ये है मयकदा यहां रिंद हैं
यहां सबका साकी इमाम है
ये हरम नहीं है ऐ शैख जी
यहां पारसाई हराम है
राजस्थान की चुनावी सियासत पर जिगर मुरादाबादी का यह शेर सटीक बैठता है। सियासत के इस मयकदे में सत्ताधारी कांग्रेस और प्रतिपक्षी भाजपा की हालत एक जैसी है। कांग्रेस में कलह थोड़ा खुलकर है और भाजपा में भीतर ही भीतर। मजे की बात यह कि यहां भी इमाम ही साकी है। सियासत के इस मयखाने में भी पारसाई यानी धैर्य और संयम रखना हराम है। राजस्थान की इस रणभूमि में वर्षों नहीं, दशकों बाद ऐसा दिलचस्प फसाना सबके सामने आया है।
सत्तारूढ़ कांग्रेस ने 2018 के विधानसभा चुनाव में 200 सदस्यों वाले सदन में 99 सीटें जीती थीं (ये अब 108 हैं- एक सीट पर चुनाव बाद में हुआ जिस पर कांग्रेस जीती, दो सीटें उपचुनाव में भाजपा से छीनी और छह बसपा के विलय से)। यह पूर्ण बहुमत से दो सीट कम थी। भाजपा को 73 सीटें मिली थीं, जो पांच साल पहले 2013 की 163 सीटों से 90 कम (ये अब 70 हैं क्योंकि दो उपचुनाव हारे और नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया असम के राज्यपाल बन गए) थीं। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा अपने एक सहयोगी आरएलपी नेता हनुमान बेनीवाल को साथ लेकर सभी 25 सीटें जीत गई।
2018 के चुनाव में कांग्रेस की बागडोर प्रदेश अध्यक्ष के नाते सचिन पायलट के पास थी और चुनाव से ठीक पहले पार्टी के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने पायलट और अशोक गहलोत को एक बाइक पर भी बैठाया। कुछ और मौकों पर दोनों के बीच समन्वय की कोशिशें कीं। आलाकमान ने राजस्थान की बागडोर अशोक गहलोत को अनुभवी मानते हुए सौंपी। माना गया कि वे ही नाजुक बहुमत में सरकार चला सकते हैं। पायलट को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया, साथ ही प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष भी बनाए रखा गया। जुलाई 2020 में पायलट पार्टी समर्थक विधायकों के साथ हरियाणा के मानेसर चले गए। उसके बाद उन्हें न केवल उप-मुख्यमंत्री पद से हटा दिया गया, बल्कि उनकी जगह प्रदेश अध्यक्ष गोविंदसिंह डोटासरा को बना दिया गया। लिहाजा, सत्ता के साथ-साथ संगठन पर भी अशोक गहलोत का वर्चस्व स्थापित हो गया। पायलट कुछ दिन की कशमकश के बाद पार्टी की मुख्यधारा में आ गए, लेकिन उन्होंने गहलोत को समय-समय पर चुनौती देने की अपनी मुहिम जारी रखी। इस लिहाज से देखा जाए तो कांग्रेस आज भी वहीं की वहीं खड़ी है, जहां वह पांच साल पहले थी।
कांग्रेस कई तरह के हमले झेल रही है। सबसे बड़े प्रहार उसके भीतर से हो रहे हैं। पार्टी के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के समय गहलोत और पायलट दोनों के बीच सुलह करवा दी थी लेकिन यह दोस्ती काठ की हांड़ी साबित हुई और मामूली आंच से इसमें धुआं उठ खड़ा हुआ। आज यह दल विभाजन के खतरनाक दहाने पर खड़ा है।
कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ताओं का मानना है कि राजनीतिक माहौल प्रत्याशा से भरा हुआ है क्योंकि मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मतदाताओं का विश्वास और समर्थन जीतने के लिए अथक अभियान चलाया गया है। पायलट का आकर्षण युवाओं में आज भी है, लेकिन राजनीतिक व्यग्रता और उतावलेपन में कई चीजें उनके हाथ से फिसल गई हैं। इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस सरकार बेरोजगारी, कृषि संकट, स्वास्थ्य देखभाल और बुनियादी ढांचे के विकास जैसी चिंताओं को दूर करने के लिए ऐतिहासिक योजनाओं को जमीन पर उतार लाने के दावे कर रही है। विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने मजबूत संगठन शक्ति, बूथ प्रबंधन, हिंदुत्व के मुद्दों और वैकल्पिक शासन प्रदान करने का अभियान शुरू कर दिया है। उसने संगठन के अध्यक्ष सतीश पूनिया की जगह सांसद सीपी जोशी को कमान दी है, जबकि नेता प्रतिपक्ष का पद लंबे समय से तपे-तपाए राजेंद्र सिंह राठौड़ को सौंपा है। पूनिया ने अपने कार्यकाल में काफी सक्रियता रखी और प्रमुख नेताओं में खुद को स्थापित करने में कामयाब रहे। प्रदेशाध्यक्ष जोशी भले नवोदित कहे जाएं, राठौड़ सियासी तजुर्बेदार और कई अहम मौकों पर संकटमोचक रहे हैं। यह उनके लिए परीक्षा की घड़ी भी है क्योंकि दोनों दलों ने राजनीतिक प्रदर्शन के लिए इस बार गजब की कमर कसी हुई है।
राजस्थान में विधानसभा की तैयारियों के बीच भाजपा की बैठक
पार्टी आलाकमान का फोकस राजस्थान पर काफी अधिक है और इसीलिए कर्नाटक हारने के बाद अनुसूचित जाति के वोटों को साधने के लिए केंद्र में अर्जुन मेघवाल का कद बढ़ाते हुए उन्हें कानून राज्यमंत्री बनाया गया है। उपराष्ट्रपति पद पर राजस्थान की राजनीति की बारीक कारीगरी के माहिर जगदीप धनखड़ को बैठाना भी दूर की रणनीति का हिस्सा है। भाजपा के आदिवासी नेता किरोड़ीलाल मीणा अपने आपमें ही एक विपक्ष हैं।
कांग्रेस में जहां अशोक गहलोत अप्रत्याशित सक्रियता और प्रचार बल के साथ फिर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं तो सचिन पायलट भी पूरी ताकत के साथ खम ठोंक रहे हैं। हाल में उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ पांच दिन की यात्रा के आखिरी पड़ाव पर एक कामयाब सभा की। उन्होंने कहा, “जनता का समर्थन मेरे मुद्दे को मिला है। मैं वादा करना चाहता हूं कि आखिरी सांस तक प्रदेश की जनता की सेवा करता रहूंगा। राजनीति सिर्फ पद के लिए नहीं होती, जो भी कुर्बानी देनी पड़े तो दूंगा।”
मुख्यमंत्री गहलोत की पार्टी पर पकड़ मजबूत है और बाहरी-भीतरी विरोधियों को हाथ धरने को उन्होंने जगह नहीं छोड़ी है। गहलोत कहते हैं, “मीडिया हमें (पायलट और गहलोत को) लड़ाए नहीं। राज्य में सत्ता वापसी के लिए चुनाव अभियान हमारी जनकल्याणकारी योजनाओं पर आधारित होगा।” वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने भी अपनी सरकार की लोकप्रिय योजनाओं की चर्चा किए बिना नहीं रहे। अलबत्ता, पायलट और भाजपा नेता गहलोत सरकार को चाक पर चढ़ाए रखने का कोई मौका नहीं छोड़ते।
