विनोद मेहता
1942-2015
आउटलुक समूह बहुत अफसोस के साथ रविवार, 8 मार्च 2015 को अपने संपादकीय चेयरमैन विनोद मेहता के निधन की सूचना दे रहा है। वह 73 वर्ष के थे और कुछ समय से बीमार चल रहे थे। वह अपने पीछे अपनी पत्नी सुमिता, अपने संगी श्वान ‘एडिटर’, दो भाई और एक बहन - तथा अनगिनत सहयोगी, साथी एवं प्रतियोगी छोड़ गए हैं।
आउटलुक के संस्थापक प्रधान संपादक के तौर पर श्री मेहता ने भारतीय मैगजीन पत्रकारिता में रुख की ताजगी, मन का खुलापन और स्पर्श की सहजता भरकर उसे फिर ऊर्जावान कर दिया। ये बातें अब भी भारत के प्रमुख अंग्रजी समाचार साप्ताहिक आउटलुक और उसकी सहयोगी पत्रिकाओं आउटलुक हिंदी, आउटलुक बिजनेस, आउटलुक मनी और आउटलुक ट्र्रैवलर को दिशा दे रहे हैं।संपादक, लेखक और टेलीविजन टिप्पणीकार की अपनी लंबी पारी के दौरान श्री मेहता मेज पर हाजिरजवाबी, बेबाकी और निष्पक्षता लेकर आए। इस वजह से वह देशभर और पूरी दुनिया में अपने पाठकों एवं दर्शकों, यहां तक कि दोस्तों और दुश्मनों के भी चहेते बने रहे। ऐसा प्रतिद्वंद्वी विरला ही मिलेगा जिसके पास उनके लिए दो अच्छे शब्द न हों। विज्ञापन की दुनिया से वह पत्रकारिता में 1974 में बतौर संपादक ही आए। सबसे पहले वह पुरुषों की मासिक पत्रिका ‘डेबोनायर’ के संपादक बने। फिर उन्होंने भारत का पहला साप्ताहिक समाचार पत्र ‘द संडे ऑब्जर्वर’ शुरू किया। इसके बाद उन्होंने ‘दि इंडियन पोस्ट’ और ‘दि इंडिपेंडेंट’ का क्रमश: संपादन किया। इस दौरान वह तत्कालीन बंबई (अब मुंबई) में थे।
श्री मेहता 1990 में ‘द पायनियर’ के प्रधान संपादक होकर दिल्ली आए, लेकिन आउटलुक पत्रिका के प्रधान संपादक के रूप में उनका 17 वर्षीय कार्यकाल सबसे लंबा था। वह एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के अध्यक्ष भी रहे और कुछ समय के लिए बीबीसी वर्ल्ड सर्विस तथा बीबीसी रेडियो4 के ‘लेटर फ्रॉम इंडिया’ के लेखक एवं प्रस्तुतिकर्ता रहे।
रावलपिंडी में पैदा और लखनऊ में पले-बढ़े स्वघोषित ‘बीए थर्ड क्लास’ श्री मेहता छह पुस्तकों के लेखक थे। इनमें से तीन जीवनियां हैं (बंबई, संजय गांधी और मीना कुमारी), दो संस्मरण हैं (लखनऊ बॉय और एडिटर अनप्लज्ड) और एक संकलन (मिस्टर एडिटर, हाउ क्लोज आर यू टु द पीएम?) है।
खुल्लम-खुल्ला कट्टर क्रिकेटप्रेमी और भोजनभट्ट श्री मेहता सुरुचिपूर्ण गपशप के चुंबक थे। अपनी गपशप वह आउटलुक के अंतिम पृष्ठ पर अपनी बहुपठित डायरियों के जरिये बड़ी दक्षता से पूरी व्यवस्था में खोलकर फैला देते थे। अतिशयोक्ति और भारी-भरकम शब्दों से श्री मेहता को नफरत थी। महत्वपूर्ण को दिलचस्प बनाना उनकी पत्रिका का सिद्घांत था। पेशे की ईमानदारी का कुतुबनामा ओझल हो जाने से भारतीय पत्रकारिता आज निश्चित ही निर्धन हो गई है। श्री मेहता पर आसानी से ये शब्द चस्पां किए जा सकते हैं: अंतिम महान संपादक।
कृष्णा प्रसाद
प्रधान संपादक
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