Advertisement

महिलाएं सबसे बाद में बचा-खुचा खाती हैं, इसलिए भारत कुपोषण का शिकार

बात जब खाने की आती है, तो एक ही घर में पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर साफ दिखाई देता है। महिलाएं सबसे...
महिलाएं सबसे बाद में बचा-खुचा खाती हैं, इसलिए भारत कुपोषण का शिकार

बात जब खाने की आती है, तो एक ही घर में पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर साफ दिखाई देता है। महिलाएं सबसे आखिर में और बचा-खुचा, प्रायः अपर्याप्त खाती हैं। भारत में पोषण की क्रांति तभी संभव है जब महिलाओं के पोषण को एजेंडा में शामिल किया जाए।

शर्मिष्ठा चक्रवर्ती

आमतौर पर घर के बाहर पुरुष का राज होता है और घर के भीतर महिलाओं का। लेकिन भारत में भी 1950 के बाद काम के लिए महिलाओं के घर से बाहर निकलने के साथ इस विभाजन में बदलाव आया। फिर भी अधिकांश घरों में महिलाएं ही रसोई संभालती हैं और पूरे परिवार के पोषण का ख्याल रखती हैं।

रसोई में राशन की व्यवस्था से लेकर हर दिन ‘क्या बनेगा’ तक महिलाएं ही निर्णय लेती हैं। लेकिन जब बात समुचित आहार की आती है तो एक ही घर के पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर दिखाई देता है। महिलाएं घरों में सबसे आखिर में खाना खाती हैं और जो बच जाता है, वही खाती हैं, प्रायः कम भोजन बचने पर वही खाकर संतुष्ट हो जाती हैं। जागरूकता की कमी से दशकों से भारतीय महिलाएं उचित पोषण से वंचित रही हैं और यह तथ्य आज तक भारत को प्रभावित कर रहा है।

भारत में हर दूसरी महिला एनिमिया से पीड़ित है, हर तीसरी महिला का बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई) कम है और हर चौथे बच्चे का जन्म के समय वजन मानक से कम होता है। ये स्थितियां भारत में कुपोषण को विकट बनाती हैं। जबकि 1975 में बच्चों में अत्यधिक कुपोषण की पहचान करने वाला भारत पहला राष्ट्र था और उसी साल हमने एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) की शुरुआत की थी। लेकिन कई नीतियों और योजनाओं के बाद भी महिलाओं का पोषण आज भी बेहद खराब है।

महिलाएं ही क्यों?

कई अध्ययनों और शोधों ने निर्णायक रूप से साबित किया है कि स्वस्थ महिलाओं के हृष्ट-पुष्ट शिशु पैदा होने की अधिक संभावना होती है। ये बच्चे ही आगे चलकर स्वस्थ वयस्क बनते हैं। महिलाओं में पीढ़ी दर पीढ़ी कुपोषण के बोझ के लिए ग्लोबल स्तर पर वैज्ञानिक फोकस उनकी भोजन की आदतों पर बढ़ा है। कुपोषण के दुष्चक्र को तोड़ने के लिए इसे कुंजी माना जा रहा है।

महिलाओं के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति उनके जीवन की गुणवत्ता का केंद्र है। यह देश की भावी पीढ़ियों के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है। आज यह निर्विवाद रूप से साबित हो चुका है कि महिलाओं के पोषण स्तर में सुधार का प्रभाव शिशु के जन्म और बच्चे की लंबाई के तौर पर दिखाई देता है। लड़कियों की किशोरावस्था में ही पोषण सुधार शुरू करना होगा। खराब स्वास्थ और बीमारियों के लिए जिम्मेदार कई सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी को दूर करने के लिए स्वास्थ्यवर्धक भोजन और स्वास्थ्य सेवाओं तक आसान पहुंच बहुत महत्वपूर्ण है।

पुरुष प्रधानता की जकड़

लेकिन क्या यह सिर्फ आहार और पोषण तक का मामला है? शोधकर्ता महिलाओं के पोषण और स्वास्थ्य पर उनके प्रभाव का पता लगाने के लिए सामाजिक सूचकांकों पर देखते हैं। सामाजिक प्रगति के बावजूद आमतौर पर महिलाएं उसी व्यवस्था का अनुसरण कर रही है जो पुरुषों ने बनाई है। वर्ग और जातीय वर्गीकरण से पितृसत्तात्मक व्यवस्था की पकड़ और मजबूत होती है जिससे महिलाओं के लिए भेदभाव से बचना और भी मुश्किल हो जाता है।  

लड़कियों को अक्सर दोयम दर्जे का समझा जाता है, उन्हें जरूरत भर का भोजन इसलिए मिलता है ताकि वे पत्नी और मां बन सकें। शिक्षा और आजीविका के अवसर उनकी पहुंच से दूर कर दिए जाते हैं। कई अध्ययनों में महिला शिक्षा और अबोध बच्चों के बीच कुपोषण में कमी के बीच मजबूत अंर्तसंबंध मिला है। शिक्षा के अभाव को चुनौती देने में प्रगति से कुपोषण कम हो सकता है। हालांकि, शहरी और ग्रामीण व्यवस्था में इसमें काफी अंतर दिखाई देता है।

कम उम्र में शादी

जल्दी शादी और किशोरावस्था में गर्भधारण से खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के लिए अभी भी खतरे हैं। भारतीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान द्वारा 2007 की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि 47 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में हो जाती है और उनमें से अधिकांश कम उम्र में मां भी बन जाती हैं। कुपोषित होने के साथ जब कम उम्र में गर्भ ठहरता है तो यह स्वास्थ्य, पोषण और मानसिक स्वास्थ्य तीनों के लिए घातक हो जाता है।

महिलाओं के प्रति हिंसा

हाल ही में शोधकर्ताओं ने इसमें एक नया नजरिया खोजा है कि कैसे महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा उनके पूरे विकास में बाधक बनती है। मानसिक या शारीरिक हिंसा माताओं के मानसिक स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करती है और बदले में उनके शारीरिक स्वास्थ्य और पोषण, गर्भावस्था, प्रसव पूर्व देखभाल, भ्रूण विकास और बच्चे के जन्म पर प्रभाव पड़ता है। कुपोषित माताओं के बच्चे अंततः कुपोषित ही रह जाते हैं।

अलख जलानी होगी

हाल के वर्षों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पोषण की कमी की चुनौती के बारे में राजनीतिक बहस तेज हुई है। इस बहस ने भारत में काफी समय से लंबित पोषण अभियान (राष्ट्रीय पोषण मिशन) को तुरंत लांच करने का रास्ता खोल दिया। इसमें कुपोषण को दूर करने के लिए बेहतर डाटा संग्रह, निगरानी और मूल्यांकन तंत्र के साथ एक दृष्टिकोण है। कुपोषण ने 2019 के लोकसभा चुनाव के कई राजनीतिक दलों के घोषणापत्र में अपना स्थान बनाया, इससे लोकप्रिय मांग और राजनीतिक इच्छाशक्ति परिलक्षित होती है।

महिला सशक्तीकरण सरकार की प्राथमिकता है। शिक्षा, सामाजिक और आजीविका क्षेत्रों में उनकी भागीदारी को बेहतर बनाने के लिए कई पहल की गई हैं। आजीविका के अवसरों और आर्थिक स्वतंत्रता को उन्नति के बेहतर विकल्प के रूप में देखा गया है। यह लैंगिक समानता और परिवार की खुशहाली के लिए महत्वपूर्ण है।

