पंजाब में किसान यूनियनों के सियासी मैदान में उतरने से पहली बार विधानसभा चुनाव पंचकोणीय होने के आसार हैं। कांग्रेस, अकाली दल-बसपा गठबंधन, कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस (पीएलसी) के साथ सांसद सुखदेव सिंह ढींढसा की शिअद (संयुक्त)और भाजपा का गठजोड़, आम आदमी पार्टी और किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल की अगुआई में 22 किसान संगठनों का ‘संयुक्त समाज मोर्चा’ राज्य की सभी 117 विधानसभा सीटों पर अपना भाग्य आजमाएंगे। संयुक्त समाज मोर्चा की वजह से सत्तारूढ़ कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों का चुनावी गणित बिगड़ सकता है। हालांकि पेंच यह भी है कि चुनाव में उतरने से किसान संगठनों की एकजुटता बिखरने लगी है। दरअसल, संयुक्त समाज मोर्चा के अलावा भारतीय किसान यूनियन (बीकेयू) हरियाणा के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी की संयुक्त संघर्ष पार्टी भी पंजाब के चुनावी अखाड़े में उतरने की घोषणा कर चुकी है। इससे किसान संगठनों की फूट खुल गई है।
एकजुट होकर 15 महीने तक अनुशासित किसान आंदोलन चलाने वाले संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) का हिस्सा रहे पंजाब के 32 में से 22 संगठनों ने संयुक्त समाज मोर्चा के तहत सियासी मैदान में उतरने की घोषणा की है, लेकिन 10 किसान संगठन किनारा कर चुके हैं। जोगिंदर सिंह उगरहां की बीकेयू (एकता उगरहां), बीकेयू (डकौंदा) और बीकेयू (लक्खोवाल) और जगजीत सिंह दलेवाल की बीकेयू (एकता सिद्धूपुर) जैसे बड़े किसान संगठनों समेत 10 किसान संगठनों ने राजेवाल के संयुक्त समाज मोर्चा का विरोध किया है। एसकेएम ने केंद्र सरकार के साथ गठित होने वाली एमएसपी कमेटी में बलबीर सिंह राजेवाल और गुरनाम सिंह चढूनी को शामिल न करने का फैसला किया है। इसकी पुष्टि करते हुए एसकेएम नेता राकेश टिकैत ने कहा, ‘‘चुनाव लड़ने वाले 22 किसान संगठनों को लेकर एसकेएम की 15 जनवरी को होने वाली बैठक में फैसला लिया जाएगा कि ये किसान नेता अब एसकेएम का भी हिस्सा रहेंगे या नहीं।’’
बीकेयू उगरांह के महासचिव सुखदेव सिंह कोकरीकलां ने आउटलुक से कहा, ‘‘कुछ किसान संगठन विधानसभा चुनाव लड़ रहे हैं, यह किसानों की एकता को कमजोर करने की साजिश है। हम न चुनाव लड़ेंगे और न ही किसी पार्टी को समर्थन देंगे।’’ शिरोमणि अकाली दल के सरंक्षक प्रकाश सिंह बादल के करीबी रहे पंजाब मंडी बोर्ड के पूर्व चेयरमैन तथा भारतीय किसान यूनियन (लक्खोवाल) के अध्यक्ष अजमेर सिंह लक्खोवाल ने कहा, ‘‘हमारी यूनियन न चुनाव लड़ेगी और न किसी को समर्थन देगी। उन्होंने कहा कि किसानों की कई मांगें अभी बाकी हैं। ऐसे में राजनीतिक मोर्चा खड़ा करने से किसान संगठनों के लिए परेशानी हो सकती है।’’
लेकिन बलबीर सिंह राजेवाल ने आउटलुक से कहा, ‘‘22 किसान संगठनों और समाज के अन्य वर्गों की सहमति से लिया गया फैसला हर वर्ग के हित के लिए है। हमें उम्मीद है कि पंजाब की जनता हमारे मोर्चे को अपना समर्थन देगी और बदले में हम पंजाब की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। हमारे पास सभी 117 सीटों के लिए योग्य उम्मीदवार हैं। चुनाव आयोग के पास पार्टी का पंजीकरण और चिन्ह जारी होते ही उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया जाएगा।’’
चुनौती कितनी दमदारः राजेवाल के नेतृत्व में 22 किसान संगठन मैदान में, जिससे पारंपरिक दलों का गणित गड़बड़ा सकता है
जाहिर है, संयुक्त समाज मोर्चा का असर शहरों से अधिक ग्रामीण इलाकों में पड़ेगा। खासकर मालवा क्षेत्र में राजेवाल और चुनाव में उतरी यूनियनों का असर सबसे ज्यादा है, इसलिए संयुक्त समाज मोर्चा मालवा की 65 विधानसभा सीटों पर अकाली दल, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) का खेल बिगाड़ सकता है। 2017 के विधानसभा चुनाव में आप की 20 सीटों में अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों से ही थीं। आप का किसान संगठनों से गठजोड़ हो जाता है तो ग्रामीण क्षेत्रों में आप को फायदा हो सकता है। आप की मालवा में अधिक पैठ है। इसी वजह से आप गठबंधन की जोड़-तोड़ में लगी है पर पेंच मुख्यमंत्री उम्मीदवार पर फंसा है। संयुक्त समाज मोर्चा बलबीर सिंह राजेवाल को चुनाव से पहले मुख्यमंत्री के तौर पर पेश करने की शर्त पर अड़ा है जबकि राजेवाल को आगे करने से आप को पार्टी संगठन में विद्रोह का डर सता रहा है।
