अनन्या अवस्थी
“सिर्फ 30 दिनों में 10 किलो वजन घटाओ” या “सिर्फ चार हफ्ते में गोरे हो जाओ” जैसे तमाम विज्ञापन हम सभी का ध्यान खींचते हैं। जब मानव समाज में सुंदरता खासकर शरीर की बनावट, आकार और रंग को लेकर एक तरह का जुनून दिखाई देता है, ऐसे में इन विज्ञापनों की ओर ध्यान जाना लाजिमी है। इससे खूबसूरती के पैमाने पर शरीर के आकार और त्वचा के रंग को लेकर खास तरह की परिकल्पना और धारणा विकसित हो गई। लेकिन समस्या तब पैदा होने लगी जब समाज ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से इन्हें कड़े मानदंडों के रूप में लागू कर दिया। भारत के संदर्भ में और ज्यादा सही है, जहां विवाह और बेहतर रोजगार की संभावनाओं के लिए खास तरह के शरीर के आकार और त्वचा के रंग को लेकर जैसे सनक पैदा हो गई। किशोर लड़के और लड़कियों को ये मानदंड मानने की ज्यादा आवश्यकता महसूस होने लगी। इस पर भी ऐसे उत्पादों की आक्रामक मार्केटिंग ने दबाव डाला जिन्हें शरीर की सुदंरता से संबंधित सभी समस्याओं के लिए संपूर्ण समाधान के तौर पर पेश किया गया।
गोलियां, पाउडर और शेक के रूप में तमाम उत्पाद वजन घटाने के समाधान के रूप में बेचे जा रहे हैं। इनके विज्ञापन लगातार याद दिलाते रहते हैं। यहां तक कि ऑटो रिक्शा के पीछे विज्ञापन मिल जाएगा, “सिर्फ 30 दिनों में वजह घटाएं।” ऑनलाइन मार्केट में आप वेट लॉस पिल्स को सिर्फ गूगल कीजिए, आपको पूरी जानकारी मिल जाएगी। अगर वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो फिजीशियल वजन घटाना या मांसपेशियां बनाने के लिए पिल्स, शेक और पाउडर लेने की सिफारिश नहीं करते हैं। इन उत्पादों के प्रभाव को लेकर कोई जांच अथवा क्लीनिकल ट्रायल नहीं होता है। अंततः ये उत्पाद निष्प्रभावी और महंगे साबित होते हैं। यही नहीं, इनमें प्रतिबंधित या बिना अनुमति वाले खतरनाक केमिकल फेन-फेन और डीएमएए और कई बार तो इससे भी ज्यादा घातक स्टेरॉयड का अत्यधिक डोज इन उत्पादों में मिलता है।
ऐसे खतरनाक केमिकलों का उपभोग करने से लिवर को नुकसान होने, हृदय रोग होने और यहां तक कि शरीर के अंग फेल होने का खतरा बढ़ जाता है। इससे जीवन पर भी संकट आ सकता है। हार्वर्ड चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के डा. ऑस्टिन ब्रायन द्वारा किए गए रिसर्च से पता चला है कि यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन को स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ने की घटनाओं में विटामिन के मुकाबले वेट लॉस सप्लीमेंट ज्यादा घातक साबित हुए है। विटामिन भी सप्लीमेंट के तौर पर लिए जाते हैं। इससे भी बढ़कर अमेरिकन एकेडमी ऑफ पीडिएट्रिक्स ने रिपोर्ट जारी करके कहा है कि किशोरों को किसी भी अवस्था में ये उत्पादन लेने की सलाह नहीं दी जानी चाहिए, भले ही शरीर की बनावट कैसी भी हो। अनुसंधानकर्ताओं ने इस तरह के सप्लीमेंट्स के सेवन को अस्वास्थ्यकर वेट कंट्रोल प्रक्रिया कहा है जिससे खान-पान समस्याएं पैदा होती है। मसलन, अध्ययनों से पता चला है कि वेट लॉस सप्लीमेंट लेने वाली लड़कियों को कुछ वर्षों में ही खानपान की समस्याएं होने लगती हैं। रिसर्च से मिले ये तथ्य भारत के संदर्भ में ज्यादा सटीक हैं क्योंकि यहां किशारों को मोटापे के लिए खासकर लड़कियों को समाज शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। युवाओं को अपने परिवारों, दोस्तों और समाज से खास तरह की शारीरिक बनावट के लिए बहुत दबाव झेलना पड़ता है। ऐसे में मोटापे से परेशान किशोर इन उत्पादों के विज्ञापनों के झांसे में आसानी से आ जाते हैं।
गोरेपन की क्रीमों के मामले में भी यही स्थिति है। गोरे होने की ललक के कारण ही भारत लंबे समय से फेयरनेस उत्पादों का पसंदीदा बाजार बना हुआ है। देश में उपनिवेशवाद के इतिहास और पूरी दुनिया में रंगवाद के चलते हमारे समाज में गोरेपन को सुंदरता का पैमान मान लिया गया। समाज में उत्थान और कुछ हद तक बेहतर रोजगार अवसर गोरेपन के साथ जुड़ गए हैं। यह बात लड़कियों के मामले में ज्यादा सटीक साबित होती है क्योंकि समाज उनसे त्वचा को गोरा बनाने के बेकार प्रयास करने की अपेक्षा रखता है। समाज का नजरिया समझने के लिए सबसे आसान है कि आप मैट्रीमॉनियल वेबसाइटों पर नजर डालें तो आपको पता चलेगा कि दूल्हों के मात-पिता हमेशा गोरी दुल्हन की चाहत पेश करते है। इसकी वजह से लड़कियां फेयरनेस क्रीम, सोप और पाउडर अपनाने को मजबूर हो जाती हैं। लड़कियों के लिए अगर यह भी बाध्य नहीं करता है तो फिल्मी कलाकार और इंस्टाग्राम की मशहूर हस्तियां ऐसे उत्पादों का प्रचार करके फेयरनेस क्रीम अपनाने के लिए सलाह देते दिखती हैं। जबकि विज्ञान का कहना है कि अपनी त्वचा में मौजूद मेलानिन की मात्रा के अनुसार रंग तय होता है। इसे कॉस्मेटिक उत्पादों का इस्तेमाल करक बदला नहीं जा सकता है।
लेकिन सामाजिक विज्ञान और मानव विज्ञान के निष्कर्ष वैज्ञानिक मत को पूरी तरह नकारते हैं और आरोप लगाते हैं कि इससे त्वचा के रंग के आधार पर निर्धारित सामाजिक ऊंच-नीच को जायज ठहराया गया है। हालांकि हाल की एडवांस रिसर्च से यह भी पता चलता है कि कुछ फेयरनेस क्रीमों में जहरीले केमिकल भी होते हैं जो लंबे समय तक इस्तेमाल किए जाने पर स्वास्थ्य के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं।
वैज्ञानिक निष्कर्षों को ध्यान में रखकर छद्म विज्ञान को नकारने की आवश्यकता है। किसी तरह के रेगुलेशन से मुक्त इन उत्पादों के इस्तेमाल से संभावित स्वास्थ्य खतरों के बारे में लोगों को प्रभावी तरीके से जागरूक किया जाना चाहिए। इससे निपटने के लिए सबसे पहले जरूरी है कि फूड और कॉस्मेटिक उत्पादों के वैज्ञानिक नियमन के लिए नीतिगत बदलाव लाने के लिए अभियान चलाया जाना चाहिए। इसके अलावा समाज में जागरूकता के लिए अभियान चलाए जाने चाहिए। समाज के नजरिया के कारण ही इन उत्पादों की मांग होती है। जरूरत है कि समाज इसके उपयोग के लिए वैज्ञानिक नजरिया अपनाए। आज हमारा समाज ज्यादा समग्र हो रहा है जिसमें किसी भी रंग और आकार के लोगों को भी स्वीकार्यता मिल रही है। वैसे गोरे और पतले होने के लिए बेहतर यह होगा कि जन स्वास्थ्य पर ध्यान दिया जाए जिसमें बच्चों को बेहतर जीवन शैली और स्वास्थ्यवर्धक खानपान और रहन-सहन के लिए प्रोत्साहित किया जाए।
लेखिका हार्वर्ड टी. एच. चैन स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के इंडिया रिसर्च सेंटर में असिस्टेंट डायरेक्टर हैं। लेख में विचार उनके निजी हैं।