आज 31 अगस्त को घुमंतू समुदायों का विमुक्ति दिवस है। पिछले दिनों बूंदी (राजस्थान) में बारिश ने पूरे जीवन को रोक दिया था। चारों तरफ शहर में पानी भर गया था। मंडी के समीप बने शिव मंदिर के सामने बनी दुकानों के बरामदों में करीब 60 -70 लोग बैठे हुए थे। इनमें बूढ़े बुजुर्ग, विधवा ओर गर्ववती महिलाएं, बच्चे, बकरी- भेड़, कपड़े की पोटलिया, कुछ मिट्टी के बर्तन तथा दो- चार गधे भी थे। इनके पास जरूरत के समान मात्र थे। इन लोगों का बारिश में रात्रि ठिकाना यही था क्योंकि इनके तम्बुओं में पानी भर गया था, लेकिन जिला पुलिस 15 अगस्त के समारोह के कारण उन्हें भगा दिया। बूंदी से 6 किलोमीटर दूरी पर रामनगर कंजर बस्ती में भी पुलिस ने गस्त बढ़ा दी, जिसका बस्ती वाले ने विरोध किया जबकि पुलिस को आशंका है कि ये लोग असामाजिक गतिविधियों में लिप्त रहते हैं।
अजीब विडम्बना है आज़ादी के 74 वर्ष बीतने के बाद भी घुमन्तु समुदायों की पहचान चोर की ही है। 31 अगस्त घुमन्तु समुदायों विमुक्ति दिवस के रूप में मानते हैं क्योंकि इसी दिन इन्हें अंग्रेजों ने 1871 में जन्मजात अपराधी कानून बनाकर चोर घोषित कर दिया था।
कौन है ये लोग?
ये लोग घुमन्तु समुदायों से सम्बंधित हैं जो अपना जीवन घूमते हुए बिता देते हैं। इनके पास सृजित ज्ञान की अथाह पूंजी है। कोई मिट्टी का जानकार है किसी के पास जड़ी बूटी का ज्ञान है कोई पानी का प्रबन्धनकर्ता है तो कोई संगीत से जुड़ा है तो कोई कलाबाजी दिखलाता है। मतलब सभी घुमन्तु समुदाय किसी विशिष्ट ज्ञान के प्रकार हैं। हिंदुस्तान में 1200 से ज्यादा घुमन्तु समुदाय हैं। जिनकी आबादी हमारी कुल आबादी का 10 फीसदी ( रैनके आयोग- 2008) है।
भारत को भले ही 15 अगस्त 1947 को आज़ादी मिली हो किंतु अभी तक 190 घुमन्तु समुदायों के सर पर जन्मजात अपराधी होने का तमका लगा था। तात्कालीन सरकार ने 31 अगस्त 1952 को इस तमके से तो इन्हें मुक्त कर दिया जिसे विमुक्ति दिवस के रूप में मनाया गया किन्तु ये आज़ादी भी झूंठी निकली भारत सरकार ने एक अन्य कानून अभ्यस्त आपराधिक कानून बना दिया। जहां पहले वाला कानून व्यक्ति को जन्म से अपराधी मानता है वहीं बाद वाला कानून कहता है कि वो जन्म से अपराधी नहीं हैं, बस अपराध करने के लिए अभ्यस्त हैं।
अंग्रेज एक व्यापारिक कम्पनी के रूप में आये थे जिनका लक्ष्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना था। इसके लिए यहां के परम्परागत व्यवसायों ओर जीवन- संस्कृति को बदलना जरूरी था। उन्हें अपनी रेल सेवा 1853 को सफल बनाना था। 1829 के कानून के जरिये फारेस्ट को भी कमोडिटी बना दिया था। इसलिए इसके लिए मोबिलिटी पर रोक लगाना आवश्यक था। जिसकी परिणति जन्मजात अपराधी कानून- 1871के रूप में हमारे सामने आई लेकिन भारत सरकार ने आज 2021 में भी किन कारणों से इनको अभ्यस्त आपराधिक कानून के अंदर रखा हुआ है।
समानता की बात नहीं
भारत का सविधान सभी की समानता की बात करता है। सभी के लिए स्वतंत्रता की बात करता है। यहां तक कि हमारा आपराधिक न्यायिक तंत्र कहता है कि कोई भी व्यक्ति तब तक दोषी नहीं हैं जब तक कि उसका अपराध सिद्ध नहीं हो जाता किन्तु ये सभी सिद्धान्त घुमन्तु समुदायों पर लागू नहीं होते जिनको जन्म लेते ही अभ्यस्त अपराधी कानून उनके ऊपर लग जाता है। ये कानून तो सविंधान की आत्मा के एकदम विरोधी है। इस कानून ने तो न्याय के सिद्धान्त को ही बदल दिया। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तथा कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के निरन्तर कहने के बावजूद ये कानून आज तक लागू है।
