अब आदिवासी समाज के सामने जीने-मरने की स्थितियां सामने आने लगीं हैं तो आदिवासी समाज का कहना है कि उन्हें पंजाब-हरियाणा के सब्सिडीयुक्त चावल की बजाय उनके अपने जंगल का भोजन दिया जाए।
जंगल की नीतियों में बदलाव और बाजार की नीतियों का असर आदिवासियों की आबादी पर दिखाई पड़ने लगा है। देश में पांच वर्ष से कम उम्र के 1 करोड़ 1 लाख किसी तरह अपनी परंपरा को कायम रखने वाला दूरदराज घने जंगलों और पहाड़ों में बसा आदिवासी समुदाय अब आधुनिक बाजार व्यवस्था से अनजान नहीं रहा। अब ये लोग मिश्रित फसलों की बजाय नकदी लाभ वाली फसलों की खेती करने लगे हैं। पहले इनकी अपनी फसलें, जंगल से आने वाली अपनी फल – भाजियां थीं लेकिन हैरानी की बात है कि खत्म होने के कगार पर इनका परंपरागत जंगली भोजन अब नुमाइश में रखा जाने लगा है। ओडिशा के लिविंग फार्म संस्था के सदस्य देबजीत सारंगी बताते हैं, कि जंगली भोजन को रोमांटिक और अनोखा भोजन बताकर शहरवासियों को न परोसा जाए। इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए, अब यह किसी के जीने-मरने का सवाल है। देबजीत का कहना है कि मध्य भारत के आदिवासी इलाकों में जहां-जहां जंगल और खेती से छेड़छाड़ नहीं की गई है वहां-वहां आदिवासी खेती से सालाना 350 से ज्यादा प्रकार की फसलें और जंगल से 450 से ज्यादा तरह के फल-सब्जी इक्ट्ठा कर लेते हैं। यही नहीं जंगल के बारे में जितना आदिवासी जानता है उतना और को नहीं। इस संकट से उबरने के लिए पर्यावरण, कृषि और खाद्य मंत्रालय को मिलकर नीतियां तय करनी होंगी। इस संकट की एक बड़ी वजह आदिवासियों का पलायन और खनन भी है। आदिवासी समाज में भुखमरी इसलिए बढ़ रही है क्योंकि आदिवासी को जिस जंगल से पोषक भोजन मिल रहा था अब वो जंगल वैसा नहीं रहा। अब जंगल मानव निर्मित हो रहा है। जंगल से जैव विविधता भी खत्म हो रही है।
आदिवासियों के इस पोषक भोजन के मसले पर बात करें तो अनगिनत ऐसे खाद्य पर्दाथ हैं जो अब खत्म होने के कगार पर हैं। झारखंड के रूपम अभिव्यक्ति फाउंडेशन के कृष्ण कांत बताते हैं कि आदिवासी समुदायों द्वारा की जाने वाली खेती पूरी तरह से आदिम खेती थी। उनकी संस्था की ओर से कोशिश की जा रही है कि आदिवासी बच्चों को उस भोजन के फायदे बताए जाएं, जो खत्म हो रहे हैं और उसकी खेती कायम रखने के लिए सुविधाएं उपलब्ध करवाई जा रही हैं। खासकर बीज। जैसे ओडिशा के रायगढ़ में कोदो, सांवा (चावल), कंगनी (खीर वाला चावल) की पैदावार बहुत कम चुकी है। आंध्र प्रदेश की आदिवासी महिला हाएमावती बताती है कि यहां से काला चावल, मिट्टू पाड़ी (लाल चावल) खत्म हो रहा है। सुंकरा जिसे गुड़ के साथ मिलाकर मिष्ठान बनाया जाता है, वह लगभग खत्म हो चुका है। इसमें बड़ी मात्रा में लौह तत्व होते हैं। एक प्रकार की जड़ नागली दुंजा ओलूओ (जंगली सब्जी) और सिमुली भी खत्म होने के कगार पर हैं। क्योंकि जैववविधिता खत्म हो रही है। मौसम में बदलाव, खेती करने वाली महिलाओं के लिए क्रैश न होना। जमीनों के आकार छोटे होना भी इस संकट की वजह है।
