Advertisement

कवर स्‍टोरी: सियासत की धुरी बनती महिला शक्ति

महिलाओं की जिंदगी में सोलहवां साल बहुत ही खास होता है उसी तरह इस सहस्राब्दी का यह सोलहवां साल भी बहुत खास है। सेना से लेकर हर जगह पर महिला सशक्तिकरण की बात हो रही है। उत्तर से लेकर दक्षिण तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक महिला नेत्रियों की ताकत लगातार बढ़ रही है।
कवर स्‍टोरी: सियासत की धुरी बनती महिला शक्ति

तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और गुजरात की कमान महिलाओं के हाथ में है तो केंद्र की सत्ता में सुषमा स्वराज, स्मृति ईरानी, उमा भारती, सुमित्रा महाजन, नजमा हेप्पतुल्लाह, हरसिमरत कौर अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती नई ताकत बनकर उभरी हैं। केंद्रीय राजनीति में कांग्रेस की कमान जहां सोनिया गांधी के हाथ में वहीं पार्टी में अंबिका सोनी से लेकर शीला दीक्षित, कुमारी शैलजा, परनीत कौर, मीरा कुमार की भी अलग पहचान है। इस साल में जहां महिला नेतृत्व को कड़ी चुनौती भी है तो आगे बढऩे की संभावनाएं भी।

इस साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं जहां मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को चुनौती देने के लिए भारतीय जनता पार्टी और वामदल रणनीति बना रहे हैं। पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री होने का श्रेय ममता बनर्जी को जाता है जिन्होने वामदल के मजबूत गढ़ को ध्वस्त कर दिया। वे आज भी उन लोगों की नेता हैं जिनकी बातें सुनी नहीं जाती। वे धूल से भरे और पसीने व आंसुओं से सराबोर लोगों की मसीहा हैं। मां-माटी-मानुष उनका जीवन दर्शन है और यही उनके कार्य का केंद्र बिन्दु भी। उनके जीवन की उस समय की सबसे महत्चपूर्ण घटना 7 जनवरी 1993 को घटी जब राइर्टस बिल्डिंग से उनको बालों से पकडक़र खींचते हुए बाहर निकाल दिया गया। उस समय ममता ने गुस्से में कहा था कि अगर कभी इस बिल्डिंग में प्रवेश करूंगी तो सिर उठाकर करुंगी। उसके बाद ममता ने मुख्यमंत्री बनने के बाद ही उस बिल्डिंग में कदम रखा। 

ममता की तरह ही मायावती और जयललिता ने राजनीति के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई। भले ही मायावती सत्ता में नहीं हैं लेकिन उत्तर प्रदेश में उनके कार्यकाल को लेकर आज भी याद करते हैं और साल 2017 के विधानसभा चुनाव का इंतजार कर रहे हैं कि मायावती का भविष्य क्या होगा। मायावती उत्तर प्रदेश में दलितों की एकछत्र नेता के तौर पर अपनी पहचान बना चुकी हैं लेकिन साल 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिलने से उनका मनोबल कमजोर हुआ। लेकिन जिस तरह से सियासी गलियारे में चर्चाएं हैं उससे एक बार फिर मायावती साल 2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज होने का सपना देख रही हैं। तमिलनाडु में जयललिता की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब अदालत ने उनको सजा सुनाई तो समर्थक इतने मायूस हो गए कि आत्महत्या जैसा कदम उठा लिया। लेकिन कानून पर भरोसा करने वाली जयललिता को फिर सत्ता की कमान मिली और आज वे तमिलनाडु की मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं।

महिला नेतृत्व की ताकत आने वाले दिनों में और बढ़ेगी। ममता और मायावती केवल राज्यों तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि केंद्रीय राजनीति में भी इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। आने वाले समय में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव होने हैं। पिछली बार राष्ट्रपति के चुनाव में अंतिम समय तक ममता बनर्जी ने पत्‍ते नहीं खोले थे। सबकी निगाह ममता पर लगी थी जिधर जाएगी ममता वही राष्ट्रपति बनेगा। ममता बनर्जी कभी भाजपा के भी करीब रही और कांग्रेस के भी। लेकिन करती वहीं हैं जो उनको स्वीकार्य है। मायावती भी अपने अडिय़ल रवैये के लिए मशहूर है।

उत्तर प्रदेश की सत्ता में मायावती की अगर वापसी होती है तो केंद्रीय राजनीति में उनका कद बढ़ जाएगा और साल 2019 का लोकसभा चुनाव से लेकर राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में बड़ी भूमिका अदा करेगी। कहा भी जाता है कि उत्तर प्रदेश की सियासत से ही केंद्र की सियासत तय होती है। जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ्ती पहली महिला हैं जिनके हाथ में राज्य की कमान आई है। महबूबा की भूमिका भी केंद्र सरकार के लिए महत्वपूर्ण है। क्योंकि भारत-पाक से रिश्ते सुधारने में जम्मू-कश्मीर का अहम योगदान रहा है। अगर केंद्र सरकार महबूबा को विश्वास में नहीं लेगी तो भारत-पाक का मुद्दा प्रभावित हो सकता है।

चर्चा है कि कांग्रेस की कमान इस साल राहुल गांधी को मिल सकती है लेकिन इसके बावजूद सोनिया गांधी की छत्रछाया बनी रहेगी। प्रियंका गांधी ने अभी सियासत में कदम नहीं रखा है लेकिन समय-समय पर पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा मांग उठती रही है कि प्रियंका लाओ कांग्रेस बचाओ। लेकिन अहम बात यह है कि बिना सोनिया के राहुल को आगे की सियासत करना मुश्किल होगा। राहुल की अपनी पसंद और नापसंद हो सकती है लेकिन सोनिया गांधी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और अन्य दलों के नेताओं से जो संतुलन साध सकती है उसके लिए राहुल गांधी के अंदर परिपक्वता नजर नहीं आती। सोनिया गांधी की जरूरत केवल कांग्रेस के भविष्य के लिए नहीं बल्कि अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों को भी एकजुट करने में महत्वपूर्ण कही जा सकती है।

