अब ऐसी एक धारणा बना दी गई है कि जलवायु परिवर्तन और भारत की ऊर्जा निर्भरता से जुड़े सभी मुद्दों को सुलझाने का रामबाण इलाज सौर ऊर्जा हो सकती है। यह बात सच्चाई से कोसों दूर है। भारी भरकम अंतरराष्ट्रीय विपणन के बावजूद अगले चार से पांच दशक तक भारत में ऊर्जा स्रोत के रुप में ‘कोयले की ही बादशाहत रहेगी'। आज भारत की लगभग 60 प्रतिशत बिजली का उत्पादन हाइड्रोकार्बन के इस्तेमाल से होता है।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारत को सूर्य देवता से प्रेम है और पूरे देश में सूर्य के प्रकाश वाले 300 से ज्यादा दिन होना बिजली उत्पादन के लिहाज से एक बेहद आकर्षक विकल्प है। इसमें भी एक पेंच है: सूर्य सिर्फ आधे दिन ही उपलब्ध रहता है और इसलिए सौर बिजली पर हमारी जरुरत से ज्यादा निर्भरता अंधेरे के समय जोखिम से भरी हो सकती है।
मजाक नहीं 100 गीगावाट का लक्ष्य
आज देश की योजना अपनी सौर ऊर्जा उत्पादन की क्षमता को मौजूदा स्थापित क्षमता 4000 मेगावाट से लगभग 25 गुना बढ़ाकर एक लाख मेगावाट कर देने की है। इसका मतलब यह हुआ कि 100 गीगावाट के अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए भारत को अगले सात साल तक हर साल लगभग 14 हजार मेगावाट सौर बिजली स्थापित करनी होगी। जबकि पिछले पांच साल में, भारत ने स्थापित सौर ऊर्जा में सिर्फ 2000 मेगावाट का इजाफा किया है।
सौर ऊर्जा से बिजली उत्पादन बढाने के लिए कई मुश्किलों से उबरना अभी बाकी है। आज व्यावसायिक लिहाज से जो सर्वोत्तम सोलर फोटो वोल्टिक सेल भी उपलब्ध हैं, उनकी क्षमता 20 प्रतिशत से कम है। यह तुलनात्मक रुप से से कमजोर रुपांतरण अनुपात है और यही वजह है कि सौर सेलों के लिए बड़ा फलक जरुरी होता है। इसका अर्थ यह है कि जब एक लाख मेगावाट के उत्पादन के लिए सौर पैनल लगाने के लिए एक बड़े भूभाग की जरुरत होगी। एक अन्य बड़ी बाधा उत्पादित बिजली के संग्रहण की है। रात के समय या मानसून के दौरान आसमान में बादल होने पर जब सूर्य की रोशनी नहीं होती है, तब सौर पैनल किसी काम के नहीं रहते। ऐसे समय पर उत्पादित बिजली को बैटरियों में संग्रहित करके रखे जाने की जरुरत होती है, जो कि बाद में बिजली की आपूर्ति कर सकती हैं।
आज बैटरियां वाकई बहुत महंगी हैं और इनका जीवनकाल तुलनात्मक रूप से कम है। एेसे में इन्हें गीगावाट वाले लक्ष्य के लिए लगा देना कोई मजाक नहीं है। सौर बिजली के बड़े लक्ष्य की दिशा में बढ़ने के लिए बैटरी तकनीक के क्षेत्रा में एक बड़ी उपलब्धि हासिल करने की जरूरत है।
उम्मीद की किरण
उम्मीद है कि माइक्रोसाॅफ्ट के संस्थापक बिल गेट्स ने 28 बेहद अमीर निवेशकों के साथ मिलकर जिस नए ब्रेकथ्रू एनर्जी कोएलिशन की घोषणा की है। यह सस्ती, स्थायी, हल्की और दीर्घकालिक एवं चार्ज की जा सकने वाली बैटरियां बनाने के लिए अनुसंधान और विकास शुरू कर सकेगा। तब तक औद्योगिक स्तर के कामकाज में प्रमुख निर्भरता पुरानी लेड एसिड बैटरियों पर ही रहेगी।