राजस्थान की सियासत के मंच पर कांग्रेस और भाजपा के अलावा और भी किरदार हैं। पिछले चुनाव में बसपा को छह सीटें मिली थीं, लेकिन उसके पूरे विधायक दल का कांग्रेस में विलय हो गया। उसके बावजूद मायावती के नेतृत्व वाली बसपा ने अपने सामाजिक न्याय एजेंडे के माध्यम से दलित और हाशिये के समुदायों को लामबंद करने पर ध्यान केंद्रित किया हुआ है। नागौर सांसद और तीन बार विधायक रह चुके हनुमान बेनीवाल की राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के फिलहाल तीन विधायक हैं, लेकिन बेनीवाल ने खुद तीसरी शक्ति बनने के लिए बड़ा अभियान चला रखा है। बांसवाड़ा-डूंगरपुर और उदयपुर के आदिवासी इलाके में सक्रिय भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) ने पिछले चुनाव में दो सीटें जीतीं थी। वह भी सक्रिय है। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी (आप) भी काफी तैयारी में है। निर्दलीय, जो इस बार 13 हैं, आगे भी उनके लिए जगह रहेगी। इन क्षेत्रीय खिलाड़ियों ने चुनावी गतिशीलता में एक नई जटिलता जोड़ दी है क्योंकि उन्होंने विशिष्ट वोटबैंकों को लक्षित किया है और पारंपरिक राजनीतिक समीकरणों को बदलने की जुगत में लगे हैं।
किसे मिलेगी सत्ता: अशोक गेहलोत और वसुंधरा राजे सिंधिया
प्रदेश में वामदलों की राजनीति अब सिकुड़ रही है। इसके बावजूद इस बार माकपा के दो विधायक हैं। माकपा ने किसान आंदोलन के समय शुरू किए अपने अभियानों को प्रदेश में अनवरत चलाया है। वे इस बार कांग्रेस के प्रति परंपरागत विरोध को किनारे रखकर भाजपा पर ही हमलावर हैं। इस मामले में वाम-सेक्युलर मोर्चों की बैठकों में गाहे-बगाहे थोड़ा वैचारिक मतभेद भी होता रहा है।
विधानसभा चुनावों के पहले जनमत को आकार देने में सोशल मीडिया और प्रौद्योगिकी के प्रभाव में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। राजनीतिक दलों ने युवाओं तक पहुंचने के लिए विभिन्न डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग किया। सोशल मीडिया अभियान, वायरल वीडियो और लक्षित संदेश राजनीतिक संचार रणनीतियों का अभिन्न अंग बन गए, हालांकि फर्जी समाचारों और गलत सूचनाओं के प्रसार ने भी चुनौतियां खड़ी कीं। पार्टियों को तथ्य-जांच तंत्र और डिजिटल साक्षरता अभियानों में निवेश करने के लिए मजबूर किया। कुछ जगह ऐसा भी दिख रहा है कि दोनों प्रमुख दलों के भीतर प्रतिद्वंद्वी नेताओं के प्रति तो अपार प्रेम है, लेकिन अपनी पार्टी के नेताओं के प्रति गहरी डाह।
राजस्थान में 2023 के विधानसभा चुनावों के लिए बिछी बिसात ने बड़ा दिलचस्प मेला रचा है। सवाल है कि क्या राजस्थान में एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा वाला ढर्रा बदलेगा? इस लिहाज से इस बार भाजपा भी चिंता में है। अगर गहलोत और पायलट एक हो जाते हैं तो बेशक खेल दिलचस्प हो जाएगा। अपनी एजेंसियों के सर्वे के आधार पर गहलोत कई बार कह चुके हैं कि वे और उनकी पार्टी फिर भारी बहुमत से सत्ता में आने वाले हैं।
राजस्थान के लोगों की आकांक्षाओं, चिंताओं और सपनों को प्रतिबिंबित करने की जिम्मेदारी हर दल की है, लेकिन भाजपा का ध्यान हिंदुत्व पर अधिक है। राजस्थान का लोकमानस इस तरह के मुद्दों से अधिक प्रभावित नहीं होता। अलबत्ता, वह रोटी को अलट-पलट कर सेंकने और उसे फुलाकर रखने का लोभ संवरण कम ही करता है। ऐसे में उम्मीद है कि आगामी विधानसभा चुनाव भी राज्य के राजनीतिक इतिहास में इस बार नए पन्ने जोड़ेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)