आज़ादी के बाद हमने विभिन्न कानूनों के जरिये इनके जीवन को रोक दिया। वन्य संरक्षण अधिनियम- 1971 बनाकर इनके बन्दर, भालू, सांप इत्यादि सभी जीवों पर रोक लगा दी जबकि हिमाचल सरकार बन्दर को मारने का 1 हज़ार रुपये इनाम देती हैं क्योंकि वो फलों की खेती को बर्बाद करता है जबकि मदारी लोग बन्दर को नचा नहीं सकते ऐसे ही बिहार व उत्तर प्रेदेश की सरकारें समय समय पर निल गाय तथा जंगली सुवर को मारने का आदेश जारी करती हैं।
भारत सरकार ने फारेस्ट राइट एक्ट बनाकर इन समुदायों के जंगल मे जाने पर रोक लगा दी। जबकि इन समुदायों के पूरा जीवन इन्ही जंगलों पर टिका है। फारेस्ट राइट एक्ट में सुधार करते हुए सरकार ने कहा कि आदिवासी लोग जंगल से सीमित उत्पाद ला सकते हैं चूंकि घुमन्तु समुदायों को ज्यादा करके ओबीसी या फिर एससी की श्रेणी में रखते हैं उनको आदिवासी की श्रेणी में नहीं रखा जाता जिसके कारण वो इस अधिकार से भी वंचित रह गए। अकेले राजस्थान में 32 घुमन्तु समुदाय हैं किंतु एक भी समुदाय आदिवासी की श्रेणी में नहीं हैं। ऐसे ही हरियाणा में 27 घुमन्तु समुदाय हैं किंतु एक भी आदिवासी की सूची में नहीं आता।
इतना ही नहीं भारत सरकार ने एन्टी बेग्गिंग एक्ट बनाकर इन समुदायों के मेलों, मजमों ओर खेल तमाशे को भीख की सूची में रख दिया और उसके प्रदर्शन को गैर कानूनी बना दिया। अब नट रस्सी पर नहीं चल सकता, बहुरूपिया अलग अलग रूप बनाकर लोगों का मनोरंजन नहीं कर सकता। कलन्दर अपने मनके ओर नाम राशि की माला नहीं बेच सकता, भोपा रावण हत्था नहीं बजा सकता जबकि विदेशों में एक आर्टिस्ट स्पेस होता है जहां आर्टिस्ट अपनी कला को दिखा सकता है। ऐसा भारत मे क्यों नहीं है?
दयनीय स्थिति
घुमन्तु समुदाय पूरी दुनिया के सबसे बदनसीब लोगों में हैं। उन्हें दुनिया के किसी भी देश मे पहचान नहीं मिली है। यूरोप से लेकर लेटिन अमेरिकी देशों की यही स्थिति है। कभी फ्रांस उनको देश से बाहर निकालने की बात करता है तो कभी स्पेन ओर इटली कोई मुद्दा उठाते हैं। भारत मे घुमन्तु समुदाय सबसे ज्यादा सताए हुए लोग है। उनके पास न पहचान के पूरे दस्तावेज हैं और न ही उनकी मांग उठाने वाला कोई नेता।
वे लोग बुढापा ओर विधवा पेंशन से लेकर, बीपीएल राशन कार्ड, आंगनवाड़ी, जाति प्रमाण पत्र, ओर आवास जैसी बेसिक जरूरतों से बेदखल हैं। उनके जीवन के आधार मेले - महोत्सवों को इवेंट कम्पनियों को दे दिया है। भले वो विश्व प्रसिद्ध पुष्कर मेला हो या फिर जैसलमेर का मरु महोत्सव। उनके अधिकांश पशु मेलों को समाप्त कर दिया गया जैसे मालवा में लगने वाला रामपुर का प्रसिद्ध मेला।
क्या खोयेंगे
हम ये भूल गए हैं कि हम उनके हुनर ओर विभिन्न कलाओं को सम्मान दे सकते हैं। ये ख़ास हुनर किसी किताब में पढ़कर या डिग्री डिप्लोमा में नहीं मिले हैं बल्कि सदियों की मेहनत से सीखे गए हैं। ये तभी तक बचेंगे जब वो लोग बचेंगे। उनके बचने की पहले शर्त उनको इंसान होने का दर्जा देना है। उनको भी समान नागरिक अधिकार देने से है।
(लेखक घुमन्तु समुदायों के लिए काम करने वाली संस्था ‘नई दिशाएँ’ के संयोजक हैं। यह उनके निजी विचार हैं)