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मेरे पिता : 'बोगड़ पहलवान' का खानदान

महावीर सिंह फोगाट   पिता : चौधरी मान सिंह फोगाट   तीन पीढ़ियों से कुश्ती हमारे खून में बसती है। 40...
मेरे पिता : 'बोगड़ पहलवान' का खानदान

महावीर सिंह फोगाट 

 पिता : चौधरी मान सिंह फोगाट

 

तीन पीढ़ियों से कुश्ती हमारे खून में बसती है। 40 साल तक गांव बलाली के नंबरदार रहे मेरे पिता चौधरी मान सिंह फोगाट अपने समय के अच्छे पहलवान थे, जिन्हें लोग ‘बोगड़ पहलवान’ नाम से जानते थे। हरियाणवी में यह उपमा बहुत ताकतवर व्यक्ति को दी जाती है। मेरे पिताजी का मुकाबला ओलिंपिक खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करने वाले लीला राम जैसे नामी-गिरामी पहलवान से होता था। पेशेवर पहलवान होने का मकसद सेना या पुलिस में भर्ती होने पर पूरा हो जाता। सेना में भर्ती के बाद लीला राम की पहलवानी भी रुक गई और मेरे पिता जी गांव से आगे अपने जौहर को नहीं ले जा पाए। पर उन्होंने मुझे दिल्ली के सिविल लाइंस में स्थित मास्टर चंदगीराम अखाड़े में इस मकसद से उतारा कि इससे मुझे सरकारी नौकरी मिल जाएगी।

 

तीन साल के इंतजार के बाद मुझे एक नहीं बल्कि दो सरकारी नौकरियां मिलीं पर 15 दिनों के अंतराल पर मैंने दोनों ही छोड़ दीं। पिताजी बहुत नाराज हुए। पहलवानी मेरे दिलो-दिमाग पर इस कदर छाई थी कि नौकरी के बजाय मैंने खेती की और पहलवानी छूट गई। इस बीच प्रॉपर्टी के बिजनेस में हाथ आजमाने के लिए गांव से जब दिल्ली जाने का फैसला किया तो पिताजी हिचकिचा रहे थे क्योंकि परिवार में इससे पहले किसी ने बिजनेस नहीं किया था। खैर, पिताजी मान गए और बिजनेस के लिए उन्होंने मुझे 16,000 रुपये भी दिए। बिजनेस की वजह से कुश्ती पीछे छूट गई पर दंगल प्रतियोगिताओं में बतौर मेहमान जाना जारी रहा।

 

साल 2000 के सिडनी ओलंपिक के बाद सब कुछ बदल गया। घर के अहाते में ही अखाड़ा तैयार किया और हम पांच भाइयों के परिवार के 12 बच्चों, जिनमें से पांच लड़कियां थीं, सबको कुश्ती के अखाड़े में उतार दिया। लड़कों के साथ लड़कियों को कुश्ती के अखाड़े में भिड़ाने का मेरे पिता ने भारी विरोध किया। उस समय पूरा गांव भी मेरे खिलाफ था। मुझे पागल तक कहा। इससे पहले तक मैं भी कुश्ती को लड़कों का खेल समझता रहा पर 90 के दशक में मेरे गुरु मास्टर चंदगीराम ने अपनी दोनों बेटियों दीपिका और सोनिका कालीरामन को कुश्ती के अखाड़े में उतारा था। 

 

पहली बार वर्ष 2002 में मेरी सबसे बड़ी बेटी गीता और उससे छोटी बबीता ने गांव से 40 किलोमीटर दूर द्वारका गांव के दंगल में लड़कांे के साथ मुकाबला किया। 2003 में 18 वर्ष की उम्र में गीता ने महिलाओं की सीनियर नेशनल चैंपियनशीप में जब गोल्ड मेडल जीता तो पिताजी का रुख कुछ नरम पड़ा। गीता के नक्शे कदम पर बबीता भी आगे बढ़ी। छोटी बेटी रितु और भतीजियां विनेश और प्रियंका भी वर्ष 2009 तक कुश्ती की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में गोल्ड मेडल जीतने लगीं। 7 अक्टूबर 2010 का दिन हमारे परिवार के लिए ऐतिहासिक दिन रहा। कॉमनवेल्थ खेलों में गोल्ड मेडल जीतने वाली पहली महिला कुश्तीबाज बनकर गीता ने इतिहास रच दिया।

 

पिताजी की प्रेरणा से गांव के दंगल से लेकर 2012 और 2016 में ओलिंपिक तक के सफर में फोगाट परिवार शायद देश का इकलौता ऐसा परिवार है जिसमें एक द्रोणाचार्य और 3 महिला कुश्तीबाज अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित हैं। 2016 में भतीजी विनेश को अर्जुन पुरस्कार मिल रहा था, मुझे द्रोणाचार्य पुरस्कार। बेटियों की उपलब्धियों को लोग ‘बोगड़ पहलवान’ के असर के रूप में देखते हैं। 

 

(द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता जिनके जीवन पर आधारित आमिर खान की ‘दंगल’ फिल्म प्रेरित है। हरीश मानव से बातचीत पर आधारित)

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