एकता में शक्ति

माना जाता है कि 2011 का राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन दुनिया का सबसे बड़ा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम है, जो हाशिए की ग्रामीण महिलाओं को स्व-प्रबंधित स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) में जमीनी स्तर पर संगठित करने के लिए काम कर रहा है। स्थापना के बाद से, एसएचजी ने यह साबित करने के लिए लंबा रास्ता तय किया है कि महिलाओं तक संसाधनों की पहुंच आसान होने से ये समूह न सिर्फ घरों के भीतर उन्हें सशक्त बनाते हैं, बल्कि स्वास्थ्य और पोषण के लिए व्यवहार में बदलाव के लिए वाहक बनते हैं। बिहार में जीविका, केरल में कुदुमश्री और बिहार, छत्तीसगढ़ और ओड़िशा में स्वाभिमान जैसे कार्यक्रम एसएचजी के माध्यम से पोषण सुधार के सफल उदाहरण हैं। एक अनुमान के मुताबिक देश में 54,94,554 समूह हैं और विस्तार की अभी भी गुंजाइश है। स्थाई व्यवहार परिवर्तन के लिए सूचना, जागरूकता और सहायता की जरूरत पूरी करने में कमजोर और हाशिए पर पहुंची महिलाओं तक मदद पहुंचाने की आवश्यकता है।

समाधान की तलाश

महिलाओं को पोषण की जटिलताओं पर संवेदनशील बनाने और बेहतर पोषण प्रथाओं के लिए उन्हें शिक्षित करने के लिए उनकी सहकारी समितियों, जैसे कि महिला डेयरी सहकारी, महिला औद्योगिक सहकारी सोसायटी लिमिटेड, स्व-नियोजित महिला संघ  सहकारी समितियों, समृद्धि महिला सहकारी समिति के साथ जुड़ने के लिए किया जा सकता है।

2011 की जनगणना के अनुसार अनुमानित 61.5 प्रतिशत भारतीय आबादी कृषि पर निर्भर है। 2018 के ऑक्सीफेम डाटा के अनुसार, भारत में कृषि क्षेत्र में 80 फीसदी आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाएं हैं और इनमें 33 फीसदी कृषि श्रम शक्ति शामिल है। इस तरह के प्लेटफॉर्म पोषण युक्त भोजन, फसल कटाई, आहार विविधता, किचन गार्डन जैसे संदेशों को दूसरों तक पहुंचाते हैं।  

खेतों पर महिलाओं का नियंत्रण होने से उनमें परिवारों की पोषण आवश्यकता को देखते हुए सही निर्णय लेने की क्षमता विकसित होगी। इससे उन्हें उपभोग का अंदाजा होगा और वे पोषण की कमी को पूरा कर सकेंगी। ऐतिहासिक तौर पर कृषि नीतियों ने सिर्फ पुरुषों को लक्षित किया है। इसे बदलने और इसमें महिलाओं को लक्षित करने की जरूरत है ताकि वे महत्वपूर्ण संपत्तियों सूचना, संसाधनों, बाजार और निर्णय लेने की बेहतर क्षमता पा सकें।

संवैधानिक वादा

महिलाओं के लिए चेयरपरसन के एक-तिहाई पदों को आरक्षित करने के संवैधानिक वादे को पूरा करने की आवश्यकता है। सही सूचना और प्रशिक्षित महिलाएं, महिलाओं और परिवार के पोषण से संबंधित कार्यक्रम को आगे लाने की आवश्यकता है। 255,529 पंचायत राज संस्थाओं की अनुमानित संख्या के साथ देश में बड़ी संख्या में महिला पंचायत सदस्यों को "पोषण परिवर्तन मार्गदर्शक" बनाने की बहुत जरूरत है।

भारत में महिलाओं को "अच्छे पोषण" परामर्शदाताओं में बदलने के लिए सामूहिक रूप से महिलाओं के बड़े समूहों का रणनीतिक उपयोग करने की आवश्यकता है। उम्मीद है, भारत महिलाओं के पोषण के एजेंडे को एक ऑटो-पायलट मोड में डालने का प्रबंधन करेगा। और उन लोगों को अनुमति देगा जो देश की आधी आबादी और जरूरी बदलाव का प्रतिनिधित्व करती हैं।

(लेखक प्रोजेक्ट कंसर्न इंटरनेशनल इंडिया में सीनियर प्रोग्राम मैनेजर- कॉलेज मैनेजमेंट, एडवोकेसी एंड कम्युनिकेशन के रूप में काम करती हैं)

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad