ये शिकायतें सुनने में बहुत आम सी लगती हैं मगर हकीकत यह है कि ये सारी परेशानियां आमतौर पर बच्चों की आंतों में कीड़ा या कृमि (वर्म) होने के कारण सामने आती हैं। इस समस्या का इलाज बेहद आसान है मगर आमतौर पर माता-पिता इस समस्या को गंभीरता से ही नहीं लेते। वैसे सच्चाई तो यह है कि समाज के गरीब तबके को तो इस बारे में पता भी नहीं होता जबकि इस समस्या से सबसे अधिक पीडि़त यही तबका होता है। पैसे वाले मां-बाप तो फिर भी बच्चों को समय-समय पर दवा खिलवाते रहते हैं मगर गरीब बच्चों के पास ऐसी कोई सुविधा नहीं होती। गैर सरकारी संगठन एविडेंस एञ्चशन की भारत निदेशक प्रिया झा के अनुसार भारत के अधिकांश राज्य अपनी घनी आबादी और आमतौर पर नम रहने वाले वातावरण के कारण इन कृमियों के प्रसार के लिए आदर्श हैं और इसलिए यह समस्या भी इन राज्यों में ज्यादा है। झा बताती हैं कि भारत में 1 से 14 साल की उम्र के 24.1 करोड़ बच्चे आंतों में कृमि के संक्रमण से ग्रस्त हैं जो कि देश में बच्चों की कुल आबादी का 68 फीसदी हिस्सा है। पूरी दुनिया में परजीवी कृमि से संक्रमित बच्चों का यह 28 फीसदी हिस्सा होता है। जाहिर है कि समस्या गंभीर है। प्रिया झा के अनुसार सघन अध्ययनों से यह भी सामने आया है
बच्चों की डॉक्टर और चंडीगढ़ पीजीआई की रजिस्ट्रार रह चुकीं डॉ. भारती झा के अनुसार सरल शब्दों में कहें तो पेट में परजीवी की तरह पड़े रहने वाले ये कीड़े आपके बच्चे का अधिकांश पोषण खुद हड़प जाते हैं जिसका नतीजा बच्चों में खून की कमी, कुपोषण और शारीरिक-मानसिक विकास में कमी के रूप में सामने आता है। इसके सामान्य लक्षणों में बच्चों को भूख न लगना या बच्चों को अत्यधिक भूख लगना मगर उस अनुपात में उनका वजन न बढऩा, बच्चों का पेट असामान्य रूप से बढऩा और बच्चों में खून की कमी के कारण थकान आदि का होना शामिल हैं। इसके अलावा मल मार्ग में खुजली भी इसका लक्षण है। दो अन्य लक्षण हालांकि वैज्ञानिक रूप से पुष्ट नहीं हैं मगर उनसे भी कीड़े की आशंका जताई जताई है, इनमें से एक है बच्चे का गंदगी या मिट्टी खाना और दूसरा नींद में दांत किटकिटाना। डॉ. झा के अनुसार आमतौर पर इस समस्या से ग्रस्त बच्चे पढ़ाई में एकाग्रचित्त नहीं हो पाते हैं। कृमि और अंडों की संख्या बहुत अधिक हो जाए तो आंत में एक तरह का जाल बना देते हैं, तब बच्चों को अत्यधिक रक्तस्राव की आशंका रहती है। इसके अलावा दुर्लभ मामलों में मस्तिष्क में भी कीड़े के अंडे पहुंचने की घटनाएं सामने आई हैं जिससे बच्चों में दौरे पड़ने लगते हैं। बच्चे के एक वर्ष का होने के बाद उसके इस तरह के कृमि संक्रमण में आने का खतरा बढ़ने लगता है क्योंकि जन्म के बाद से लेकर करीब 10 महीने तक बच्चा अधिकांशत: किसी न किसी की गोद में रहता है इसलिए जमीन से होने वाले कृमि संक्रमण से वह बचा रहता है। मगर इसके बाद वह घुटनों के बल चलने और लुढक़ने लगता है तब संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
प्रिया झा के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन बताते हैं कि 5 वर्ष की उम्र से लेकर 15 वर्ष तक की उम्र के बच्चे सबसे अधिक इसकी चपेट में आते हैं क्योंकि इस उम्र में बच्चे ज्यादा देर तक बाहर खेलने लगते हैं और दूसरे बच्चों से घुलने-मिलने की संख्या भी बढ़ जाती है। ये बच्चे पार्क में अक्सर नंगे पैर भी खेल लेते हैं और खेलकूद कर आने के बाद बिना हाथ-मुंह धोए कुछ भी खा लेते हैं। चूंकि ये कृमि पैर की त्चचा, मल मार्ग और मुंह, कहीं से भी शरीर में प्रवेश कर सकते हैं इसलिए इस उम्र के बच्चे इनका आसान शिकार होते हैं। डॉ. भारती झा बताती हैं कि इस बीमारी का इलाज बेहद आसान है। साल में दो बार कृमि की दवा देने से पेट के कीड़े मर जाते हैं। ध्यान सिर्फ इतना रखना है कि कृमि के लक्षण नजर आते ही डॉक्टर से सलाह लेकर बच्चे को दवा दे दें।
प्रिया झा बताती हैं कि यूं तो सरकार ने इस समस्या से निबटने के लिए समय-समय पर प्रयास किए हैं मगर पहली बार सरकार ने बड़े पैमाने पर कृमि उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया है। इस वर्ष राष्ट्रीय कृमि उन्मूलन दिवस (10 फरवरी) को राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत देश के 12 राज्यों में सभी सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में साल में दो बार सभी बच्चों को कृमि की दवा शिक्षकों की अपनी निगरानी में खिलाने की योजना शुरू की गई है। इसका पूरा रिकार्ड भी बच्चों की हाजिरी के रजिस्ट्री में ही दर्ज की जाएगी ताकि यह पता चले कि कोई बच्चा छूट तो नहीं गया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने राजस्थान से इस योजना की शुरुआत की है क्योंकि वहां नाउरू नामक खतरनाक कृमि पाया जाता है जो पैर के रास्ते शरीर में प्रवेश कर जाता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव सी.के. मिश्रा के अनुसार देश के 1 से 19 वर्ष के सभी बच्चों के शरीर से कृमि का उन्मूलन करना इस कार्यक्रम का उद्देश्य है। इसके तहत स्कूल न जाने वाले बच्चों को आंगनबाड़ी केंद्रों के जरिये जबकि स्कूल योग्य होने के बावजूद स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों को आशा कार्यकर्ताओं के जरिये कृमि की दवा खिलाई जाएगी। अभी निजी स्कूल इसके दायरे में नहीं आए हैं मगर उन्हें भी इसमें शामिल करने की कोई व्यवस्था हो, इसका प्रयास किया जाएगा।
प्रिया झा कहती हैं, बच्चों के पेट में कृमि एक बड़ी समस्या है मगर देर से ही सही इस दिशा में अब कदम उठा है तो उम्मीद की जा सकती है कि भविष्य में पोलियो की तरह देश इसपर भी काबू पाने में कामयाब होगा।