मान लीजिए कि सौर सेलों और बैटरियों की क्षमता से जुड़ी समस्या सुलझा ली जाती है तब भी सौर ऊर्जा की उपलब्धता में अनिरंतरता एक एेसा मुद्दा है जो वास्तव में सुलझाया नहीं जा सकता। यह दिन के समय उपलब्ध रहती है और रात के समय नहीं। बिजली के एक तय बेस लोड की जरूरत तो हमेशा बनी रहती है फिर चाहे वह दिन हो या रात। और एेसे में यह जरूरत हमेशा अनवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों के जरिए ही पूरी करनी पड़ती है।
वैकल्पिक ऊर्जा की चुनौतियां
आज के समय पर इस बेस लोड के लिए दो स्रोतों पर निर्भरता है। एक है अच्छा और पुराना कोयला एवं गैस जो कि जलवायु का दुश्मन कहलाने वाली काॅर्बन डाइ आॅक्साइड पैदा करते हैं। वहीं दूसरा स्रोत है परमाणु ऊर्जा।
यदि अभीष्ट राष्ट्रीय संकल्पित योगदानों यानी आईएनडीसी के तहत भारत के दावों का सावधानीपूर्वक विश्लेषण किया जाए तो पता चलेगा कि वर्ष 2030 तक भारतीय ऊर्जा के क्षेत्र में नवीकरणीय ऊर्जा की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। कुछ विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि ग्रिड में अत्यधिक मात्रा में अनिरंतर नवीकरणीय ऊर्जा से यह तंत्र ढह सकता है। इसका अर्थ यह है कि भारत की ऊर्जा की एक बड़ी मात्रा का उत्पादन हाइड्रोकार्बन और परमाणु के जरिए किया जाएगा। दीर्घकालिक ऊर्जा स्वतंत्रता के लिए विभिन्न ऊर्जाओं का एक स्वस्थ मिश्रण अनिवार्य है।
अमेरिकी कंपनी सन एडिसन द्वारा आंध्रप्रदेश में एक सौर पार्क की स्थापना के लिए 4.63 रूपए प्रति यूनिट की दर से सौर बिजली दिए जाने की बोली लगाने पर भी खासी चर्चा हुई। केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने इस बात पर जोर दिया कि यह एक पारदर्शी ई-नीलामी का हिस्सा था और इससे कीमतें बहुत कम होकर थर्मल पावर के लगभग बराबर आ गईं। बहरहाल, यह देखने के लिए इंतजार करना होगा कि क्या ये परियोजनाएं वाकई फलीभूत होकर पूरी हो पाती हैं? ऊर्जा दक्षता ब्यूरो के सूत्राें का कहना है कि डिफाल्टर लोग जिम्मेदारी से बच न निकलें, इसके लिए पर्याप्त उपाय किए गए हैं।
विभिन्न ऊर्जाओं का सही मिश्रण ही समाधान
आपको याद होगा कि किस तरह से 3जी स्पेक्ट्रम के लिए उम्मीद से परे बढ़-चढ़कर बोली लगाई गई थी। उसके बाद से निजी कंपनियों को पूरी तरह से सेवाएं देने में मुश्किलें आ रही हैं और काॅल ड्रॉप की समस्या इसकी एक बानगी है। इसी तरह से एक डर यह है कि प्रति यूनिट बेहद कम रेट पर बोली लगाने वाली कंपनियां सौर पार्क बनाने का असली समय आने पर नाकाम साबित हो सकती हैं।
इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जलवायु में परिवर्तन हो रहा है लेकिन इससे निपटने के लिए एक अरब से ज्यादा जनसंख्या वाले भारत जैसे बड़े देशों का सिर्फ सौर ऊर्जा पर निर्भर होना दूर की कौड़ी जान पड़ता है, खासकर जब तक कि बैटरी तकनीक में कोई विशेष खोज नहीं हो जाती। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारत पर्याप्त निवेश नहीं कर रहा। एेसे में विभिन्न ऊर्जाओं का समुचित मिश्रण ही एक आदर्श हल हो सकता है।
(जाने-माने विज्ञान लेखक पल्लव बाग्ला का पीटीआई-भाषा के माध्यम से प्राप्त साप्ताहिक स्तंभ )