीन खरीदने के आर्डर नहीं दे पाई । वैक्सीन खरीदने के लिए राज्यों पर दबाव डाला जा रहा था जिसका नतीजा यह हुआ कि अनेक राज्य सरकार ग्लोबल टेंडर के जरिये वैक्सीन अपने राज्य की जनता के लिए खरीदने के लिए विवश हो रहे थे। पर दुनिया के दो सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता ने पहले ही कह दिया था कि वैक्सीन सिर्फ सेंट्रल गवर्नमेंट एजेंसी को ही देगा। इस परिस्थिति में केंद्र सरकार को ही त्वरित गति से वैक्सीन आर्डर करना चाहिए था वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ,यूनाइटेड किंगडम,जापान ने वैक्सीन मई - जून 2020 में ही ऑर्डर कर दिया था।वहीं भारत सीरम इंस्टीट्यूट को 3000 करोड़ और भारत बायोटेक को 1500 करोड़ का एडवांस 19 अप्रैल 2021 को दिया गया।यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि भारत की टीकाकरण नीति 'मनमानी'और 'तर्कहीन' है क्योंकि केंद्र ने राज्यों से परामर्श नहीं किया। यह परिस्थिति विचलित करती है क्योंकि संघीय प्रणाली बुरी तरह प्रभावित हो रही है। वहीं दूसरी तरफ पंद्रहवें वित्त आयोग के हाई लेवल ग्रुप का सुझाव है कि स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाया जाय।अब इस सुझाव को क्रियान्वित करने की आवश्यकता है। 2019 में भी नीति आयोग ने यह माना था कि भारत के राज्यों में असमान स्वास्थ्य व्यवस्था है। यह असंतुलन इसलिए है क्योंकि तकनीकी विशेषज्ञता और वित्तीय बाधा है।अब समय आ गया है कि स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए केंद्र और राज्य का समन्वय हो ताकि सहकारी संघवाद पर किसी तरह का तनाव न हो और संविधान की जो भावना है उसे भी ठेस न पहुँचे। 21वीं सदी के तीसरे दशक में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार में सम्मिलित किया जाय ताकि आने वाले सर्वव्यापी महामारी और स्वास्थ्य आपातकाल का संस्थाएँ सही से आँकलन कर इसके रोकथाम के लिए त्वरित गति से नीतिगत फैसला ले सकें जिससे जान माल सुरक्षित रहे ।
(ये इनके निजी विचार हैं। लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।)