गुजरात में विधानसभा चुनाव के लिए 14 नवंबर को दूसरे और आखिरी दौर का मतदान होना है। चुनाव प्रचार का शोर मंगलवार को थम गया। प्रचार के दौरान षड्यंत्र की उल्टी-सीधी दास्तानों और धार्मिक ध्रुवीकरण की कोशिशों के बीच भले ही रोजगार के सवाल दब गए हों पर प्रदेश का हर युवा इससे जूझ रहा है।
राज्य के सुंदर, लेकिन कठिन और लंबे राजमार्ग पर सफर करने के दौरान इसका सहज ही अंदाजा लग जाता है। सफर के दौरान ज्यादातर युवा चीन में बने सस्ते स्मार्टफोन के सहारे खुद को दुनिया से अलग-थलग कर लेते हैं। कभी-कभार आने वाली उनकी हंसी और ईयर फोन से आने वाली हल्की सी आवाज बताती है कि ज्यादातर बॉलीवुड फिल्मों के क्लिप, क्षेत्रीय एलबम और हास्य रस का आनंद ले रहे हैं।
ऐसे ही एक बस में भूमिहीन किसान के बेटे प्रिंस परमार सवार थ्ाे। वे पाटण से कच्छ जिले के गांधीधाम जा रहे थे। 23 साल के परमार गांधीधाम के एक कपड़ा कंपनी में सुपरवाइजर हैं और उनकी मासिक तनख्वाह केवल दस हजार रुपये है। जाति से दलित परमार ने बताया कि यदि वे तीन दिन भी छुट्टी कर लेते हैं तो कंपनी आधी तनख्वाह काट लेती है। अपना गुस्सा और खीज निकालते हुए वे अचानक सवाल करते हैं, अाप कितना कमाते हैं? क्या पढ़ाई की है अापने?
परमार का सवाल ना केवल राज्य के युवाओं की चिंताओं को दर्शाता है, बल्कि प्रदेश में सत्ता के लिए लड़ रही पार्टियों के लिए भी यह संदेश है। उत्तर गुजरात में यह सामान्य सवाल है। राज्य के युवाओं में श्रम से इतर वाली नौकरियों और उनके साथ मिलने वाली सुविधाओं को लेकर उत्सुकता साफ दिखाई देती है। राधनपुर के कांग्रेस के अस्थायी चुनावी कार्यालय में दोस्तों के साथ पहुंचे कोराडिया वसीमभाई महबूबभाई ने बताया कि उन्होंने स्कूल के बाद आइटीआइ का प्रशिक्षण लिया। जब कांग्रेस के एक स्थानीय कार्यकर्ता ने कहा कि वह जीविका चलाने के लिए कुछ-कुछ काम करता है, 20 वर्षीय महबूब ने पलटकर जवाब दिया कि वह सही नहीं बोल रहा है। मैं एक अच्छी नौकरी की तलाश में हूं।
शहर के बाहरी हिस्से में बनी अपनी झुग्गी की ओर जाते हुए महबूब ने बताया कि कैसे उन्होंने हालात के कारण हाई स्कूल के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ दी। उनके पिता ड्राइवर हैं और पांच हजार रुपये मासिक कमाते हैं। कुछ ही मिनट बाद परमार की तरह वे भी नौकरी, शिक्षा और वेतन को लेकर सवाल करने लगते हैं। पाटण के सामी तहसील के दीपकभाई देवीपूजक अपनी चाइना मेड टैबलेट पर जुलाई में आई बाढ़ के कारण मची तबाही की तस्वीरों को दिखाते हैं। उन्होंने बताया कि बाढ़ में उनलोगों की पूरी फसल बर्बाद हो गई, लेकिन आज तक मुआवजा नहीं मिला है। देवीपूजक समाज ओबीसी में आता है। लेकिन, यह वर्ग ओबीसी कोटे से अलग अपने लिए आरक्षण मांग रहा है। दीपकभाई कहते हैं आरक्षण से ही सरकारी नौकरी मिलेगी जो हमारे भविष्य को महफूज रखेगा। हम भेदभाव खत्म करने और सरकार में उचित प्रतिनधित्व के लिए आरक्षण चाहते हैं।
इसी तरह वड़गाम के छापी गांव के 29 वर्षीय भावेश कुमार एमबीए और बीएड कर मोबाइल रिपेयरिंग शॉप चला रहे हैं। वे भी किसी तरह सरकारी नौकरी पाना चाहते हैं। आरक्षण के लिए हार्दिक पटेल के नेतृत्व में पाटीदार समुदाय का आंदोलन भी गुजरात के युवाओं के इसी गुस्से और बौखलाहट को दिखाता है।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार गुजरात का विकास पूंजी आधारित उद्योगों से संचालित है जिससे समुचित संख्या में नौकरियों का सृजन नहीं हुआ। हाल के सालों में विनिर्माण दर भी गिरी है। आंकड़े बताते हैं कि खास तौर से नोटबंदी और जीएसटी के बाद लघु और मझोले आकार के उपक्रम पहले की तुलना में ज्यादा बंद हुए हैं। इससे रोजगार के अवसर और भी घटे हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या गुजरात के युवा इस चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाएंगे? जवाब के लिए 18 दिसंबर का इंतजार करना होगा जब नतीजे आएंगे।