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स्कूली छात्रा ने अपने नवविवाहित बहन-बहनोई को गर्भनिरोध पर परामर्श लेने को आखिर तैयार कर ही लिया

डा. अजीत फ्रेडजीव दिनकरलाल एवं आशीष मुखर्जी यह कहानी कुख्यात दस्यु सुंदरी फूलन देवी के भय से कभी...
स्कूली छात्रा ने अपने नवविवाहित बहन-बहनोई को गर्भनिरोध पर परामर्श लेने को आखिर तैयार कर ही लिया

डा. अजीत फ्रेडजीव दिनकरलाल एवं आशीष मुखर्जी

यह कहानी कुख्यात दस्यु सुंदरी फूलन देवी के भय से कभी कांपने वाले चंबल से लगे राजस्थान के धौलपुर जिले की एक छात्रा प्रियंका से शुरू होती है। पुरुष प्रधानता के माहौल वाले क्षेत्र में प्रियंका परिवार के पुरुष सदस्यों के भोजन करने के बाद बचे-खुचे हिस्से (अगर बचा तो) को ही खाने के लिए अभ्यस्त थी। वह मासिक धर्म के समय खुद को सूखा रखने के लिए रेत और सूखी पत्तियां इस्तेमाल करती थी और पसंद न होने पर भी वह अपने आसपास किसी बात पर कुछ भी कहने से बचती थी। गांव की दूसरी कम उम्र लड़कियों और महिलाओं की तरह उसने भी बिना किसी विरोध के यह सब सीख लिया था।

रूढ़िवादी पृष्ठभूमि जिसमें प्रथाओं और मान्यताओं पर कुछ भी तर्क देने की गुंजाइश नहीं थी, लेकिन प्रियंका ने हाल में अपने स्कूल में यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य पर एक सेशन में भाग लेना शुरू किया। यह सेशन राजस्थान में किशोरावस्था में गर्भधारण से रोकथाम के लिए लांच पायलट प्रोजेक्ट उड़ान के तहत आयोजित किया गया था। इस सेशन के दौरान भोजन, पोषण, स्वच्छता, गर्भनिरोधकों और अन्य स्वास्थ्य विधियों के बारे में उसने अपनी सहेलियों के साथ समझना शुरू किया। जानकारियां देने वाले इस सेशन ने लड़के और लड़कियों को विचारों का आदान-प्रदान करने और भ्रांतियां दूर करने का भी मौका दिया क्योंकि इसने पोषण, प्रजनन अधिकार और यहां तक कि भय और आए दिन सामने आने वाली सामाजिक कुरीतियों जैसे गूढ़ मसलों जिन पर उनके समाज में बात करने पर मनाही रहती है, पर प्रशिक्षकों और साथियों से बात करने का अवसर प्रदान किया। इन चर्चाओं के साथ ही उन्हें स्वास्थ्य केंद्रों और परामर्श केंद्रों पर जाने का भी अवसर मिला, जहां डॉक्टरों और परामर्शदाताओं ने न सिर्फ स्वास्थ्य और पोषण पर उनके संदेह दूर किए, बल्कि उन्हें पूरी जानकारी भी दी। जानकारी हासिल करने के बाद छात्रों ने अपने ज्ञान को अगले स्तर पर ले जाने का फैसला किया। उन्होंने स्कूल के हर बच्चे तक संदेश पहुंचाने के लिए स्कूल के अधिकारियों को समय तय करने के लिए राजी कर लिया। उन्हें जल्दी ही स्टूडेंट असेंबली के दौरान यह जानकारी साझा करने का मौका मिल गया।