मध्य भारत में आदिवासियों के इस खाद्य संकट पर गहन अध्ययन करने वाले विकास संवाद के निदे्शक सचिन जैन का कहना है कि स्थानीय ग्रामीण जनजातीय समुदायों के लिए जल, जंगल, जमीन उनकी खाद्य सुरक्षा और जीवन का आधार रहा है। लंबे समय से जंगल के अंदर रहने वाले समुदायों की जमीन और जंगल पर आश्रित आजीविका दोनों संकट में है। आदिवासी इलाकों में स्थानीय जल, जंगल और जमीन के जरिये खाद्य और पोषण की जरूरतें पूरी होती रही हैं। कुछ साल पहले तक इन इलाकों में कुपोषण से मौतें नहीं होती थी। लेकिन आज यहां स्थितियां गंभीर है। इन आदिवासी इलाकों में सिंचाई की सुविधाएं नहीं हैं। जमीन ऊंची-नीची और पहाड़ी है। इन असिंचित इलाकों में रागी, कोदो, कुटकी, सांवा, दलहन जैसे मोटे अनाजों की फसलें उगाई जाती हैं। आहार विशेषज्ञ इन अनाजों को भोजन में शामिल करने की सलाह आज दे रहे हैं, जबकि आदिवासी समाज इनका सेवन सदियों से कर रहा है। जिसकी बदौलत हमेशा स्वस्थ रहता था। खेती के अलावा पूरे साल की खाद्य सुरक्षा भी निश्चित कर ली जाती थी। अब जंगल आधारित वस्तुएं 75 प्रतिशत से अधिक कम हो गई है। जिसका नतीजा है कि आदिवासी समुदायों में पोषण आहार की कमी हो रही है और कुपोषण एवं रोगों का फैलाव हो रहा है।
सचिन जैन का कहना है कि मध्य प्रदेश में ३६ फीसदी आदिवासी अंडे खाते हैं। विकास संवाद की ओर से सरकार को प्रस्ताव दिया गया था कि पीडीएस में आदिवासियों को अंडे परोसे जा सकते हैं लेकिन राज्य सरकार ने तर्क दिया कि मध्य प्रदेश एक शाकाहारी प्रदेश है। जबकि प्रदेश में ९६ फीसदी आदिवासी मांसाहारी हैं। झारखंड के पहाड़िया, मध्य प्रदेश के बैगा या कोरकू कोई भी हों वे बकरे, खरगोश, जंगली मुर्गा, केकड़ा, मछलियां, तीतर, होल्गी आदि का मांस खाते हैं। लेकिन अब ये चीजें भी उन्हें उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। इसके अलावा इनके घर कुल्हाड़ी, दूध एवं दही रखने के लिए दोहनी, रोटी बनाने के लिए कयड़ी या लोयटी, ऊखल, मूसल, टोकनी, चक्की, अनाज मापने के लिए पाई या कुड़ा, अनाज रखने के लिए मिट्टी या बांस की कोठी, आदि सब रहती थी। खेती से उपज कम होने और साल भर की खाद्य सुरक्षा न होने से इन आदिवासी समुदायों को अपने गांव से दूर जाकर सालाना आधार पर मजदूरी करनी पड़ रही है। जिसकी वजह से ये खालस दूध उत्पादों से भी वंचित होते जा रहे हैं। इन सबका असर इनके बच्चों पर भी पड़ रहा है। उपरोक्त संकट पर ओडिशा से सांसद जय पांडा का कहना है कि वे इस मुद्दे पर तमाम सांसदों और आदिवासी समुदाय के मंत्रियों को इक्ट्ठा कर जल्द काम शुरू कर रहे हैं। क्योंकि यह समस्या अब गंभीर हो चुकी है।
खत्म होने की कगार पर भोजन
भारत में बच्चों की कुल आबादी में से 5 वर्ष से कम उम्र के 1.5 करोड़ बच्चे आदिवासी हैं। इनमें से 54 फीसदी कुपोषण का शिकार हैं। कारण है कि जिन जंगली फल-सब्जियों का सेवन वे सदियों से कर रहे थे, जिनसे इन्हें पोषत तत्व मिलते थे, अब वे इन्हें नहीं मिल रहे हैं।
भोजनजोखत्महोनेकेकगारपरहै - बाजरे की परंपरागत किस्म, गोंदली, सांवा, कंगनी, कोदो, केसू, काला चावल, लाल चावल ( ये सभी परंपरागत चावल की किस्में हैं।) नाजा, ओलुओ, नाजा बीची, सुंकरा, मंडिया, सलहार, ज्वार, बाजरा, मक्का, काला मक्का रमतीला, जगनी, बेड़ाली माकड़ी, बनकुंदरी, काकरोल, तीसो (सब्जियां), कोनार साग और पेड़ों पर लगाने वाला हरा साग भी खत्म हो रहा है।
भारत के आदिवासी राज्यों में कुपोषित बच्चों की स्थिति (फीसदीमें)
आदिवासी जनसंख्या - कुपोषित बच्चे - गंभीररूपसेकुपोषितबच्चे
आंध्रप्रदेश- 59 लाख 55.1 - 32.6
छत्तीसगढ़ 7.8 52.9 28.9
गुजरात 8.9 59.8 31.0
झारखंड 8.6 55.1 28.7
महाराष्ट्र 1.5 करोड़ 60.2 33.7
ओडिशा 9.6 57.9 29.3
राजस्थान 9.2 49.3 33.1
पश्चिमीबंगाल 5.3 52.3 20.0