लगभग तीन दशकों से भारतीय राजनीति को मथ रहे अयोध्या विवाद को खत्म करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने सर्वानुमति से सुना दिया। करीब 1,045 पन्नों के फैसले का निचोड़ यह है कि तोड़ी गई बाबरी मस्जिद की 2.77 एकड़ जमीन पर राम मंदिर बनाया जाए, जहां मुकदमे के एक पक्षकार रामलला विराजमान हैं। मंदिर निर्माण के लिए केंद्र सरकार तीन महीने में एक न्यास की स्थापना करेगी जिसमें मुकदमे के तीसरे पक्षकार निर्मोही अखाड़ा को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाए। निर्मोही अखाड़े का पक्ष खारिज कर दिया गया क्योंकि भगवान राम उनके इष्ट देव नहीं हैं। और, अहम स्थान पर मस्जिद निर्माण के लिए केंद्र या राज्य सरकार 5 एकड़ जमीन मुहैया कराएगी। लेकिन इस फैसले का जमीनी आधार क्या है, इसकी अलग-अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं।
दरअसल, संविधान पीठ इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाई कि बाबरी मस्जिद के पहले वहां कोई और पूजास्थल मौजूद था। उसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की खुदाई से मिले अवशेष भी इस निष्कर्ष पर नहीं ले गए। न ही वह यह नतीजा निकाल पाई कि मस्जिद में नमाज नहीं पढ़ी जाती थी और उसे छोड़ दिया गया था। अलबत्ता पीठ इस तथ्य तक पहुंची कि कई दशकों से मस्जिद के भीतर नमाज और बाहर पूजा-अर्चना दोनों होती थी। यह क्रम 1949 में रामलला की मूर्ति रख दिए जाने से टूटा। अदालत ने 1992 में मस्जिद तोड़े जाने को गलत बताया और उस गलती पर अंकुश जड़ने की जरूरत बताई। इसका मतलब यह हो सकता है कि बाबरी मस्जिद विध्वंस का मामला कायम रह सकता है। अदालत ने यह जरूर कहा कि राम जन्मभूमि के बारे में हिंदुओं की आस्था निर्विवाद है। हालांकि यह भी कहा कि आस्था व्यक्तिगत मामला है। ऐसे में लगता है कि फैसले के निचोड़ पर ये आधार पर्याप्त नहीं है। फिर अदालत ने यह भी गौर किया कि सीता की रसोई, राम चबूतरा और भंडार गृह जैसे स्थलों से हिंदुओं की आस्था को बल मिलता है। इसलिए अदालत विवाद निपटाने के बेहतरीन उपायों की ओर बढ़ गई। हालांकि उसने इलाहाबाद हाइकोर्ट के समूची जमीन के तीन हिस्से करके तीनों पक्षकारों में बांटने के फैसले को नहीं माना, जो किसी पक्ष को स्वीकार्य नहीं था। शायद इसी वजह से सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जफरयाब जिलानी पुनर्विचार याचिका दाखिल करने की बात कर रहे हैं।
बेशक, इस फैसले से भाजपा और संघ परिवार के नेता खुश हैं और जय-पराजय से आगे जाकर सोचने की बात कहने के बावजूद इसे अपनी जीत की तरह ही पेश कर रहे हैं। सवाल यही है कि क्या अयोध्या या कहें बहुसंख्यकवादी राजनीति की उग्रता का इसके साथ पटाक्षेप होगा या इसके नए रूप उभर आएंगे? यहां वह पुराना नारा याद कर लेना बेजा नहीं कहलाएगा कि अयोध्या तो झांकी है, काशी-मथुरा अभी बाकी है। इसके अलावा इस तरह के और दावे भी याद किए जा सकते हैं। अगर हाल के दौर में बहुसंख्यकवादी राजनीति और कथित राष्ट्रवाद पर जोर पर गौर करें तो शायद इसके कुछ सूत्र खुल सकते हैं।
बहरहाल, फैसला अगर राजनीति और लोकतांत्रिक माहौल को संतुलित कर पाए तो बेहतर होगा। लेकिन यह भी देखना अहम है कि अल्पसंख्यकों का एक बड़ा वर्ग आहत होता है तो यह संतुलन कायम हो पाना संभव नहीं है। यह संतुलन कायम करने की चिंता शायद अदालत के अयोध्या में मस्जिद निर्माण के फैसले में भी पढ़ी जा सकती है। लेकिन राम मंदिर की मुहिम चलाने वालों के उन बयानों को याद करें तो कुछ सवाल खड़े हो जाते हैं कि अयोध्या से दूर ही कहीं मस्जिद बनाई जा सकती है। फैसले के बाद अगर भाजपा और संघ परिवार के नेताओं पर गौर करें तो वे सुप्रीम कोर्ट के आदेश के सम्मान की बात तो कहते हैं लेकिन मस्जिद के मामले में कुछ कूटनीतिक-सा रवैया अपनाए हुए हैं। उम्मीद यही की जानी चाहिए कि यह राजनीति अब थमे और राजनीति अब स्वाभाविक धरातल पर लौटे, जिसमें लोगों की जिंदगी से जुड़े असली मुद्दों की बात हो।