देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है यानी आजादी के 75 साल। इन पचहत्तर सालों में तकरीबन 55 सालों तक कांग्रेस इस देश में सीधे सत्ता में रही है। लेकिन अब उस पार्टी की हालत ये है कि पार्टी का कोई भी नेता अपनी सीट से जीत की गारंटी नहीं दे सकता। पार्टी की इस दुर्दशा को लेकर चिंतित कांग्रेस ने पिछले दिनों चिंतन शिविर का आयोजन किया और देश के लोगों के बीच जाने की बात की। यानी उस शिविर में कांग्रेस के आला नेताओं, राहुल और सोनिया गांधी को लगा कि कांग्रेस का अब जनता के साथ वो कनेक्ट नहीं रहा जो हुआ करता था जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है। चिंतन शिविर के तुरंत बाद राहुल गांधी ब्रिटेन आ गए हैं और यहां उऩ्होंने लंदन में एक कार्यक्रम में कहा कि भारत की आत्मा मर गई है। तो राहुल जो पिछले हफ्ते चिंतन शिविर में चिंतित दिख रहे थे और ये मान रहे थे कि उनका औऱ उनकी पार्टी का भारत की जनता से कनेक्ट टूट गया है वो राहुल सही थे या ये राहुल सही हैं जो ये मान रहे हैं कि भारत की आत्मा मर गई है। जाहिर सी बात है कि देश हो या विदेश हो कहीं भी किसी भी मंच से विपक्ष के नेता सत्ताधारी पार्टियों की तारीफ तो नहीं करेंगे लेकिन राहुल गांधी और दूसरे सभी विपक्ष के नेताओँ को ये समझना चाहिए कि वो विदेशी मंच से बीजेपी का विरोध करने गए हैं या फिर देश का विरोध कर रहे हैँ। राहुल गांधी के बयान, राहुल गांधी के साथ ब्रिटेन आए नेताओं की पॉलिटिक्स और उनकी भावनाओं को ठीक से समझने की जरूरत है।
राहुल गांधी ने कई सारे बातें की, कहा कि “इंडिया इज नॉट एट ए गुड प्लेस, इकॉनमी बेजान है और प्रोडक्शन बढ़ाकर रोजगार देने की जरूरत है।” राहुल गांधी जब भारतीय अर्थव्यवस्था पर बोल रहे थे तो उन्होंने कहा कि भारत व्यापार के लिए एक अच्छी जगह नहीं है, ये बातें जिस दौर में राहुल गांधी में कह रहे हैं उस दौर में पूरी दुनिया को भारत में बाजार नजर आ रहा है और जहां के लिए राहुल गांधी कह रहे हैं वो उसी देश के प्रधानमंत्री होना चाहते हैं और उनकी पार्टी तो बस अब उसी भर के लिए राजनीतिक कर रही है। बोलते बोलते राहुल ने भारत की तुलना पाकिस्तान और श्रीलंका से कर डाली। यहां कुछ बातें राहुल गांधी और उऩके स्क्रिप्टराइटर के दिमाग में साफ तो होगी ही लेकिन वो उसके उलट वहां बाते कर रहे हैँ। कोविड काल में भारत समेत पूरी दुनिया में मंदी आई है, सबकी अर्थव्यवस्था खराब हुई है और महंगाई बढ़ी है। भले ही महंगाई को काबू करने के लिए सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास नाकाफी हों लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं है कि “इंडिया इज नॉट एट ए गुड प्लेस”। यूनाइटेड नेशंस का ताजा सर्वे कहता है कि पूरी दुनिया की इकॉनमी आने वाले दिनों में 3.1 की दर से बढ़ेगी जबकि भारत का विकास दर 6.4 फीसदी से ज्यादा रहने की उम्मीद है। कोरोना जैसी महामारी के दौर में भी हमारा एक्सपोर्ट ऐतिहासिक स्तर पर पहुंचा है और 80 अरब डॉलर से ज्यादा का FDI आया है। ऐसे में भारत को व्यापार के लिए सही जगह नहीं मानना बेतुका लगता है।