तिहरा प्रभाव

जैसे ही धौलपुर स्थित स्कूल के परिसर में ये गतिविधियां चालू हुईं, प्रियंका को याद आया कि उसे एक और ज्यादा महत्वपूर्ण कार्य अपने घर जाकर करना है। गरिमा और आत्मसम्मान, सशक्तिकरण और जिम्मेदारी के भाव के साथ नई जानकारी पाने वाली प्रियंका अपने बहनोई से मिलने पहुंच गई। उसने महसूस किया कि सेशन के माध्यम से मिली जानकारी किसी और के बजाय उसकी नव विवाहित बड़ी बहन और बहनोई को मिलनी चाहिए। इस क्षेत्र में माता-पिता बेटी को बोझ मानते हैं और जल्दी से जल्दी विवाह करके इस जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं। अपने दिमाग में कई तरह के विचारों में मग्न प्रियंका के लिए उन्हें समझाना और ज्यादा कठिन था क्योंकि यह मसला काफी संवेदनशील था जिस पर वह बात करने जा रही थी। इसके अलावा समाज में रची-बसी परंपराओं पर सवाल उठाना उसके लिए और ज्यादा चुनौतीपूर्ण था।

एक दुष्कर कार्य

जैसे ही प्रियंका ने इस विषय पर बात करना शुरू किया, उसकी बहन को शर्माकर बात को टालने लगी। अपने बहनोई जो उसकी मौजूदगी से खुश नहीं दिख रहे थे, ने उसे बात शुरू करने से पहले ही रोकने का प्रयास किया। चूंकि उसके बहनोई और ज्यादा असहज स्थिति से बचने के लिए इस विषय पर बात करने से विरोध कर रहे थे, ऐसे में प्रियंका ने खुद को मजबूत करके अपनी बात को तेज स्वर में और स्पष्टता के साथ रखना शुरू किया। एसआरएच सेशन के दौरान जानकारी देने और व्यवहार में बदलाव लाने के लिए नए दृष्टिकोण ने उसे अच्छा और आत्मविश्वासी वार्ताकार बना दिया था। यह दिखाई दे रहा था कि उसने अपने बहनोई को उनके घर पर अपनी बात सुनाने के लिए विवाद और बहस शुरू कर दी।

उसने अपने बहनोई को समझाया कि उसकी बहन अभी बहुत छोटी है। उसके और होने वाले बच्चे जिसकी वे भविष्य में कामना करते हैं, के स्वास्थ्य के लिए उसकी बात समझना अच्छा होगा। बेहतर होगा कि उसे उसकी बात सुननी चाहिए और उसकी बहन के गर्भधारण के लिए अभी इंतजार करना चाहिए ताकि वह आवश्यक पोषण प्राप्त कर सके और स्वास्थ्य की देखभाल कर सके। उसने अपनी बात को आगे बढ़ाया और उन्हें गर्भनिरोध के उपलब्ध विभिन्न तरीकों के बारे में बताया। उसने उजाला क्लीनिक्स और परामर्श केंद्रों के बारे में भी बताया, जहां वे जाकर इस जानकारी की पुष्टि कर सकते हैं। जब उसने अपनी जानकारी देने के लिए भावनात्मक तर्क दिए तो आखिर यह जोड़ा मुस्कराया और निकटवर्ती सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में परामर्शदाता से मिलने को तैयार हो गया। उन्होंने वहां जाने के समय प्रियंका को भी साथ चलने का आग्रह किया।

बदलाव के वास्तविक वाहक

जब उसने यह कहानी अपने सहेलियों और अध्यापकों को साझा की कि उसने कैसे अपने बहनोई और बहन को इसके लिए राजी कर लिया, तब उसे अहसास हुआ कि इस लड़ाई में वह अकेली नहीं है। अनेक लड़कियों को इसी तरह का विरोध झेलना पड़ा जब उन्होंने अपने घर या पड़ोस में किसी को इस प्रगतिशील कदम की ओर आगे बढ़ने के लिए किसी को समझाने का प्रयास किया। उन लड़कियों को भी प्रियंका की तरह साहसिक कदम उठाना पड़ा था।

नेशनल हेल्थ फेमिली सर्वे के अनुसार छोटे कद और कम वजन के 44 फीसदी बच्चे अशिक्षित माताओं से पैदा हुए। प्रियंका के स्कूल के अध्यापकों को यह अहसास हुआ कि ये छोटे बच्चे बदलाव के वास्तविक वाहक हैं। ये बच्चे स्कूल में जानकारी पाकर समाज में फैला सकते हैं और बदलाव की इस प्रक्रिया के हिस्सा बन सकते हैं।

महिलाओं की सबसे ज्यादा दुर्दशा

चर्चाओं के दौरान एनीमिया पर नियंत्रण के लिए व्यापक और बहुक्षेत्रीय तंत्र की आवश्यकता को सबसे ज्यादा अहमियत मिली और बातचीत में पोषण अहम रहा। एक साल पहले जब  नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे हुआ, तब बता चला कि देश में 15 से 49 वर्ष की 53 फीसदी महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। एनीमिया (जब हीमोग्लोबिन का स्तर 12ग्राम/डेसीलीटर से कम हो) होने पर शरीर में ऑक्सीजेनरेटेड ब्लड के प्रवाह के लिए रेड ब्लड सेल में आवश्यक होमीग्लोबिन पैदा करने को आयरन की मात्रा पर्याप्त नहीं होती है। इसके कारण थकान रहती है और तमाम तरह की बीमारियां होने का खतरा बढ़ जाता है। देश में लिंगभेद, अपर्याप्त एवं खाद्य वस्तुओं के समान वितरण और उपभोग के अभाव के कारण पुरुषों के मुकाबले महिलाओं में संतुलित पोषण की कमी ज्यादा गंभीर है। इसका सामाजिक और शारीरिक प्रभाव अंततः बच्चों, किशोरों और माताओं पर दिखाई देता है।

भारत में संस्कृति और परंपराएं अनेक और विविध हैं, जो यात्रा के दौरान हर 100 किलोमीटर पर बदलती दिखाई देती हैं। इससे संकेत मिलते हैं कि दुनिया के दूसरे देशों में केंद्रीय योजनाएं प्रभावी हो सकती हैं लेकिन भारत में वे असर नहीं डाल पाएंगी, अगर हम उन्हें लागू करें। अपनी विविधता पर गर्व करने वाले देश में प्रत्येक योजना स्थानीय जरूरत के अनुरूप होनी चाहिए। पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के दौरार में जहां सरकारी कार्यक्रम सामाजिक क्षेत्र की परियोजनाओं को मदद दे रहे हैं ताकि विभिन्न समुदायों के मसलों को सुलझाते हुए समस्याओं का समाधान निकाला जा सके।

राजस्थान में एनीमिया से पीड़ित महिलाओं का अनुपात करीब 47 फीसदी है। वहां गांवों में 40.5 फीसदी लड़कियों की शादी कम उम्र में ही कर दी जाती है। इसका नतीजा यह दिखाई देता है कि स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ने वालों का अनुपात बढ़ रहा है। गर्भवती महिलाओं, माताओं और शिशुओं में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही हैं। लेकिन शैक्षिक और आर्थिक अवसर प्राप्त करती ये कम उम्र लड़कियां राज्य में अपवाद हैं।

धरातल पर बनती नीतियां

राजस्थान में अनीमिया का असर बड़ी आबादी पर होने की बात सामने आने के बाद साप्ताहिक आयरन एवं फोलिक सप्लीमेंटेशन प्रोग्राम शुरू किया गया। जब नीति निर्धारकों को महसूस हुआ कि इस समस्या का दायरा बहुत व्यापक है और किसी प्रभावी एवं स्थायी बदलाव के लिए इस पर नियंत्रण आवश्यक है। ऐसे में सिर्फ इस योजना से समस्या का समाधान नहीं होगा। पोषण के बारे में यह बात वहां पर हो रही है जहां पोषण के स्रोत बहुतायत में उपलब्ध हैं। हमें अपने आसपास और आसानी से उपलब्ध इन स्रोतों की पहचान करवाना भर है। पश्चिम जगत की तरह हम सीमाओं में बंधे नहीं हैं। प्रगतिशील बदलाव के लिए धारणा बनाने से पहले तथ्यों पर आधारित मजबूत आधार बनाने की मूलभूत आवश्यकता है।

हमारी भोजन संबंधी पसंद और प्राथमिकताएं सांस्कृतिक सीमाओं और प्रथाओं पर आधारित सामाजिक-जनसांख्यिकीय कारकों पर निर्भर होती हैं। इसके साथ ही उपभोग का पैटर्न वितरण, उपलब्धता और वहनीयता जैसे सामाजिक-आर्थिक कारकों से प्रभावित होता है। पोषण की धारण स्पष्ट हो जाती है, जब हम समझने लगते है कि हमारे आसपास और नजदीकी खेतों से क्या प्राप्त होता है। 

मिलकर खाओ, अच्छा खाओ

पश्चिम माहौल से प्रभावित कुछ न्यूट्रीशनिस्ट राजस्थान में मीट आधारित संतुलित पोषण लेने की सलाह देते हैं। इससे हम सांस्कृतिक पंरपराओं को समझने और मानने से विमुख हो सकते हैं क्योंकि राजस्थानी शाकाहारी होने पर गर्व करते हैं। इस बात को ध्यान में रखकर हमें देखना चाहिए कि हम राजस्थान की सबसे कठिन जलवायु और सबसे शुष्क क्षेत्र में क्या उगाते हैं। आम राजस्थानी को उपलब्ध खाद्य वस्तुओं की विविधता को समझने के लिए किए अध्ययनों से पता चलता है कि स्थानीय स्तर पर उपलब्ध मोटे अनाज, गेहूं आटा, दालें, चावल, बाजरा, सोगरा और दुग्ध उत्पाद हमारे आहार में पोषण की आवश्यकता पूरी कर देंगे।

पोषण के इन स्रोतों का इस्तेमाल करके मात्रा पूरी करने के बावजूद कमी क्या बचती है। मानवीय व्यवहार को समझकर हम खानपान के बेहतर प्रभाव की रणनीति बना सकते हैं। सामुदायिक स्तर पर समूह में और घर पर अधिक से अधिक लोगों को एक साथ भोजन करना बेहतर है। ऐसे अवसरों की भी पहचान की जानी चाहिए जिनकी ओर किसी का ध्यान नहीं है। राजस्थान में लोगों की समुदाय में रहने की आदत है। वे समूह में रहते हैं, यात्रा करते हैं और काम करते हैं। तो फिर एक साथ भोजन क्यों नहीं कर सकते। यह साधारण सा विचार जब लागू किया गया तो असमान वितरण और भेदभाव की समस्या सुलझने लगी। पहुंच और उपलब्धता का मुद्दा सुलझ गया क्योंकि लोग गुणवत्ता और मात्रा के लिहाज से अच्छा खाने लगे। मतभेद भुलाकर एक-दूसरे के साथ भोजन साझा करने का आनंद उन्हें समझ में आ गया।

जैसे प्रियंका अपने समुदाय में बदलाव लेकर आई, उद्देश्यपरक और उपयोगी प्रगतिवादी बदलाव के लिए व्यापक और बहुक्षेत्रीय तंत्र विकसित करना संभव है, अगर हम आसान और मिलकर प्रयास करें। जब लोग अपने आसपास व्यवस्था को बदलने लगते हैं तो उनके भीतर भी बदलाव आने लगता है क्योंकि मजबूत और सशक्त व्यक्ति ही अपने घर या समुदाय में बहस कर सकता है। तमाम क्षेत्रों की जटिल समस्याओं के लिए आसान समाधान तलाशना चाहिए, भले ही वे हमें गार्डियन नॉट की तरह दिखती हों, लेकिन अंततः हम उन्हें समझ लेते हैं।

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