चैनल का कहना है कि सरकार ने अब इनके खिलाफ कई अप्रामाणिक आरोप लीक किए हैं। ये लीक बिना किसी दस्तखत के दस्तावेज के तौर पर जारी किए गए हैं। इन पर किसी अधिकारी का नाम तक नहीं है। साफ है कोई छल-कपट के इरादे से गलत तथ्य जारी कर रहा है।
एनडीटीवी की वेबसाइट पर जारी किए गए छह बिंदुओं का जवाब-
“झूठा आरोप एकः सरकार कहती है कि वो एनडीटीवी के 1,100 करोड़ रुपये की अघोषित आय की जांच कर रही है।
जवाबी तथ्यः कहीं कोई अघोषित आय नहीं है। कतई नहीं। अमेरिका के सबसे बड़े और सबसे पुराने टीवी नेटवर्क्स में एक एनबीसी (और उस वक़्त जेनरल इलेक्ट्रिक का हिस्सा) ने 2008 में एनडीटीवी में 150 मिलियन डॉलर का निवेश किया। पांच साल बाद भारत के आयकर अधिकारियों ने, बिल्कुल अतार्किक ढंग से, कहा कि 150 मिलियन डॉलर का निवेश
क) एक "धूल झोंकने वाला लेनदेन" है
ख) एनबीसी/जीई 'राउंड ट्रिपिंग' में शामिल थीं- (यानी जो ख़रीद रही थी, उसे ही वापस बेच दे रही थी)
ग) एनबीसी/जीई ने मनी लॉन्डरिंग के फ्रंट की तरह काम किया।
ये आपराधिक प्रकृति के बेहद गंभीर आरोप हैं जिनकी वजह से एनबीसी/जीई के सीई को जेल जाने की नौबत आ सकती है।भारतीय आयकर विभाग ने जीई के ख़िलाफ़ ऐसे बेहद ख़तरनाक आरोप की पुष्टि में अब तक कोई सबूत नहीं दिया है, जो भारत में अमेरिका की बड़ी निवेशक है।
अब एनबीसी के सीईओ जेफ़ ज़कर के साथ 2008 का ये इंटरव्यू देखिए (https://www.youtube.com/watch?v=Twb67gkVK2s) जो स्पष्ट करता है कि एनबीसी ने एनडीटीवी में निवेश किया है।
आयकर विभाग बेतुके और निराधार आरोप लगा रहा है, यह तथ्य इस बात से भी स्पष्ट हो जाता है कि केस की मेरिट तय करने से टैक्स ट्राइब्युनल को रोकने के लिए वह बार-बार तारीख़ ले रहा है।
इससे भी बड़ी बात यह है कि कैसे यह आय 'अघोषित' हो सकती है जब एनबीसीयू/जीई से आए 150 मिलियन डॉलर का एक-एक ब्योरा भारत और अमेरिका दोनों देशों के अधिकारियों से साझा किया गया हो? एनबीसी और जीई की वार्षिक रिपोर्ट के अलावा अमेरिकी सिक्युरिटी एक्सचेंज कमीशन की फाइलिंग में भी एनडीटीवी में 150 मिलियन डॉलर के निवेश का साफ़ ज़िक्र है।
यह तथ्य कि, इस लेनदेन में कोई झांसा नहीं था, नौ साल बाद आज भी बड़ी आसानी से साबित किया जा सकता है: बस अमेरिका में एसईसी और आईआरएस के रिकॉर्ड चेक करें और वे पुष्टि कर देंगे कि ये पैसे एनबीसी से आए थे।
अंततः जीई के सीईओ जेफ़री इम्मेल्ट भारत के प्रधानमंत्री से नियमित तौर पर मिलते हैं। तो हमारा आयकर विभाग आरोप लगा रहा है कि भारत के प्रधानमंत्री एक 'राउंड ट्रिपर' से मिलते हैं जो झांसे वाले लेनदेन के लिए 'फ्रंट' का काम करता है। आयकर विभाग को शर्म आनी चाहिए।
झूठा आरोप नंबर दो: एनडीटीवी ने 'लिफ़ाफ़ा' कंपनियों के ज़रिए पैसे उगाहे जिनका 'न कोई वास्तविक कारोबार है न जिसमें कर्मचारी हैं।'
जवाबी तथ्यः जैसा कि हमने बार-बार कहा है, एनडीटीवी नेटवर्क एक होल्डिंग कंपनी रही- लिफ़ाफ़ा कंपनी नहीं। होल्डिंग कंपनी के पास ये अहम ऐसेट/सबसीडियरी रहे:
क) एनडीटीवी का इंटरटेनमेंट चैनल इमैजिन
ख) एनडीटीवी का लाइफ़स्टाइल चैनल गुड टाइम्स
ग) एनजेन के नाम से जेनपैक्ट के साथ एक मीडिया आउटसोर्सिंग ज्वाइंट वेंचर
घ) एनडीटीवी कन्वर्जेंस के नाम से एनडीटीवी का डिजिटल और मोबाइल कारोबार
ड.) छोटे-छोटे कई और कारोबार
ये सब मूल्यवान कंपनियां रहीं जिनमें कुल मिलाकर सैकड़ों कर्मचारी रहे। संदर्भ के लिए- एनडीटीवी कन्वर्जेंस पर नज़र डालें जो आज भी एनडीटीवी के सभी डिजिटल ऐसेट- जिनमें इसकी वेबसाइट, ऐप, मोबाइल साइट और सोशल मीडिया अकाउंट तक- शामिल हैं- चलाता है। इसे आप कैसे 'लिफ़ाफ़ा' कंपनी या 'कोई असली कारोबार नहीं' कह सकते हैं? अधिकारी मानहानि करने के काम में शामिल लगते हैं।
आरबीआई होल्डिंग कंपनियों को वैध 'एनटीटी' मानती है- वे लिफ़ाफ़ा या फ़र्ज़ी कंपनियां नहीं हैं।
एनडीटीवी नेटवर्क के भी अपने सीईओ, सीएफओ और एनबीसीयू द्वारा नियुक्त कंप्लायंस ऑफ़िसर और दूसरे कर्मचारी रहे- मगर इसकी वास्तविक हैसियत उसकी मिल्कियत वाले ऐसेट्स से बनती थी।
तुलना के लिहाज से, टाटा सन्स भी, जो एक होल्डिंग कंपनी है- अपनी मिल्कियत वाली नीचे की कंपनियों से अपनी हैसियत हासिल करती है। तो क्या टाटा सन्स एक 'लिफ़ाफ़ा' कंपनी है?
झूठा आरोप 3: एनडीटीवी ने विदेशों में कई कंपनियां खोलीं और बंद कर दीं।
जवाबी तथ्य: ये कंपनियां 2000 के दशक में एक ग्लोबल मीडिया कंपनी बनने और एनडीटीवी नेटवर्क को एक आइपीओ के तौर पर लिस्ट कराने के एनडीटीवी के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थीं।
इसका ढांचा जानी-मानी ग्लोबल वित्तीय और क़ानूनी फर्मों की सलाह पर तय किया गया था और पूरी तरह तत्कालीन नियम कायदों के मुताबिक बनाया गया था।
कृपया ध्यान दें कि ये कुछ जटिल संरचनाएं एक दशक पहले आम थीं और देशों के आरपार टैक्स कुशलता के लिहाज से ज़रूरी थीं और इन्हें कुछ फंड रेज़िंग के अलावा विलयों और अधिग्रहणों में मदद के लिए बनाया गया था।
एक बार जब इंटरटेनमेंट चैनल (एनडीटीवी इमैजिन) बिक गया, इन कंपनियों को बनाए रखने की कोई ज़रूरत नहीं रह गई।
झूठा आरोप चार: एनडीटीवी ने 2007-2009 के वित्त वर्ष के दौरान ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स, केमैन आइलैंड्स, ब्रिटेन, अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, नीदरलैंड आदि-आदि जगहों की 'गुमनाम कंपनियों' के ज़रिए पैसे जुटाए।
जवाबी तथ्यः चार-झूठों-के-गिरोह का ये एक और झूठ है। जिस भी कंपनी से पैसे लिए गए, वह आधिकारिक है और कई बरस पहले इसके दस्तावेज़ सभी सरकारी अधिकारियों के पास जमा करा दिए गए हैं।
बहुत सारी बहुराष्ट्रीय कंपनियां टैक्स न्यूट्रैलिटी की सुविधा मुहैया कराने वाले देशों के ज़रिए अपने निवेश का ढांचा बनाती हैं ताकि वह निवेश जोख़िम से मुक्त रहे। वस्तुतः सुप्रीम कोर्ट ने भी माना है कि टैक्स न्यूट्रल क्षेत्रों के ज़रिए निवेश हासिल करना निवेश-ढांचे का एक जाना-पहचाना रूप है और उसने केमेन आइलैंड्स, हांगकांग, मॉरीशस, नीदरलैंड आदि के ज़रिए निवेश के ढांचे को सही माना है।
इससे भी ज़्यादा, एनडीटीवी ने सभी सहयोगी दस्तावेज़ों के साथ यह बात सार्वजनिक की है कि पैसा कहां से आया है। सरकार यह जानती है।
यहां तक कि पैसा जुटाने की प्रक्रिया भी पूरी तरह पारदर्शी रही। एनडीटीवी ने अपने लिए फंड जुटाने के लिए दुनिया की सबसे बड़ी और सम्मानित कंपनियों में एक जेफ़रीज़ एलएलसी को नियुक्त किया था। जेफ़रीज़ का मुख्यालय न्यूयॉर्क में है।
जेफ़रीज़ ने पैसे जुटाने की पूरी प्रक्रिया को नियंत्रण में रखा और 8 संस्थाओं से 100 मिलियन डॉलर जुटाए जिनके दफ़्तर लंदन, न्यूयॉर्क, हांगकांग, सिंगापुर आदि में थे। इन सभी संस्थाओं के पास अपने अलग-अलग जगहों पर अपने रजिस्टर्ड दफ़्तर रखने की पूरी तरह घोषित और पारदर्शी वजहें थीं- हालांकि इनसे एनडीटीवी का कोई वास्ता या मतलब नहीं था। ये जेफ़रीज़ एलएलसी रही जिसने इन संस्थाओं से, और बेशक एनडीटीवी से, सीधे बात की। इससे भी ज़्यादा, एनडीटीवी ने एक-एक पैसे का ब्योरा आयकर विभाग, आरबीआई, स्टॉक एक्सचेंज और हर संबद्ध सरकारी दफ़्तर को खुले और पारदर्शी तरीक़े से दिया।
सोशल मीडिया के ट्रोल्स ने ख़ास तौर पर केमैन आइलैंड्स का कुछ इस तरह प्रचार किया है जैसे वहां एनडीटीवी का कोई खाता हो। यह भी सपाट झूठ है। केमैन आइलैंड्स में एनडीटीवी का कोई दफ़्तर, कोई खाता या किसी भी रूप में मौजूदगी नहीं है। दरअसल केमैन आइलैंड्स में जिस संगठन का रजिस्टर्ड दफ़्तर है, उसे एक सम्मानित अंतरराष्ट्रीय निवेशक माना जाता है जिसने कई दूसरी भारतीय कंपनियों में- भारतीय मीडिया कंपनियों में भी- निवेश किया है। क्या गुरुमूर्ति और सुब्रह्मण्यन स्वामी के भद्दे झूठों से चल रहे ट्रोल चाहेंगे कि इन सभी कंपनियों पर सीबीआई के छापे पड़ें?
झूठा आरोप पांच: एनबीसी और जीई ने अपने 150 डॉलर के निवेश के बाद 1100 करोड़ की अघोषित आय को वाइट किया जिसे एनडीटीवी ने लिफ़ाफ़ा कंपनियों की मदद से अमेरिका भेजा था, और एनबीसी और जीई ने मनी लॉन्डरिंग के ज़रिए वापस 1000 करोड़ भारत भेज दिए।
जवाबी तथ्यः 'अघोषित आय' और 'लिफ़ाफ़ा कंपनियों' से जुड़े बिंदुओं के जवाब हम दे चुके हैं। अब 'लॉन्डरिंग' के मुद्दे पर आएं। कृपया फिर से समझिए कि सरकार जो आरोप लगा रही है, वे कितने गंभीर हैं। क्योंकि वे मनी लॉन्डरिंग का आरोप एनडीटीवी पर नहीं, बल्कि दुनिया के एक बहुत बड़े कारपोरेशन जीई पर लगा रहे हैं।
उनका आरोप पूरी तरह ये है कि जीई ने 'अघोषित पैसे' लिए, इसे सफेद बनाया और फिर एनडीटीवी नेटवर्क में वापस निवेश कर दिया।
एक टॉप ग्लोबल कंपनी के ख़िलाफ़ इस अजीबोगरीब आरोप का कोई सबूत भी है? एक भी नहीं। क्या ये सच है? निस्संदेह नहीं, और हम पहले ही वे ढेर सारे सबूत बता चुके हैं जो इसे स्थापित करते हैं।
कोई भी जांचकर्ता या प्रेस का कोई भी सदस्य इसकी पुष्टि जीई, आइआरएस या एसईसी से पूछ कर कर सकता है। कृपया आरोपों की गंभीरता पर ध्यान दें- अगर ये सच हैं तो ये अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े कारपोरेट स्कैंडल बन जाएंगे। ये ऐसे आरोप नहीं हैं जिन्हें भारतीय अधिकारियों को लापरवाही के साथ बिना सबूत और आधार के लगा देना चाहिए, क्योंकि इससे ऐसे समय में भारत में निवेश का माहौल प्रभावित हो सकता है जब सरकार 'ईज़ ऑफ डुइंग बिजनेस' जैसी अवधारणा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जता रही है।
यह बहुत बुरा है कि सीबीआई के छापों ने बैंकिंग सर्किल में एक ख़ौफ़ का माहौल पैदा किया है और इनसे बैंकों के एनपीए को पुनर्नियोजित करने की कोशिशों को ख़ासा नुक़सान पहुंचाया है। क्या वाकई अधिकारी चाहते हैं कि भारत में जो ग्लोबल भरोसा है, वह ख़तरे में पड़े- बस उस अकेले मीडिया चैनल को डराने की कोशिश में जो उनके पीछे चलने को तैयार नहीं है?
झूठा आरोप 6: 2,030 करोड़ का उल्लंघन
जवाबी तथ्यः प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने बुनियादी हिसाब-किताब में हेरफेर किया है और कुछ तकनीकी बातों और प्रावधानिक चूकों -बहुत मामूली चूकों- का इस्तेमाल करते हुए ऐसा जुर्माना लगाया है जिसे जायज़ नहीं ठहराया जा सकता।
तो ईडी मामूली चूकों पर, मसलन छोटे से विलंब पर, जुर्माना लगाने के (अपने ही पैमानों के आधार पर) अपने ही क़ायदे तोड़ रहा है।
एनडीटीवी कभी भी ऐसे लेनदेन का हिस्सा नहीं रहा है जो वैध या क़ानूनी न हो।
तो आगे क्या?
भारत जो देख रहा है, वो देश के सबसे पुराने और सर्वाधिक सम्मानित टीवी मीडिया घरानों में एक एनडीटीवी के ख़िलाफ़ सरकारी अधिकारियों की अप्रामाणिक, राजनीति-प्रेरित और प्रतिशोधी मुहिम है।
इसमें ज़रा भी संदेह नहीं है कि अंत में एनडीटीवी और सत्य की जीत होगी, मगर अधिकारियों को मालूम है कि प्रक्रिया ही अपने-आप में सज़ा है।
अधिकारियों ने कहा है, 'आयकर विभाग ने एनडीटीवी के दावों को ग़लत पाया है।' जो वे नहीं बताते, वह यह कि तीन साल पहले एनडीटीवी ने इनकम टैक्स अपीलेट ट्राइब्युनल में आयकर विभाग के ख़िलाफ़ अपील की थी।
इसके तीन साल होने जा रहे हैं और एनडीटीवी के मामले में सुनवाई अब तक शुरू नहीं हुई है। सरकार के वकीलों ने बार-बार नई तारीख़ें ली हैं, जबकि एनडीटीवी ने एक बार भी सुनवाई आगे बढ़ाने को नहीं कहा। साफ़ तौर पर सरकार नहीं चाहती कि सच सुना जाए और बार-बार सुनवाई की तारीख़ लेती है। शर्मनाक!
किसी को नहीं मालूम, कब ये मामले सुने जाएंगे और कब एनडीटीवी की उचित सुनवाई होगी।
हम एनडीटीवी में एक बात को लेकर निश्चिंत हैं: सच जीतेगा और हम अपनी पूरी क्षमता से भारत के आज़ाद मीडिया को डराने की इस कोशिश के ख़िलाफ़ लड़ेंगे।”