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आवरण कथा- पार्टी नेतृत्व की लगाम मैनेजर के हाथों में

भारत के राजनीतिक भविष्य का एजेंडा कॉरपोरेट घराने तय कर रहे हैं। इस कारण प्रबंधन कंपनियों या यूं कहें कि कई प्रबंधन गुरुओं की पौ-बारह हो गई है और राजनीतिक दल उनके सामने नतमस्तक दिख रहे हैं।
आवरण कथा- पार्टी नेतृत्व की लगाम मैनेजर के हाथों में

प्रबंधन के बाजीगर (लॉबिस्ट) धूमकेतु की तरह भारतीय राजनीति के फ्रंटलाइन में आ गए हैं। चुनाव प्रबंधन नाम से नया बाजार सामने है। राजनीतिक दलों के नेतृत्व ने अपनी लगाम मैनेजरों के हाथों में सौंपनी शुरू कर दी है। अब तक जनसंपर्क, सर्वेक्षण और विज्ञापन कंपनियों तक सीमित रही राजनीतिक पा‌िटयां राजनीतिक प्रबंधन बाजार के गुरुओं की सेवाएं ले रही हैं। पाई चार्ट और ग्राफिक्स के जरिये वे नेताओं का चुनाव जिताने के नए-नए मंत्र बता रहे हैं। राजनीतिक दलों के सांगठनिक ढांचे का इस्तेमाल कर वे नए-नए फॉर्मूले ढूंढ़ निकालने के दावे कर रहे हैं और जीत होने पर श्रेय ले रहे हैं। इस समय भारतीय लोकतंत्र ऐसे मोड़ पर पहुंच गया है, जहां भारत के राजनीतिक भविष्य का एजेंडा कॉरपोरेट घराने तय कर रहे हैं। इस कारण प्रबंधन कंपनियों या यूं कहें कि प्रबंधन गुरुओं की पौ-बारह हो गई है। ऐसे पेशेवर लोगों की भागीदारी कैसे दिन-ब-दिन राजनीति के मैदान में बढ़ती गई, इसका टर्निंग प्वाइंट रहा- 2014 का लोकसभा चुनाव। इस लोकसभा चुनाव ने राजनीति में कॉरपोरेट कंपनियों की भागीदारी की स्टाइल ही बदलकर रख दी। पहले वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध लोग या नेताओं के रिश्तेदारों की जनसंपर्क या सर्वे कंपनियां राजनीतिक दलों के लिए काम करती थीं। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, वामपंथी और समाजवादी पार्टियों में ऐसे कई लोग रहे, जो विचारधारा के प्रति समर्पण के चलते प्रचार अभियान का हिस्सा बनते थे या उनके संपर्क वाली कंपनियां काम करती थीं। अब प्रबंधन गुरु अपने टोटकों के साथ हाजिर हैं, जिन्हें विचारधारा से कम मतलब है- अपना और अपनी कंपनी के प्रोफाइल से ज्यादा मतलब है।

इस दौरान धूमकेतु की तरह उदय हुए प्रशांत किशोर राजनीति के मैदान में प्रबंधन के बाजीगरों के नए आइकॉन बन गए। जब वह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए काम कर रहे थे तब लोकसभा चुनाव प्रबंधन के अनुमानित लगभग दो हजार करोड़ रुपये के कारोबार का छोटा हिस्सा थे प्रशांत किशोर, जो बिहार चुनाव के बाद भारतीय राजनीति के मैदान में बड़ा सितारा बन गए हैं। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा से उनकी खटास बढ़ी और वह बिहार में नीतीश कुमार की छवि चमकाने में जुट गए। बिहार में जनता दल (यूनाइटेड) और राष्ट्रीय जनता दल गठबंधन की सफलता का श्रेय लेकर अब वह कांग्रेस के लिए काम कर रहे हैं। अगले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब होते हुए वह केंद्र की राजनीति में अपना भविष्य देख रहे हैं।

बिहार चुनाव में पीके का वॉर रूम

 

टर्निंग प्वाइंट रहे वर्ष 2014 के आम चुनाव के दौरान प्रबंधन गुरु राष्ट्रीय पार्टियों के लिए पूरे देश के संदर्भ में रणनीति तय करते दिखे। 2015 में विधानसभा चुनावों के दौरान राज्य स्तर पर भी सक्रियता बढ़ी। अब 2016 के विधानसभा चुनावों में तो प्रबंधन गुरुओं की सक्रियता विधानसभा सीटों के स्तर तक दिख रही है। बंगाल और असम में कहीं-कहीं स्थानीय स्तर पर उम्मीदवार, प्रबंधन के किसी न किसी खिलाड़ी को साथ लिए घूमता दिख रहा है।

प्रबंधन गुरु अब नेताओं को सिखा रहे हैं कि चुनाव राजनीति में जीत की रणनीति क्या हो? पार्टी आलाकमान से लेकर ब्लॉक और गांव स्तर तक कार्यकर्ता कैसे काम करें? अगर सत्ताधारी पार्टी है तो सरकारी विभागों को कैसे काम करना चाहिए, जिससे जनता में छवि अच्छी बने? पार्टी अगर विपक्ष में है तो उसे क्या करना चाहिए? तकनीक से लेकर जनभावनाओं का इस्तेमाल कैसे किया जाए? नेताओं को भाषण क्या देना है?  चेहरे की भंगिमा कैसी हो, स्टाइल कैसी हो, मंच पर कैसे जाएं, कब जाएं, यहां तक कि पत्रकारों से क्या बात करनी है- ऐसे छोटे-बड़े सवालों के जवाब तैयार करने में प्रबंधन के बाजीगर राजनीतिक पार्टियों के हजारों करोड़ खर्च करा रहे हैं।

लोकसभा चुनाव में दसियों छोटी-बड़ी कंपनियों को राजनीतिक दलों ने अहम काम दिए थे। इलेक्‍शन वॉर रूम संभालने से लेकर मीडिया और वोटर मैनेजमेंट तक। चुनाव में मीडिया और वोटर मैनेजमेंट जैसे शब्द पहली दफा लोगों के सामने उछाले गए थे, जिसे युवा प्रभावित हुए। तब चुनाव प्रबंधन में आई कंपनियों के पीछे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न दलों से जुड़ीं ताकतवर लॉबी की सक्रियता की बातें सामने आईं। कई कंपनियों के तार तो बड़े अंतरराष्ट्रीय सिंडिकेट से जुड़े मिले तो कई के रसूख ऐसे कि खेल की दशा-दिशा को प्रभावित कर दें।

लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी भाजपा के पोस्टर बॉय थे और उन्होंने चुनाव प्रबंधन में प्रबंधन कंपनियों की जमकर सेवाएं ली थीं। प्रिंट और टीवी पर क्रिएटिव विज्ञापनों का काम 'मैक्सकेन वर्ल्डग्रुप’ को दिया गया। यह कंपनी फिल्मों के गीतकार प्रसून जोशी की है। इसने नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए नारे और गीत गढ़े थे। इंटरनेट और डिजीटल प्लेटफॉर्म पर सैम बलसारा की 'मेडिसन’ और अमेरिकी लॉबिस्ट कंपनी 'एप्को वर्ल्डवाइड’ की सहयोगी 'लोडस्टार’ को चार सौ करोड़ रुपये का काम भाजपा ने दिया। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की छवि के निर्माण में एकाधिक कंपनियां पहले से काम कर रही थीं। अमेरिका की लॉबिस्ट कंपनी 'एप्को वर्ल्डवाइड’ को मोदी ने गुजरात को एक निवेश स्थल के रूप में प्रचारित करने के अलावा अंतरराष्ट्रीय और घरेलू मोर्चे पर उनकी हैसियत में इजाफा करने का काम दिया। यह कंपनी अमेरिका में तंबाकू और स्वास्थ्य बीमा उद्योगों के लिए लॉबिस्ट है। इसके साथ ही इस्राइल और कजाकस्तान के अलावा संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक और 'एसोसिएशन ऑफ साउथ-ईस्ट एशियन नेशंस’ के लिए भी जनसंपर्क का काम करती है। इस कंपनी की सबसे बड़ी ताकत यही है कि यह अपने ग्राहकों का एजेंडा आगे बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया और मुक्चयधारा की मीडिया में तूफानी प्रचार कराती है। 2006 में भारत में चुपके से दाखिल हुई 'एप्को वर्ल्डवाइड’ ने गुजरात में तब मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी के 'वाइब्रेंट गुजरात’ सम्मेलनों की पूरी डिजाइन तैयार की। 

देश-विदेश की राजनीतिक लॉबी, उद्योग और कारोबारी जगत में एप्को ने मोदी की छवि जिस तरह  चमकाई, छुपा नहीं है। गुजरात में तब नरेंद्र मोदी की सरकार ने 2010 में एप्को का कॉन्ट्रैक्ट रिन्यू किया 2.25 करोड़ रुपये सालाना की दर पर। वैश्विक स्तर पर एप्को में ताकतवर लॉबियां जुड़ी हुई हैं। इसमें शामिल हैं, गैड बेन एरी (इस्राइल के पूर्व प्रधानमंत्री यित्जाक रॉबिन के पूर्व मीडिया सलाहकार और यहूदियों के ताकतवर संगठन केरेन हेयेसोड के पूर्व महानिदेशक), फिलिप्प मेज सेंसियर (यूरोपीय रक्षा कंपनी ईएडीएस और यूरोपीय आयोग के पूर्व अधिकारी), बेरी शूमाकर (वाशिंगटन के मशहूर लॉबिस्ट), एलेक्स बिघम (इंग्लैंड में लेबर पार्टी के राजनीतिक सलाहकार)। मोदी समर्थक इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी और उनके कार्यों की स्वीकार्यता कहते हैं। एप्को के पोलैंड के पूर्व राष्ट्रपति एलेक्सजेंडर क्वावास्नीवस्की, इस्राइल के पूर्व राजदूत इतामर रॉबिनेविच, भारत में अमेरिका के पूर्व राजदूत टिमोथी रोमर के साथ गहरे ताल्लुक बताए जाते हैं। रोमर के नई दिल्ली और मुंबई में राजनीतिकों, राजनयिकों और उद्योगपतियों के साथ अच्छे संबंध बताए जाते हैं। यह कंपनी नाइजीरिया के पूर्व तानाशाह सानी अबाचा, कजाकस्तान के राष्ट्रपति नजरबाएव, मिखाइल खोदरकोवस्की (माफिया के साथ संबंध रखने वाले रूसी खरबपति) के लिए काम कर चुकी है। 

बहरहाल, लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने विज्ञापन कंपनियों 'डेंशू’, 'टैपरूट’, 'जेडब्‍ल्यूटी’ और 'जेनसिस बर्सन-मार्शेलर’ की सेवाएं लीं। 'डेंशू’ और 'टैपरूट’ को अखबारों, टीवी चैनलों और रेडियो पर विज्ञापन करने का काम सौंपा गया। जबकि, 'जेनसिस बर्सन-मार्शेलर’ को न्यू मीडिया की जिम्मेदारी दी गई। कांग्रेस पार्टी की ओर से इन कंपनियों की सेवाओं के बदले बजट रखा गया पांच सौ करोड़ रुपये। कांग्रेस पार्टी के बजट का बड़ा हिस्सा जापानी डेंशू और उसकी सहयोगी टैपरूप एवं जेडब्‍ल्यूटी को गया। सूत्रों के अनुसार, डेंशू-टैपरूट को प्रिंट-टीवी मीडिया के लिए 271 करोड़ का, इसकी सहयोगी कंपनी 'वेबचटनी’ को डिजीटल माध्यम के लिए 50 करोड़ रुपये का काम मिला। डेंशू ने लोकसभा चुनाव के बाद से भारत में अपना काम फैलाना शुरू किया। जी टेलीविजन के पूर्व सीईओ संदीप गोयल की एक कंपनी में उसने 26 फीसद हिस्सेदारी खरीद ली। 

इन कंपनियों ने आम चुनाव में कांग्रेस के प्रधान सेनापति बनाए गए उपाध्यक्ष राहुल गांधी के कपड़ों, हेयर स्टाइल, बोलने का तरीका से लेकर जनता के बीच जाने के हर तौर-तरीके को नया लुक दिया। वे ज्यादा से ज्यादा आक्रामक दिखे। कुर्ता-पजामा और बंडी में बार-बार कुर्ते की बांह चढ़ाने की स्टाइल उन्हें आक्रामक युवा की छवि प्रदान करती रही है। हालांकि लोकसभा चुनाव में यह छवि उनके काम नहीं आई। लेकिन इस चुनाव से प्रशांत किशोर का उदय हुआ, जो बिहार होते हुए उत्तर प्रदेश और पंजाब के रास्ते कांग्रेस के जनाधार के जरिये राष्ट्रीय राजनीति में अपनी जगह देख रहे हैं। भले ही बिहार में गठबंधन के नेता या कांग्रेस के नेता उन्हें नापसंद कर रहे हैं और बरसों मैदान में तपकर ऊपर आए नेताओं को उनसे प्रबंधन का पाठ पढऩा पसंद नहीं आ रहा है, लेकिन प्रशांत किशोर पाटयों के आलाकमान को साधे हुए हैं और इसका बखूबी लाभ अपना प्रबंधन नेटवर्क बनाने में उठा रहे हैं।

बिहार में नीतीश कुमार और लालू यादव के साथ पीके

 

बिहार में प्रशांत किशोर ने इंडियन पॉलिटिकल एक्‍शन कमेटी (आईपैक) बनाई थी, जिसे छह करोड़ रुपये सालाना के अनुबंध पर काम मिला था। साथ ही, बिहार की 348 करोड़ रुपये के बजट वाले जनसंपर्क विभाग का काम भी अघोषित तौर पर आईपैक के हवाले कर दिया गया। इस संस्था के रणनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर ने डेटा, तकनीक, ब्रांडिंग और मार्केंटिंग के फंडों से नीतीश कुमार के गठबंधन के पक्ष में हवा बनाने का श्रेय लिया। बिहार के बाद प्रशांत किशोर की आईपैक को तंजानिया में वहां की सत्ताधारी चामा चा मापिंदुजी (सीसीएम) पार्टी के सलाहकार का काम मिला है।

अब प्रशांत किशोर की स्टाइल इस कदर वायरल हो गई है कि 2016 में बंगाल, असम, केरल जैसे राज्यों में स्थानीय स्तर पर प्रबंधन गुरु पाॢटयों की या नेताओं के सलाहकार की भूमिका में हैं। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी की खुद की प्रबंधन कंपनी है- 'लीप्स एंड बाउंड्स’ जो बंगाल और बंगाल के बाहर तृणमूल कांग्रेस का चुनावी प्रबंधन संभालती है। एमिटी यूनिवॢसटी से एमबीए अभिषेक पार्टी के महासचिव हैं और अपनी बुआ ममता बनर्जी को प्रबंधन गुरु स्टाइल में नए-नए तौर-तरीकों से अवगत कराते रहते हैं। इस बार ममता बनर्जी की छवि को सामने रखकर उनकी कंपनी सोशल मीडिया से लेकर हर मंच पर प्रचार अभियान में जुट गई है। बूथ स्तर तक के आंकड़ों का हर तीन दिन पर विश्लेषण किया जा रहा है। प्रशांत किशोर की स्टाइल और बंगाल में अभिषेक की स्टाइल में थोड़ा फर्क है- बंगाल के ग्रामीण इलाकों का पारंपरिक अंदाज देखते हुए अभिषेक 'मुहल्ला दखल’ और 'ग्राम दखल’ की राजनीति में खास हस्तक्षेप नहीं करते। अलबत्ता, उस अंदाज को नई स्टाइल के साथ ले चल रहे हैं। स्थानीय स्तर पर पार्टी के समर्थकों को नए अंदाज में प्रशिक्षित कर। इसी तरह असम में भारतीय जनता पार्टी ने स्थानीय स्तर कई एबीए डिग्रीधारकों की सेवाएं ली हैं। बंगाल और केरल में वाममोर्चा भी नए अंदाज में सामने है। हालांकि प्रबंधन विशेषज्ञों की मदद के साथ ही वाममोर्चा अपनी पार्टी के कैडरों की रिपोर्ट भी मंगा रही है और फिर योजनाएं बना रही हैं।

बंगाल और असम के चुनाव में माइक्रो स्तर पर दिख रही तैयारियां आने वाले समय में पुख्ता रूप लेंगी। यह तय है। प्रबंधन के बाजीगरों की कवायद ठीक उसी तरह की है, जैसे कि लोकसभा चुनाव के दौरान एकदम से प्रबंधन कंपनियां सामने आ गईं। जाहिर है, नेताओं ने अपनी लगाम मैनेजरों के हाथ सौंपनी शुरू कर दी है। राजनीति का नया बाजार प्रबंधन विशेषज्ञों के आगे खुलने लगा है।

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