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नीतीश के सामने और भी है चुनौतियां

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भले ही विश्वास मत हासिल कर लिया हो लेकिन इस साल के अंत में राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव में असल चुनौती अभी बाकी है।
नीतीश के सामने और भी है चुनौतियां

पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी गुट के विधायकों ने भी विधायकी जाने के डर से नीतीश कुमार का साथ दिया। विश्वासमत प्रस्ताव के पक्ष में 140 वोट पड़े जबकि विरोध में कोई मत नहीं पड़ा, क्योंकि विपक्षी भाजपा के विधायक सदन से वाक आउट कर गए थे जबकि मांझी सदन से गायब रहे। मांझी वैसे भी नीतीश कुमार के विरोध में मोर्चा खोले हुए हैं ।

वे दलित और महादलित समुदाय के आत्मसम्मान की बात करने लगे हैं। ऐसे में विधानसभा चुनाव में दलित और महादलित समुदाय का रुख किधर होगा इस पर चर्चाएं शुरू हो गई हैं। जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद से ही प्रदेश का दलित और महादलित समुदाय नाराज बताया जा रहा है हालांकि गैर दलितों में उनके शासन काल को अराजक प्रशासन का काल ज्यादा बताया जाता है। नीतीश कुमार को उसके मुकाबले अपने सुशासन में उम्मीद है। लेकिन प्रदेश सरकार के एक दलित अफसर के मुताबिक मांझी अच्छा काम कर रहे थे फिर भी उन्हें बेइज्जत कर दिया गया। अफसर का कहना है कि इसका असर विधानसभा चुनाव में पड़ सकता है।

अभी तक बिहार में जो दलित मुख्यमंत्री हुए उन्हें कभी खुलकर काम करने का मौका नहीं मिला। जैसा कि उत्तर प्रदेश में हुआ जहां बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने दलितों का आत्मसम्मान बढ़ाया। आज उत्तर प्रदेश में दलित मायावती के साथ है। बिहार में मांझी  दलित समुदाय के ‌लिए कुछ  काम करना चाहते थे तब उन्हें रोक दिया गया है। कभी दलित, पिछड़ों के हिमायती रहे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने भी मांझी को हटाने में नीतीश का साथ दिया। ऐसे में राज्य की सियासत करवट लेती दिख रही है।

मांझी ने नई पार्टी का गठन कर नीतीश कुमार को खुली चुनौती दी है। राज्य में दलित और महादलित वोट निर्णायक भूमिका में है। ऐसे में इस साल होने वाला चुनाव रोमांचक हो सकता है। लालू यादव और नीतीश कुमार ने भले ही हाथ मिला लिया हो लेकिन बगावत के स्वर जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल में सुनाई पड़ रहे हैं। राजद सांसद पप्पू यादव मांझी के समर्थन में खड़े हैं तो नीतीश सरकार में शामिल दलित मंत्री रमई राम उपमुख्यमंत्री पद की मांग पर अड़े हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि राज्य का सियासी गणित बहुत ही पेचीदा हो गया है क्योंकि मांझी की बगावत का असर चुनावों में दिख सकता है। संभावना जताई जा रही है कि मांझी चुनावों के समय भाजपा से हाथ मिला सकते हैं। लेकिन मांझी भाजपा को भी धोखा देने वाली पार्टी बता रहे हैं। ऐसे में यह समझ पाना मुश्किल है कि उनका रुख क्या होगा।

एक संभावना यह भी जताई जा रही है कि पप्पू यादव सहित जदयू और राजद के कई और नेता मिलकर मांझी के साथ जाकर एक नया मोर्चा खड़ा कर सकते हैं। पप्पू यादव वैसे भी अपने संसदीय क्षेत्र मधेपुरा और उसके आसपास एक मजबूत संगठन चला रहे हैं जो चुनावों में खासा असर डाल सकता है। बिहार के सियासी रंग में मांझी का मुद्दा तूल पकड़ता जा रहा है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक मांझी विधानसभा चुनाव में एक मुद्दा बनेंगे क्योंकि नीतीश कुमार ने सत्ता संभालते ही मांझी के फैसलों को पलट दिया। जिसके विरोध में मांझी ने धरना भी दिया। मांझी अगली पारी का इंतजार कर रहे हैं। गांधी मैदान में 20 अप्रैल को होने वाला महासम्मेलन उनकी राजनीतिक दिशा का आगाज करेगा। उन्होंने अभी सभी दरवाजे खुले रखे हैं। कांग्रेस, भाजपा, राजद, जदयू के साथ वह खड़े हो सकते हैं लेकिन शर्त एक ही है कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार न हों।

भाजपा नेता नंदकिशोर यादव कहते हैं कि मांझी को मुख्यमंत्री पद से क्यों हटाया गया इसका जवाब नीतीश कुमार के पास नहीं है। यादव कहते हैं कि जब नीतीश ने मांझी को कमान दी तो हटाने का कारण जरूर बताना चाहिए। भाजपा नेता कहते हैं कि बिहार की जनता के सामने यह सवाल रखा जाएगा। वहीं राजद नेता अब्दुल बारी सिद्दिकी कहते हैं कि भाजपा दलित और महादलित की हितैषी होने का दावा कर रही है तो क्यों नहीं किसी दलित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ रही है। सिद्दिकी कहते हैं कि भाजपा का चरित्र दोहरा है, वह कभी दलितों का सम्मान नहीं कर सकती। कुल मिलाकर फिर बिहार की राजनीति में प्रशासन और विकास के मुकाबले जातिगत गणित हावी होता जा रहा है।

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