पठानकोट आतंकी हमले के बाद भारत के रक्षा संस्थानों और सुरक्षा एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल, केंद्रीय कमान और हमले से निपटने के लिए सेना के इस्तेमाल की जगह राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) को उतारने को लेकर बड़ी बहस छिड़ी हुई है। इस हमले से निपटने के लिए रणनीति में तालमेल की कमी को भी एक बड़ी चुनौती के तौर पर पेश किया जा रहा है। राजनीतिक गलियारों से लेकर रक्षा विशेषज्ञों तक ये सवाल उठा रहे हैं और नेशनल काउंटर टेरिरीज्म सेंटर को बनाने की बात एक बार फिर उठ रही है।
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ पूर्व ब्रिगेडियर गुरमीत कंवल ने आउटलुक को बताया कि हमलों के बावजूद पाकिस्तान से वार्ता बंद नहीं करनी चाहिए। हमारी रणनीति दो चरणों (ट्विन ट्रैक) होनी चाहिए। पाकिस्तान के चुने हुए प्रतिनिधियों, सरकार से वार्ता के दरवाजे खुले रखने चाहिए और साथ ही पाकिस्तानी सेना और आतंकी संगठनों पर कड़ा प्रहार करना चाहिए। इस हमले ने भारतीय पक्ष की एक बड़ी खामी को उजागर किया, हमारी कमांड और कंट्रोल स्तर पर कौन संस्था, कौन व्यक्ति निर्णायक होगा, ये तय नहीं था। रक्षा मंत्री अलग बैठक और ब्रीफिंग कर रहे थे। उसी समय गृह मंत्री आतंकी हमले के खिलाफ चल रहे ऑपरेशन को समाप्त और सफल बता रहे थे। जबकि हमला जारी था। राजनीथ सिंह के बयान के चार घंटे बाद लड़ाई जारी है। इसके साथ ही ऑपरेशन के स्तर पर एक बड़ा सवाल यह भी है कि यहां जब सेना की 29वीं बटालियन और सेना की स्पेशल फोर्स थी तो फिर क्यों एनएसजी को उतारा गया। मेरा मानना है कि अगर सेना को इस ऑपरेशन की कमान सौंपी होती तो इतना लंबा समय नहीं लगता।
रक्षा मामलों के जानकार कुणाल वर्मा ने आउटलुक को बताया कि सरकार बड़ी जोखिम भरी नीति पर चल रही है। पाकिस्तान एक भरोसेमंद पड़ोसी कभी नहीं रहा है, इसलिए हमेशा एक सतर्क निगाह उस पर होनी चाहिए। पाकिस्तान से संस्थागत ढंग से रिश्ते बढ़ाने चाहिए, व्यक्तिगत रूप से नहीं। इतने महत्वपूर्ण सुरक्षा बेस, एयरबेस की सुरक्षा जिस तरह की होनी चाहिए थी, वह नहीं थी। आंतकी हमले से निपटने के लिए सेना को ही जिम्मेदारी सौंपनी चाहिए थी, एनएसजी को नहीं। कुणाल का कहना है कि पीएमओ के पास शक्तियों का ज्यादा केंद्रीयकरण भी दिक्कत पैदा कर रहा है।