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प्रथम दृष्टिः जीत के किरदार

इस बार बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी को अपना मत इस उम्मीद में दिया है कि राज्य...
प्रथम दृष्टिः जीत के किरदार

इस बार बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी को अपना मत इस उम्मीद में दिया है कि राज्य सरकार वह कर दिखाएगी, जिसे अब तक नामुमकिन समझा जाता रहा है: औद्योगिकीकरण से रोजगार सृजन और पलायन पर रोक

जनहित के लिए किए गए विकास कार्यों का विकल्प नहीं है। लोकतंत्र में कोई नेता ओजस्वी वक्ता हो सकता है, किसी के पास जनता से सीधे संवाद करने की अद्भुत कला हो सकती है, किसी को सरकार बनाने के लिए प्रचंड बहुमत मिल सकता है, लेकिन चुनावी मैदान में अगर लंबी पारी खेलनी है, तो आम लोगों के जीवन स्तर को सुधारने वाले ठोस कदम उठाने ही पड़ेंगे। जिस नेता को जनता चुनावों में बहुमत देकर सत्ता सौंपती है, उसे यह समझना चाहिए। दरअसल जनता में जब यह धारणा बन जाती है कि सत्ता का शीर्ष पद मिलने के बावजूद कोई नेता निजी हित के बजाय जनहित के काम को प्राथमिकता देता है, तो उसे उसका फायदा लंबे समय तक मिलता है। हाल के वर्षों में अगर किसी नेता ने इस सूत्र को अपने सियासी जीवन में पूरी तरह आत्मसात किया है, तो वे नीतीश कुमार हैं। हाल में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव में जिस तरह से प्रदेश के मतदाताओं ने नीतीश के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को भारी बहुमत देकर एक बार फिर सत्ता सौंपी है, उसमें नीतीश के नेतृत्व का महत्वपूर्ण योगदान है। अगर किसी मुख्यमंत्री के बीस वर्षों तक सत्ता में रहने के बावजूद उसके खिलाफ चुनाव में कोई लहर नहीं दिखी तो सबसे बड़ा कारण यही हो सकता है कि जनता ने उसके किए विकास कार्यों पर मुहर लगाई है।

इस चुनाव में एनडीए ने लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल के पंद्रह वर्षों के शासन के दौरान कानून-व्यवस्था की लचर स्थिति को फिर से मुद्दा बनाया। बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व घटी भूली-बिसरी सनसनीखेज वारदातें सोशल मीडिया में सुर्खियां बनीं। यह तो निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि उसका असर युवा मतदाताओं पर इस चुनाव में पड़ा, लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नीतीश के कार्यकाल के दौरान हुए विकास और उनके पूर्व दो मुख्यमंत्रियों के शासनकाल के दौरान हुए विकास में जमीन-आसमान का अंतर दिखता है। ताजा चुनाव परिणामों से बिहार की जनता ने यही संदेश दिया है।

हालांकि आर्थिक मामलों के जानकार विकास के पैमानों पर आधारित आंकड़ों का हवाला देकर कहते हैं कि बिहार अभी भी देश के सबसे पिछड़े राज्यों में है। लेकिन, जब आज के बिहार की तुलना बीस वर्ष पहले के बिहार से की जाती है, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि विकास के मानकों पर राज्य ने लंबी छलांग लगाईं है, चाहे स्वास्थ्य और शिक्षा का क्षेत्र हो या प्रति व्यक्ति आय की बात हो।

बिहार अगर किसी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र में काफी पिछड़ा हुआ है, तो वह उद्योग का क्षेत्र है, जो उसकी अधिकतर समस्याओं की जड़ है। यह भी कटु सत्य है कि देश के प्रमुख औद्योगिक घराने बिहार में निवेश करने से झिझकते हैं। किसी जमाने में कहा जाता था कि बिहार में समुचित बिजली के अभाव, सड़कों की बेहाल स्थिति, लचर कानून-व्यवस्था और लालफीताशाही के कारण कॉर्पोरेट जगत बिहार से दूर रहता है। लेकिन, नीतीश के कार्यकाल में स्थितियां बदली हैं। आज दूरदराज के गांवों में बिजली 22 से 24 घंटे उपलब्ध है, बेहतरीन सड़कों का जाल बिछ गया है और कानून-व्यवस्था चिंता का विषय नहीं है। बिहार में नए एयरपोर्ट बन गए हैं जिससे कनेक्टिविटी का मसला हल हो गया है।

इसके बावजूद बिहार की सबसे बड़ी समस्या अभी भी रोजगार की कमी है, जो लालू यादव-राबड़ी देवी के शासन काल के दौरान भी थी और उससे पूर्व के कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल के दौरान भी। उद्योग-धंधों के अभाव में बड़ी संख्या में बिहार के युवा दूसरे प्रदेशों में पलायन करते हैं। इस चुनाव में प्रशांत किशोर ने इसे सबसे अहम मुद्दा बनाने की कोशिश की। भले ही उन्हें मतदाताओं का समर्थन नहीं मिला लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि नीतीश सरकार को इस मसले का हल गंभीरता से ढूंढना पड़ेगा।

बिहार का चहुंमुखी विकास तब तक नहीं हो सकता और पलायन तब तक नहीं रुक सकता, जब तक वहां औद्योगिक विकास नहीं होगा। बिहार में एनडीए सरकार के नए कार्यकाल की सबसे बड़ी प्राथमिकता यही होनी चाहिए। अगले पांच साल में जनता दल-यूनाइटेड और भाजपा की डबल इंजन सरकार को बिहार के औद्योगीकीकरण के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए। सरकार को बड़े कॉर्पोरेट घरानों में वहां बड़े उद्योग स्थापित करने के लिए भी भरोसा जगाना पड़ेगा। बिहार पिछड़ेपन के ‘बीमारू’ दौर से आगे निकल गया है और औद्योगीकीकरण से ही उसके विकास को नई रफ्तार मिल सकती है। इस बार बिहार की जनता ने नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी को अपना मत इस उम्मीद के साथ दिया है कि राज्य सरकार अगले पांच साल के कार्यकाल के दौरान बिहार के लिए वह कर दिखाएगी, जिसे अब तक नामुमकिन समझा जाता रहा है: औद्योगिकीकरण से रोजगार सृजन और पलायन पर रोक।

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