सत्तारुढ़ भाजपा नेत्रियों की बात करें तो लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन आने वाले दिनों में राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति की कुर्सी तक पहुंच सकती हैं वहीं केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी तो इस बात से खुश हैं कि उन्हें राजस्थान के एक ज्योतिषी ने यहां तक कह दिया है कि वह राष्ट्रपति बन सकती हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का विभाग भले ही बदले जाने की चर्चा हो लेकिन उनका जो कद है उसे घटाने में पार्टी को एक बार जरूर विचार करना होगा। क्योंकि ऐसे कई पद हैं जहां परिपक्वता की जरूरत है और सुषमा कई मामलों में योग्य मानी जाती हैं।

राजस्थान में वसुंधरा राजे अपने कामकाज से दबदबा बनाए हुए हैं वहीं गुजरात में आनंदीबेन पटेल मुख्यमंत्री के तौर पर कुछ नया करना चाहती हैं। पंजाब में अगले साल की शुरूआत में विधानसभा चुनाव होने जहां परनीत कौर, अंबिका सोनी, हरसिमरत कौर बादल की बड़ी भूमिका होगी। कई सियासी दलों का भविष्य महिलाओं पर टिका है तो कई दल महिलाओं को आगे कर रहे हैं। उत्‍तर प्रदेश की अगर बात करें तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव सांसद होने के साथ-साथ पार्टी को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। अपना दल की सांसद अनुप्रिया पटेल ने पिता की मृत्यु के बाद पार्टी की कमान संभाली और उत्‍तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव में सक्रिय भूमिका देख रही है।

बिहार में राष्ट्रीय जनता दल में राबड़ी देवी और उसके बाद मीसा भारती की राजनीतिक सक्रियता बढ़ी है। लालू प्रसाद की बेटी मीसा भारती लोकसभा चुनाव भले ही हार गई हों लेकिन आने वाले दिनों में उनकी राजनीतिक भूमिका बढ़ेगी। पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी की अगली पीढ़ी भले ही कमान संभाल रही हो लेकिन विधान परिषद का सदस्य रहते हुए पूरी राजनीतिक सक्रियता निभा रही हैं। मीडिया के सवालों का भी वह बखूबी जवाब देती हैं। अगर उन्हें कुछ नहीं कहना है तो एक लाइन में उनका उत्तर होता है कि आने वाले समय में पता चलेगा। आंध्र प्रदेश से अलग होकर बने तेलंगाना राज्य की पहली महिला सांसद होने का श्रेय मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की बेटी कविता कलवाकुंटला को मिला। माना जा रहा है कि आने वाले दिनों में तेलंगाना की सियासत कविता का कद और बढ़ेगा। 

सीधे जमीन से उठकर सियासत के फलक पर अपनी पहचान बनाने वाली महिला नेताओं की तादाद भले ही कम हो लेकिन जो जागरूकता आ रही है उसकी झलक पंचायत चुनावों में देखने को मिल रही है। युवा और पढ़ी-लिखी महिलाओं का पंचायत चुनावों में प्रतिनिधित्व बढ़ा है। भले ही केंद्र की सियासत में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण दिए जाने का मामला लंबित हो रहा हो लेकिन कई राज्यों ने पंचायत चुनाव में 33 की बजाय 50 फीसदी तक सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी है। जिसका परिणाम रहा है पुराने से लेकर नए महिलाओं के लिए सियासत का मार्ग प्रशस्त हो गया। महिलाओं के लिए संसद और विधानसभाओं में 33 फीसदी आरक्षण को लेकर कई सियासी दल आनाकानी कर रहे हैं तो कई पक्ष में नजर आते हैं। सेंटर फॉर स्टडीज ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के एक सर्वे में भी 50 प्रतिशत से ज्यादा मतदाताओं ने संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने की वकालत की थी। महज 14 प्रतिशत लोगों ने इसका विरोध किया था जबकि 36 प्रतिशत ने इस मसले पर राय न देकर एक तरह से महिला आरक्षण विधेयक पर सियासी दलों की हीलाहवाली पर अपना गुस्सा ही जाहिर किया था।

इतिहास गवाह है कि इंदिरा गांधी से लेकर सुचेता कृपलानी, विजय लक्ष्मी पंडित, विजया राजे सिंधिया, मारग्रेट अल्वा, मोहसिना किदवई, राजकुमारी अमृत कौर, कमला बेनीवाल, सुभद्रा जोशी, अहिल्या रांगनेकर, अरुणा आसफ अली, प्रतिभा पाटिल, शीला दीक्षित जैसी महिला नेताओं ने सियासत के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई। शीर्ष स्तर और जिम्मेदार पदों पर भी पहुंची महिलाओं की लंबी सूची है। जिनमें चाहे वह प्रशासनिक कौशल हो, प्रबंधकीय कार्य हो या फिर नीतिगत निर्णय लेने की बात हो। पुरुषप्रधान समाज में बराबरी की भागीदारी जता रही महिलाएं आज किसी भी तरह से कम करके नहीं आंकी जा सकती हैं। आज महिलाएं न सिर्फ चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम हैं बल्कि बेहतर परिणाम देने में भी सक्षम हें। जिस तरह से महिला नेतृत्व हर क्षेत्र में मजबूत हो रहा है वह आने वाले दिनों के लिए शुभ संकेत कहा जाएगा।

 

 

 

Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad