भारत पिछले 30 वर्षों से अधिक समय से कचरा निस्तारण की समस्या से जूझ रहा है। यहां लगातार यह धारणा स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि कचरा सोना है या कचरा धन है जो शब्द हमारे सामान्य शब्दकोश में शामिल हो गए हैं जबकि यह हमारी नियति बन गई है। आखिर हम इस प्रकार की सोच क्यों विकसित कर रहे हैं जबकि वास्तव में यह बहुत सारे उद्यमियों के लिए एक कीमत (कच्चे माल का नुक्सान ) है ना कि उनके लिए लाभकारी वस्तु. भारत में बड़े पैमाने पर उद्यमी या तो इस समस्या का निराकरण करने में जुटे हैं या फिर इसका सामना कर रहे हैं।
वास्तविकता यह है कि कचरे से धन कमाने का आईडिया पश्चिमी देशों की परिकल्पना है। इसे बहुत चालाकी से हमारी मानसिकता में घुसेड़ दिया गया जिससे कि हम भारतीय कचरे के आकर्षक महत्व को समझ ले की यह बेहद लाभकारी उद्यम है। यह समझा दिया गया कि कचरे को हम अपने लिए सोने में तब्दील कर सकते हैं। हमें कचरे को कीमती उत्पादन में बदलने के लिए कंपोस्ट फर्टिलाइजर, विभिन्न प्रकार की उपयोगी दाने में, बिजली उत्पादन में, पर्यावरण फ्रेंडली ईट तैयार करने में और यहां तक कि प्रदूषण रहित डीजल तैयार करने की विधि बताकर धन कमाने का झांसा दे दिया।
कचरे को मूल्यवान वस्तु में बदलने के विचार ने लंबे समय से पश्चिमी देशों के नीति निर्माताओं और कचरा प्रबंधन उद्योग के विचारकों को बाजार के खेल की ओर आकर्षित किया है। उन्होंने इसे समाज और उद्योग के लिए अकूत धन और पैसे कमाने का बड़ा सटीक रास्ता समझा जिसकी ओर वे आकर्षित हुए।
यह विचार बहस योग्य तो है लेकिन विवादास्पद भी है लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से यह पश्चिमी दुनिया के साथ एक चुटकी नमक के बराबर समझा जाना चाहिए।
ध्यान रखने वाली बात यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका,यूरोप, ऑस्ट्रेलिया और जापान के नेतृत्व में पश्चिमी दुनिया को स्पष्ट रूप से परिष्कृत तकनीकी प्रणाली से (कचरा निस्तारण ) अपशिष्ट प्रबंधन को संभालने का सबसे पहला और सर्वाधिक व्यावसायिक लाभ मिला। उन्होंने इस दिशा में सबसे पहले कदम आगे बढ़ाया और इसका व्यावसायिक लाभ लिया।
दूसरी तरफ चीन ने पश्चिम के साथ देशांतरीय समानता के कारण इस परिकल्पना को अपनाया। हालांकि कुछ ऐसे भी पहलु रहे जिन्होंने पश्चिमी देशों को अपशिष्ट प्रबंधन से एक लाभदायक उद्यम बनाने में सक्षम भी बनाया। उदाहरण के तौर पर कचरे से खाद और ईंधन के साथ साथ बिजली तैयार करना उनके लिए निश्चितरूपेण लाभ का सौदा साबित हुआ।
ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के संबंध में भारत की कहानी बिल्कुल अलग थी। बड़े मजबूत इरादे के साथ भारत ने 1985 में ( कचरे से) अपशिष्ट से उर्जा तैयार करने का संयंत्र लगाया जबकि ठीक उसी समय चीन ने भी यह शुरुआत की।लेकिन आश्चर्यजनक रूप से 2020 में चीन के पास उर्जा और बिजली में कचरे को परिवर्तित करने वाले 434 संयंत्र हैं जबकि भारत के पास अभी भी केवल 7 संयंत्र हैं। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि चीन में कचरे से ऊर्जा तैयार करने की योजना को विस्तार देने के पीछे भूमि का उपयोग करना और कचरे के वैज्ञानिक ऊर्जा रूपांतरण के माध्यम से लैंडफिल में कमी लाना है।
हालांकि भारत और चीन दोनों को पश्चिमी समूहों से पर्यावरणीय प्रभाव प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है। चीन में वित्तीय इंजीनियरिंग के साथ केवल 30 प्रतिशत निजी वित्त पोषण कचरे से ऊर्जा के लिए आवश्यकता होती है और शेष को सब्सिडी और बैंक ऋण के माध्यम से सत्तर प्रतिशत तक वित्तपोषित किया जाएगा।
भारत ने भी कचरे से ऊर्जा के लिए सब्सिडी के रूप में 35 प्रतिशत देने का प्रावधान किया है, लेकिन बैंकों और एनबीएफसी से इस क्षेत्र के लिए ऋण प्राप्त करना बेहद कठिन है. कचरे का बिजली में परिवर्तित न होने का कारण भारतीय कचरे की उच्च नमी सामग्री होना है। साथ ही इस तकनीकी कारक के कारण कम तापमान पैदा होना भी है। जाहिर है चीन में भी कम नमी और कम ताप दर है लेकिन उसने अपने सभी प्रमुख शहरों और कस्बों में इसे रीसर्कुलेट करने के लिए तकनीकि महारत हासिल कर ली है।
यदि भारत कचरा निस्तारण के लिए विकसित प्रौद्योगिकी प्राप्त करने में सक्षम हो जाए तो निजी उद्यमी और सरकार दोनों के लिए धन कमाने का यह बड़ा माध्यम साबित हो सकता है। इनकी आमदनी में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है। उद्यमी के लिए निवेश पर प्रतिफल घातीय होगा क्योंकि कचरे से बिजली रूपांतरण से तीस प्रतिशत से अधिक की दर से वापसी होगी।(कचरे) अपशिष्ट से ऊर्जा के लिए लगभग 16.6 हेक्टेयर भूमि की आवश्यकता होती है जो भारत के शहरों के लिए 10000 हेक्टेयर भूमि को बचा सकता है।
धन का अन्य स्रोत या कथित धन है कचरे का खाद या जैविक। खाद में रूपांतरण। भारत में यूरिया डीएपी जैसे उर्वरक के बजाय ठोस कचरे से निर्मित खाद का उपयोग करने के लिए किसानों को समझाना बहुत कठिन है क्योंकि किसान इन उर्वरकों का उपयोग करने का अभ्यस्त हो चुका है और खाद का उपयोग करने के लिए बेहद अनिच्छुक हैं। हालांकि इससे मिट्टी की स्थिति में सुधार हो सकता है जबकि उर्वरक क्षमता को मजबूत बना सकता है।
स्वच्छ भारत मिशन के तहत भारत सरकार ने किसानों को बेची जाने वाली खाद के लिए 1500 रुपये प्रति टन की सब्सिडी भी दी है। यह उद्यमियों और कंपनियों के लिए अच्छी कमाई है क्योंकि खाद की उत्पादन लागत नब्बे पैसे प्रति किलो है जिससे उद्यमी को लगभग साठ पैसे प्रति किलो का लाभ मिलता है। रिफ्यूज व्युत्पन्न ईंधन या हरे कोयले की बिक्री और प्लास्टिक के कचरे को दानों और डीजल में बदलने के माध्यम से भी पैसे कामये जा सकते हैं ।राम की हरि भरी और जिंदल जैसी कुछ कंपनियां भारत में अपशिष्ट व्युत्पन्न ईंधन का उत्पादन कर रही हैं जिसका उपयोग सीमेंट निर्माताओं द्वारा वैकल्पिक ईंधन या एएफआर के रूप में किया जा सकता है। .
नीदरलैंड और स्वीडन जैसे पश्चिमी देशों की तुलना में जहां 50 प्रतिशत से अधिक थर्मल या कोयले को वैकल्पिक ईंधन जैसे रिफ्यूज व्युत्पन्न ईंधन से बदल दिया गया है, भारत में यह प्रतिशत पाँच प्रतिशत से भी कम है। इस प्रतिशत को बढ़ाने से उद्यमियों के लिए आय में वृद्धि हो सकती है क्योंकि अपशिष्ट रूपांतरण का ध्यान हरे कोयले या अपशिष्ट से प्राप्त ईंधन पर स्थानांतरित हो जाएगा।
इस क्षेत्र में आय बढाने का एक अन्य पहलू प्लास्टिक के रूपांतरण के माध्यम से भी हो सकता है जो कुल नगरपालिका ठोस कचरे का 6 प्रतिशत से अधिक है। वर्तमान में अधिकांश प्लास्टिक लैंडफिल और डंप साइट में भेजे जा रहे हैं। अधिकांश प्लास्टिक कचरे को कबारी समुदाय द्वारा नियंत्रित किया जा रहा है जो खुद को जीवित रखने के लिए एकत्रित प्लास्टिक को कंपनियों को बेचता है। इस समुदाय के लिए आय का स्रोत उत्पन्न करने के लिए वास्तव में (कचरा मूल्य )अपशिष्ट मूल्य श्रृंखला कैसे बनाया जाए यह बड़ा सवाल है।
प्लास्टिक को डीजल और ग्रेन्युल में परिवर्तित किया जा सकता है और बॉयलर के उपयोग के लिए बाजार में बेचा जा सकता है। उनकी मदद करने और समुदाय और पर्यावरण की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा सामुदायिक भागीदारी मॉडल बनाए जा सकते हैं।
(लेखक सुजय झा हरी भरी वेस्ट वैलोराइजेशन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड संस्था के निदेशक हैं)