राहुल गांधी बार बार चीन का राग भी अलापते हैं, यहां ब्रिटेन में भी उसी तार को छेड़ा और कहा कि लद्दाख औऱ डोकलाम में चीन यूक्रेन जैसे हालात पैदा कर सकता है और प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे पर बात करने से कतराते हैं। राहुल गाँधी की नजर में भारत की विदेश नीति विफल है और उसका ढोल पीटने के लिए उन्होंने ब्रिटेन की जमीन चुनी है। यूक्रेन में रूस के हमले अभी भी हो रहे हैं, लड़ाई 90 दिनों से बदस्तूर जारी है और जहां पूरी दुनिया इस मामले पर दो फांकों में बंटी नजर आती है भारत ने अमेरिका के तमाम दबाव के बावजूद न तो रूस का पक्ष लिया और न हीं यूक्रेन का साथ छोड़ा है। इतना ही नहीं यूक्रेन में रूस के युद्ध पर भारत की तटस्थ भूमिका ने पश्चिम को इस वास्तविकता को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है कि सभी शक्तियां दुनिया को उसी तरह नहीं देखती हैं जैसे वाशिंगटन और ब्रुसेल्स (यूरोपियन यूनियन मुख्यालय) देखते हैं। ऐसे में ब्रिटेन के किसी गैर राजनीतिक मंच से भारत की विदेश नीति की आलोचना और उस आलोचना में चीन को मजबूत दिखाने की मंशा भले ही उपर से बचकानी लगे लेकिन ये उतना हल्का मामला भी नहीं है जिसकी चर्चा न की जाए। जाहिर है कि ऐसा करने के पीछे उनके साथ मंच साझा कर रहे भारतीय वाम नेता सीताराम येचुरी रहे हों जिनकी पार्टी आजादी के बाद से ही चीन का राग भारत में अलापती रही है लेकिन ऐसा करने से पहले राहुल गांधी और उनके सलाहकारों को जरूर सोचना चाहिए था। राहुल यहीं नहीं रुके उन्होंने भारतीय विदेश सेवा अधिकारियों को एरोगेंट करार दिया। आखिर विपक्ष का नेता भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों से क्या उम्मीद करता है ? और क्या करना चाहिए! राहुल गाँधी की पार्टी जब सत्ता में थी तो उनकी अपनी सरकार द्वारा पारित किया गया अध्यादेश वो दिल्ली के प्रेस क्लब जाकर फाड़ चुके हैं अब उनकी सरकार नहीं है इसलिए अधिकारी उनको उदंड लग रहे हैं वो सरकारी नुमाइंदे हैं और सरकार के साथ काम कर रहे हैं बस इतनी सी बात राहुल गांधी नहीं समझ रहे ऐसा हो नहीं सकता, ये पार्टी के दिशाहीन होने और उसके टूटते जनाधार का गुस्सा है जो वो देश पर फोड़ रहे हैं। जब राहुल गांधी ब्रिटेन आकर ये कहते हैं कि बीजेपी ने देश में किरोसिन छिड़क दिया है और एक चिंगारी उसे आग लगा सकती है तो वो बीजेपी को नीचा नहीं दिखा रहे वो बता रहे हैं कि हमारा देश इतना कमजोर हो चुका है कि उसे कोई भी कभी जला सकता है और ऐसा बयान जब वो दे रहे हैं तब उनके साथ भारतीय वाम नेता सीताराम येचुरी हैं जिनकी पार्टी का अस्तित्व ही भारत में चीन के समर्थन से टिका है। तेजस्वी यादव हैं जिनके परिवार और रिश्तेदारों के यहां अवैध कमाई के आरोप में छापे पड़ रहे हैं, मोइना मित्रा हैं जिनकी पार्टी के शासन में पश्चिम बंगाल में अपराध ने नई बुलंदिया छू ली हैँ। हालांकि इस मंच से तेजस्वी यादव ने कुछ नहीं बोलकर संतुलित राजनेता होने का परिचय दिया है। राहुल गांधी ने लंदन के इस मंच से भारतीय ज्युडिशियरी, इलेक्शन कमीशन और मीडिया सबको एक साथ कठघरे में खड़ा कर दिया। देश में जो राहुल मौके बेमौके अपनी पार्टी की कमियां गिनाते हैं वो ब्रिटेन आकर भारत की कमियां गिनाने लगे। राहलु गांधी को सोचना चाहिए, लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब विपक्ष मजबूत होगा। देश की सड़कों पर सरकार का विरोध कीजिए अच्छी बात है, संसद में विरोध कीजिए और अच्छी बात है। विदेश जाकर नीतियों को विरोध करेंगे तब भी चलेगा लेकिन अगर विदेशी धरती से अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए भारत, भारत के लोग और भारत के सिस्टम की निंदा करेंगे तो ना तो ये भारत के लिए उचित होगा, न हीं भारतीय लोकतंत्र के लिए और न ही आपकी पार्टी के भविष्य के लिए। राहलु और उनके सलाहकारों को अपनी ही पार्टी के शशि थरूर से राय लेनी चाहिए कि विपक्ष में होते हुए विदेशी मंच से कैसी राजनीति की जानी चाहिए। ये राहुल गांधी की नादानियां हैं या उनकी अपरिपक्वता ये तो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपने लोकतांत्रिक तरीके से तय करेगा।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं)