ये नया विज्ञापन है Lenskart.com का। इसकी टैग लाइन है- Lenskart.com पर हैं 100% एक्यूरेट लेंसेस। Lenskart.com...Log on, Play on.
“विज्ञापनों में अश्लीलता परोसी जा रही है।” “स्त्री को एक देह, एक प्रोडेक्ट बना दिया गया है।” ये सब बातें पुरानी हुई, अब बात इससे कहीं आगे निकल गई है। जो बात कहते-लिखते मैं हिचक रहा हूं (हालांकि हमारे पुरुषवादी-पितृसत्तात्मक समाज में ये बात नयी नहीं है और इसे घर-बाहर बातों में, गालियों में और स्त्री को पीटते समय बेहिचक इस्तेमाल किया जाता है।), वह अब हमारे विज्ञापनों में दिखाई जा रही है, खुलेआम, सुबह-शाम। टी.वी पर। मनोरंजन चैनलों से लेकर समाचार चैनलों तक। यूट्यूब पर भी। और वो भी किसी प्रतिरोध, रूपक या निहितार्थ के तौर पर नहीं, बल्कि हू-ब-हू, रू-ब-रू, “ख़ूबसूरती और मनोरंजन” के साथ। अपना प्रोडेक्ट बेचने के लिए। जी हां, इस विज्ञापन में स्त्री एक कुतिया है।
Lenskart.com के इस विज्ञापन में दिखाया गया है कि सूज़ी एक लड़की नहीं, बल्कि एक कुतिया है...लंबे बालों वाली खूबसूरत सफेद कुतिया...जिसे हमारे विज्ञापन का हीरो एक ख़ूबसूरत लड़की समझ रहा था और पिछले दो सालों से उसके साथ डेटिंग कर रहा था।
सिनेमा और विज्ञापन की दुनिया का क्या हाल है, इसके क्या सरोकार हैं कहने की ज़रूरत नहीं। लेकिन विज्ञापन का तो शुद्ध मतलब ही बाज़ार है और बाज़ार में सबकुछ चलता है, हर चीज़ बेची और खरीदी जा सकती है। जहां कोई भी मनुष्य नहीं, सिर्फ एक उपभोक्ता है, ग्राहक है और ग्राहक को कैसे लुभाया जाता है, कैसे गैरज़रूरी चीज़ों को भी ज़रूरी बनाया जाता है, कैसे उसका शोषण किया जा सकता है, उसकी जेब से किस तरह पैसा निकलवाया जा सकता है इसकी सब तरकीबें बाज़ार के पास हैं। यहां नैतिकता या सामाजिकता की बात करना बेमानी है। “गंदा है पर धंधा है”, “जो दिखता है, वो बिकता है” यही नारे, यही सिद्धांत हैं इस बाज़ार के। इसपर कोई सेंसर नहीं, कोई लगाम नहीं, कोई जवाबदेही नहीं।
यूं तो एक नहीं, हज़ार विज्ञापन या उदाहरण हमारे सामने हैं जिनपर सख़्त आपत्ति की जा सकती है, की जानी चाहिए। गोरेपन की क्रीम से लेकर डिओ-परफ्यूम के विज्ञापनों तक। आउटफिट से लेकर इनर-वियर तक के विज्ञापन। जिनमें स्त्री का बेहद अश्लील ढंग से प्रयोग किया गया है। उन्हें सिर्फ एक देह में बदला जा रहा है। उन्हें इतना “सस्ता” बना दिया गया है कि उन्हें आप एक डिओ (Deodorants) लगाकर अपना दीवाना बना सकते हैं। एक ख़ास अंडरवियर-बनियान पहनकर अपनी बाहों में भर सकते हैं। लेकिन लेंसकार्ट (Lenskart) का ये विज्ञापन केवल अपने प्रोडेक्ट का प्रचार ही नहीं करता, बल्कि अपनी अंतरवस्तु में ये विज्ञापन जिस “सच” को रच रहा है वो केवल एक ख़ूबसूरत धोखा नहीं, केवल अश्लीलता या फूहड़ता नहीं बल्कि बेहद हिंसक और क्रूर प्रवृत्ति का परिचायक है। यहां एक स्त्री का अपमान नहीं है, बल्कि उसे मनुष्य मानने से ही इंकार है। वो एक कुतिया है जो आपके सही चश्मे या सही लेंस न होने की वजह से आपको एक खूबसूरत लड़की या अपनी प्रेमिका के रूप में दिख रही है।
