ब्रिटिशकालीन सूबा-ए-अवध के फैजाबाद में जन्मी अख्तरीबाई फैजाबादी ने मलिका-ए-गजल जैसी बड़ी खिताब हासिल की थी। यह उनके गले और गायकी का कमाल था। उन्होने न केवल गजल गायकी को आसमानी ऊंचाई दी बल्कि ठुमरी और दादरा गायन को परवान चढ़ाया। अख्तरीबाई यानी बेगम अख्तर अगर होतीं तो आज यानी 7 अक्टूबर को 103वां जन्मदिन मना रही होतीं। लेकिन यह उनकी गायकी का ही कमाल है कि उनके जाने के करीब आधी सदी बाद आधुनिक तकनीक में सर्वज्ञ माना जाने वाला गूगल ने उन्हें अपने ‘डूडल’ सम्मान से नवाजा है।
लेकिन सच तो यह है कि ‘इश्तियाक अख्तर से निकाह के बाद बेगम अख्तर बनी ‘बड़ी मुश्तरी बाई की यह बेटी अपने जीवन में ही किंवदन्ती बन गयी थी और उसके चाहने वालों ने उसके बारे में ऐसे कई किस्से गढ़ रखे थे, जिनमें सच और झूठ के इतने घालमेल थे कि पहचानना मुश्किल हो जाता था। इस मामूली पढ़ी-लिखी, खूबसूरत कम मगर नेक सीरत ज्यादा और खुले ख्यालों वाली बेटी को ग़ज़ल की मलिका ही नहीं, उसकी रूह भी कहा जाता था। साथ ही वह दादरा, ठुमरी और चैती की भी जान थी। देश के बंटवारे के समय पाकिस्तान जाने को तत्पर अपने पति बैरिस्टर इश्तियाक अहमद अब्बासी (मुस्लिम लीग के तत्कालीन नेता खलीक उज्जमाँ के भांजे) का इरादा उसने यह कहकर बदलवा दिया था कि वह संगीत और हिन्दुस्तान के बिना नहीं जी सकती। बहुत कम लोग जानते हैँ कि सांवली सी गोल मटोल अख्तरी जितनी अच्छी गायिका थी, उतनी ही अच्छी अभिनेत्री भी और थियेटरों व फिल्मों में कमाल की अदाकारी के लिए उसकी शोहरत थी। गज़ल गायकी कुन्दनलाल सहगल के साथ शुरू हुई थी और बेगम अख्तर के साथ खत्म हो गयी या कि बेगम अख्तर की सबसे बड़ी तमन्ना आखिरी वक्त तक गाते रहने की थी और इसे पूरा करते हुए उन्होंने 1974 में अपनी मृत्यु से महज आठ दिन पहले कैफी आजमी की गज़ल गायी थी - ‘सुना करो मेरी जाँ उनसे उनके अफसाने, सब अजनबी हैं यहां कौन किसको पहचाने?’
विडंबना यह है कि उस फैजाबाद के बाशिन्दों और कथित जानकारों के लिए भी बेगम अख्तर आज अजनबी होकर रह गयी हैं जिसके नक्खास मुहल्ले में सात अक्टूबर 1914 (कुछ लोगों के अनुसार 1910) को उनका जन्म हुआ था। यह जानकारी जिले के खोजी पत्रकार कृष्णप्रंताप सिंह के एक पुराने आलेख में दी गई है। उनके अनुसार उस लखनऊ के लोग भी अब उनसे ज्यादा ‘जान-पहचान’ नहीं रखते जिसके ठाकुरगंज थाना क्षेत्र के बसंत बाग में उन्हें सुपुर्दे-खाक किया गया था। 30 अक्टूबर, 1974 को अहमदाबाद में अंतिम सांस लेने के बाद बेगम की लखनऊ में दफन होने की अंतिम इच्छा का सम्मान करते हुए उनका पार्थिव शरीर यहाँ लाया गया था। मगर और तो और, उनकी कब्र के इर्द-गिर्द के लोगों में से भी अधिकांश को नहीं मालूम कि उनके अंचल विशेष की धुनों को देश की सरहद के पार पहुंचाने वाली स्वर साम्राज्ञी अपनी माँ मुश्तरी बाई की कब्र के बगल में अटूट नींद में सोई हुई है। अलबत्ता भारत सरकार ने 1968 में इस साम्राज्ञी की सेवाओं का सम्मान करने के लिए ‘पद्मभूषण’ जरूर दे दिया था।
जिले के भदरसा कस्बे में भी, जहाँ बेगम का जन्म हुआ था, कोई याद नहीं करता। फैजाबाद के नक्खास में भी न वे कोठे हैं, न तवायफें या रक्कासाएं। इसलिए वहाँ तो ‘अख्तरी’ की यादों की निशानी होने का प्रश्न ही नहीं उठता। यही नहीं अब तो फैजाबाद में ही आचार्य नरेन्द्र देव नगर में स्थित और जिन्दा इतिहास में तब्दील बेगम अख्तर की आलीशान कोठी में भी उनकी याद दिलाने वाला कुछ नहीं। ‘बब्बी’ का पढ़ने लिखने में बिलकुल ही मन नहीं लगता था। लेकिन मामूली पढ़ाई के बावजूद उसने उर्दू शायरों और उनकी शायरी के बारे में अच्छी जानकारी हासिल की थी। जब वह बारह-तेरह साल की ही थी, उसकी माँ मुश्तरी बाई उसे अच्छी संगीत शिक्षा दिलाने के लिए गया ले गयी। गया से कल्कत्ता, बम्बई, लखनऊ और रामपुर जैसे संगीत के तत्कालीन केन्द्रों में अनेक कद्रदान बनाने वाली अख्तरी बाई फैजाबादी ने 1961 में पाकिस्तान, 1963 में अफगानिस्तान और 1967 में तत्कालीन सोवियत संघ में अपने सुरों का जादू बिखेरा तो वह बेगम अख्तर’ बन चुकी थी।
1945 में शादी के बाद वे लखनऊ में हैवलॉक रोड स्थित बंगले में जिसे ‘आशियाना-ए-बेगम अख्तर’ कहते हैं, आयीं तो पति की इच्छा के आगे सिर झुकाकर गाना बन्द कर दिया। बाद में फेफड़े की बीमारी और डाक्टरों की राय के बाद कि बीमारी गाने से ठीक हो सकती है, बैरिस्टर अब्बासी ने उन्हें गाने की इजाजत दे दी और बेगम का सफर जारी रहा।
फैजाबाद के अबके आचार्य नरेन्द्रदेवनगर को अख्तरी के समय रीडगंज कहते थे और तब कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि एक दिन यहीं के लोग उसे भूल जायेंगे।
उधर लखनऊ में बेगम अख्तर की कब्र सफाई व पुताई की मोहताज होकर बार-बार झाड़ों-झंखाड़ों के हवाले हो जाती है। दुर्भाग्य से सरकार और संस्कृति के रहनुमाओं का ध्यान भी इस ओर नहीं है। बचे खुचे परिजन बताते हैं कि संतानहीन बेगम उन सबको बहुत चाहती थीं मगर उनकी यादों को सलामत रखने की ओर से सबके सब उदासीन हैं। गिनती के (ज्यादा तो उन्होंने बनाये ही नहीं) शागिर्द भी अपनी प्यारी ‘अम्मी’ को भूल चुके हैं और लखनऊ का वह विद्यालय भी बेगाना हो गया जहां वे संगीत की तालीम दिया करती थी।
बेगम अख्तर ने कभी गाया था - ‘ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम पर रोना आया। कभी खुद पर कभी हालात पर रोना आया।’ लेकिन आज जब वे नहीं हैं तो रोना इस बात पर भी आता है कि सुरों की जिस जादूगरनी ने अपनी चार दशक लम्बी साधना में कितने ही शायरों की रचनाओं को लोकप्रियता के चरम तक पहुंचाया और अपने गायन व अभिनय के लिए बेपनाह प्रशंसाएं बटोरीं, हम उसे उसके जाने के चार दशकों से भी पहले भुला बैठे। मेरा नमन!