मंगलवार को बेंगलुरू में कुछ अज्ञात तत्वों ने वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश को उनके घर में गोली मारकर हत्या कर दी। गौरी लंकेश कन्नड़ भाषा की साप्ताहिक ‘गौरी लंकेश पत्रिका’ की संपादक थीं। उन्हें निर्भीक और बेबाक पत्रकार माना जाता था। वह वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थीं और हिंदुत्ववादी राजनीति की मुखर आलोचक थीं। कहा जा रहा है कि उन्हें पिछले दो सालों से दक्षिणपंथी संगठनों की तरफ से धमकियां दी जा रही थीं।
इस हत्या के बाद अनेक जगहों पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए हैं। इसे कलबुर्गी, गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्या से जोड़ा जा रहा है और इसे अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला करार दिया गया है।
सोशल मीडिया में भी लोग घटना की निंदा कर रहे हैं। वहीं सोशल मीडिया में ऐसे तत्व भी सक्रिय हो गए हैं, जो हत्या को जायज ठहरा रहे हैं और इसका जश्न तक मना रहे हैं। इन्हें मानवता की न्यूनतम संवेदना से भी कोई मतलब नहीं है। इनमें से ज्यादातर ट्रोल होते हैं। कुछ किराए पर भी रखे जाते हैं, जिनका काम मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाना होता है। कई लोग गौरी लंकेश की कन्हैया और उमर खालिद के साथ फोटो शेयर करते हुए उन्हें देश विरोधी और नक्सली करार दे रहे हैं। कुछ लोगों ने कहा कि कन्हैया और उमर की मां थी गौरी लंकेश। इसके लिए उनके द्वारा फेसबुक पर शेयर की गई एक तस्वीर का सहारा लिया जा रहा था।
पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद ट्विटर समेत तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनके खिलाफ जहर उगला जाने लगा। इस तरह के अपशब्दों का इस्तेमाल किया गया, जिनका उल्लेख यहां नहीं किया जा सकता।
वहीं ट्विटर पर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो सरे-आम महिलाओं को गाली देते हैं। इनमें से एक शख्स निखिल दधीच ने गौरी लंकेश के लिए अपशब्दों का इस्तेमाल किया और विवाद बढ़ने पर ट्वीट डिलीट भी कर लिया। बड़ी बात ये थी कि प्रधानमंत्री मोदी के ट्विटर अकांउट से इस शख्स को फॉलो किया जाता है और ये बात निखिल दधीच ने अपने ट्विटर बायो में भी लिख रखी है। ऐसे में कई लोगों ने प्रधानमंत्री मोदी पर भी सवाल उठाए।
कई अन्य लोगों ने पत्रकार गौरी लंकेश को उनकी मौत के बाद भी नहीं बख्शा।
यह एक दौर चल गया है कि किसी की कोई खास छवि बना दी जाए और उसी आधार पर उसे घेरा जाए। हत्या मानवता के खिलाफ अपराध माना जाता है। आप किसी से लाख असहमत हो सकते हैं, आलोचना करके उसे कठघरे में खड़ा कर सकते हैं, डंके की चोट पर कीजिए लेकिन अगर वैचारिक असहमति की वजह से उस शख्स की हत्या कर दी जाए या उस हत्या का जश्न मनाया जाए तो यह आदिम सभ्यता की ओर लौटना होगा।
विचारधाराएं बाद में आती हैं, इंसान पहले होता है और किसी इंसान की मौत के बाद उससे इस तरह की नफरत एक समाज के तौर पर हमें असफल बनाती है। इससे पता चलता है कि हम अंदर से भरे बैठे हैं और मौका मिलते ही अपनी नफरत का जहर उगल देते हैं। ऐसे में लोकतंत्र की बड़ी-बड़ी बातों और ‘न्यू इंडिया’ के सपनों पर फिर से शक होने लगता है। एक दूसरे के प्रति समाज थोड़ा सहनशील हो जाए तो वह भी किसी 'न्यू इंडिया' से कम नहीं होगा।