वक्त को जब परिभाषित करना मुश्किल होता है तो अकसर कहा जाता है, इतिहास खुद को दोहराता है। बस यूं समझिए फैशन के लिए यह उक्ति बिलकुल सटीक बैठती है। फैशन का एक दौर होता है और उस दौरान हर किसी को उसका दौरा पड़ता है। फिर वे कपड़े या सामान ऐसे गायब होते हैं कि देखे नहीं दिखते। इसके बाद लंबे अरसे के बाद वह 'ट्रेडिशनलÓ या 'एथनिकÓ वेयर फिर नमूदार हो जाते हैं। मम्मी की शादी की जरी वाली साड़ी की तरह ही बॉर्डर वाली साड़ी बाजार में यूं ही चलते हुए दिख जाती है। घेरदार कुरता, जिसे ब्लैक एंड वाइट फोटो में मौसी को पहने देखा था और खूब हंसे थे, अब वैसा ही कुरता पहनने की हसरत मन में पल जाती है। यही तो इस मुए फैशन की ज्यादती है। जो कल था वह आज हो सकता है। शायद और बेहतर तरीके से हो सकता है। पहले साल दर साल फैशन बदलता था अब तो साल में दस बार बदल जाता है। सबसे मजे की बाद नायलॉन की लैगिंग में दक्षिण की लड़कियां भी दिखेंगी और पूरब की भी। स्वारोवस्की चाहे किसी को पता हो न हो, 'सीक्वेंस वर्कÓ के बारे में जानकारी सभी को रहती है। दरअसल पहले फैशन नायिकाओं से चल कर आम जीवन में आता था। लेकिन टेलीविजन पर जब से चौबीसों घंटे बहुएं इतराती हुई घूमने लगीं इसने फैशन की सीमा रेखा को धुंधला कर दिया। टीवी पर आने वाले धारावाहिकों ने फैशन की परिभाषा न सिर्फ बदली बल्कि उसका दायरा भी बढ़ा दिया। गांव से कस्बों और शहरों तक 'तैयारÓ होने का ढंग ही बदल गया। साडिय़ां ब्रोकेड, जॉर्जेट, सिल्क, सूती के बजाय, अंतरा, अक्षरा, तुलसी, पार्वती हो गईं।
ब्लाऊज गोपी जैसे, रागिनी की तरह या कुमुद स्टाइल के हो गए। वे दिन तो चले ही गए जब कपड़ों के नए चलन को जानने के लिए दीपिका पादुकोण या करीना कपूर का मुंह जोहना पड़ता था। इंटरनेट पर किलो के हिसाब से ऑनलाइन शॉपिंग को प्रमोट करती वेबसाइटों पर एक से एक फैशनेबल कपड़े उपलब्ध हैं। दाम के बारे में चिंता मत कीजिए, जेब पर भारी नहीं पड़ेंगे। अगर डिजाइनर कपड़े पहनने का शौक है और जेब इजाजत नहीं देती तो डुप्लीकेट मौजूद हैं। गरारा, शरारा, ढीले पाजामे, लंबे कुरते जो फबे वह लीजिए। अब फैशन की दुनिया लकीर की फकीर नहीं है। जो पहन लिया वह फैशन हो गया। अब फैशन से कदम ताल करने के लिए खुद को नहीं बदलना है, उस चलन को ही बदल डालो जो मनचीता न लगे।
हर शहर का अपना डिजाइनर
पिछले 10-12 सालों में फैशन का दायरा बढ़ा है। फैशनेबल कपड़े अब सिर्फ कुलीन या उच्च मध्य वर्ग की पहुंच की वस्तु नहीं रह गई है। मध्य वर्ग भी फैशन को लेकर बहुत सचेत है। ग्राहक अब कंपनी के नाम पहचानते हैं। वे समझने लगे हैं कि उन्हें क्या खरीदना है और क्या नहीं। कपड़ों को लेकर यह पसंद बहुत परिष्कृत हुई है। न सिर्फ कपड़े बल्कि कपड़ों के साथ का सामान भी। जैसे-बेल्ट, पर्स, जूते, चश्मा। सभी में यह पसंद अलग से झलकती है। पहले फैशन, फिल्मों से होते हुए पत्र-पत्रिकाओं में पहुंचता था और वहां से आम लोगों के बीच पहुंच बनाता था। दर्जी उस किताब या अखबार की कटिंग को सामने रख कर हूबहू वैसी कमीज या कुरता बनाया करते थे। अब यह भी संभव है कि कोई डिजाइनर ऐसी पोशाक बना दे जो बाद में किसी फिल्म में दिखाई पड़े। पहले नायिकाओं के पहने जाने वाले कपड़े बिलकुल अलग होते थे। माना जाता था उन्हें आम जीवन में नहीं पहना जा सकता। पर अब ऐसा नहीं है। जो कपड़े नायिका परदे पर पहनती है उसे आप मॉल तो छोडि़ए मेट्रो ट्रेन में भी किसी लड़की को पहने हुए देख सकते हैं। पहले जहां गिने-चुने डिजाइनर्स होते थे, अब ऐसा नहीं है। जिस शहर में चले जाओ, वहां स्थानीय डिजाइनर जरूर मिल जाएगा। यह इस दौर का सबसे बड़ा बदलाव है। जो हर जगह मौजूद है।
नीता लुल्ला, फैशन डिजाइनर। ऐश्वर्या राय के हम दिल दे चुके सनम, जोधा-अकबर और देवदास में परिधान डिजाइन करने के लिए मशहूर हैं।
(जैसा उन्होंने शहनाज खान को बताया)