हैरत है कि ऐसे मुद्दों पर कोई आहत नहीं होता, कोई आपत्ति नहीं करता। न सरकारें, न सामाजिक संगठन। न महिला आयोग, न नारीवादी संगठन। वे लोग भी नहीं, जो नैतिकता की दुहाई देते नहीं थकते हैं। वे नेता और संगठन भी नहीं जो धर्म और समाज के स्वयंभू नेता और ठेकेदार बने बैठे हैं। ये लोग लड़कियों के घर से निकलने पर तो आपत्ति कर सकते हैं, उनके जींस पहनने पर प्रतिबंध लगा सकते हैं, उनके मोबाइल रखने पर ऐतराज़ जता सकते हैं। उनके स्कूल जाने तक पर रोक लगा सकते हैं।
ये वैलेंटाइन डे पर आहत हो सकते हैं...इतने आहत कि आपका मुंह काला कर सकते हैं, आपको लाठी-डंडों से पीट सकते हैं। प्रेम की सज़ा के तौर पर बलात्कार और हत्या (“ऑनर/हॉरर किलिंग”) तक कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसे मुद्दे पर नहीं बोल सकते जो इस कदर अमानवीय है कि स्त्री के इंसान होने का ही निषेध कर रहा है।
ऐसे लोगों को ये विज्ञापन दिखाई नहीं देते। सच तो ये है कि वे इसे देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि वे भी इसके हामी हैं। वे भी इसी बाज़ार और उसकी नीतियों के पैरोकार हैं। वे भी ऐसा ही समाज चाहते हैं, जहां स्त्री की मनुष्य के तौर पर कोई जगह नहीं। वरना क्या वजह है कि एक ऐसे समय में जब सरकार के स्तर पर फेसबुक, ट्विटर तक की एक-एक टिप्पणी पर नज़र रखी जा रही है, किसी विषय पर असहमति का कोई स्वर बर्दाश्त नहीं किया जा रहा, विरोध पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है, कई लोगों को जेल तक भेजा गया है, वह भी ऐसे मुद्दों पर चुप है। हां, आज भी इन लोगों को पीके फिल्म पर ऐतराज़ हो सकता है जिसका हीरो अपनी जाति ज़िंदगी में मुसलमान है (हालांकि इन लोगों को एमएसजी से कोई दिक्कत नहीं होती है, जिसका नायक खुद को भगवान की तरह महिमामंडित करता है)। इन लोगों को मुज़फ़्फ़रनगर दंगों पर बनी नकुल साहनी की फ़िल्म पर ऐतराज़ हो सकता है। इन्हें हर उस बात पर ऐतराज़ हो सकता है जो सच को उजागर करती है, लोगों को जागरूक बनाती है, भ्रष्ट पूंजी और दलाल सत्ता के खेल का पर्दाफाश करती है।
इसलिए इस विज्ञापन की तरह सच्चाई ये नहीं कि हमें साफ-साफ देखने के लिए चश्मा या लेंस बदलने की ज़रूरत है, बल्कि सच्चाई इसके उलट है कि आज ज़रूरत नज़रिया बदलने की है। जैसे कवि बुद्धिसेन शर्मा ने कहा है कि-
सफाई किसकी करनी चाहिए, क्या साफ करता है
कि कचरा आँख में है और चश्मा साफ करता है !