किसान संगठनों के चुनाव मैदान में उतरने से सबसे बड़ा झटका सत्तारूढ़ कांग्रेस को लग सकता है। किसान आंदोलन, कर्ज माफी, मुआवजे के मुद्दे पर किसानों को अपने पाले में पाने वाली कांग्रेस के सामने अब चुनाव में किसान संगठन खुद हैं। इसी तरह खुद को पंथक पार्टी कहने वाली शिरोमणि अकाली दल का कोर वोट बैंक ग्रामीण सिख हैं पर किसान संगठनों के
चुनाव लड़ने से गांवों में अकाली दल का वोट बैंक बंटेगा। एनडीए के साथ भागीदारी में केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल रहा अकाली दल पहले ही कृषि कानून के समर्थन पर किसानों के विरोध से घिरा हुआ है। भले ही उसने भाजपा से तीन दशक पुराना गठजोड़ तोड़ा लेकिन किसान उसे माफ नहीं कर पाए हैं। भाजपा से गठजोड़ तोड़ने के बाद अकाली दल को शहरी वोट बैंक के लिए भी मशक्कत करनी पड़ रही है।
कांग्रेस ने चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर मास्टर स्ट्रोक खेला, लेकिन प्रदेश पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिद्धू ही उनका पत्ता काटने में लगे हैं
सिंतबर 2021 में मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद पंजाब लोक कांग्रेस खड़ी करने वाले पूर्व कैप्टन अमरिंदर सिंह की मालवा के गांवों के साथ शहरों में भी अच्छी पकड़ रही है। कैप्टन के किसान नेताओं से भी अच्छे रिश्ते रहे हैं। लेकिन अब किसान नेता खुद चुनाव लड़ रहे हैं तो कैप्टन को झटका लगा है। किसानों के राजनीति में आने से भाजपा के नेता कह रहे हैं कि हम तो शुरू से ही कह रहे थे कि आंदोलन के नाम पर किसान राजनीति कर रहे थे। शहरी वर्ग भी 15 महीने चले किसान आंदोलन से कारोबार प्रभावित होने के चलते ज्यादा खुश नहीं था। इसका लाभ भाजपा को शहरों में मिल सकता है। इसी वजह से कैप्टन अमरिंदर का भाजपा और ढींढसा की पार्टी से बना गठजोड़ 40 शहरी सीटों पर ही ध्यान केंद्रित कर रहा है।
लेकिन सभी पारंपरिक दलों की चिंता ग्रामीण वोटों को लेकर ज्यादा है। असल में, 117 सीटों में से 77 सीटों पर ग्रामीण वोट बैंक का खासा प्रभाव है। 77 में से 26 सीटें पूरी तरह ग्रामीण हैं, जबकि 51 कस्बाई सीटों पर भी किसानों का असर काफी है।
सीएम चेहरे को लेकर घमासान
अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल ही अकाली-बसपा गठजोड़ का मुख्यमंत्री चेहरा हैं जबकि संयुक्त समाज मोर्चा का मुख्यमंत्री चेहरा बलबीर सिंह राजेवाल हैं। इसके विपरीत सत्तारूढ़ कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, भाजपा-पीएलसी और अकाली (संयुक्त) में चुनाव से पहले सीएम चेहरे को लेकर घमासान है। मुख्यमंत्री बनने को आतुर पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू अपनी सभाओं में विधानसभा चुनाव से पहले सीएम उम्मीदवार घोषित किए जाने की बात दोहरा रहे हैं। इस तरह वे पार्टी आलाकमान पर मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के बदले अपने पक्ष में अभी से दबाव बना रहे हैं।
अमरिंदर ने ढींढसा और भाजपा के साथ गठबंधन किया है
कांग्रेस आश्वस्त है कि 2022 में भी जीत उसी की होगी, इस लिए पार्टी नेता चुनाव जीतने से ज्यादा इसमें उलझे हैं कि अगला सीएम कौन बनेगा। राज्य में 32 फीसदी दलित मतदाताओं को साधने के लिए पहले दलित सीएम चरणजीत सिंह चन्नी को लाकर पार्टी ने मास्टर स्ट्रोक चला था लेकिन चन्नी का खेल बिगाड़ने के लिए नवजोत सिंह सिद्धू पूरा जोर लगाए हुए हैं। चन्नी से पहले हिंदू चेहरे सुनील जाखड़ को मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किए जाने के बाद हाशिए पर धकेलना कांग्रेस को भारी पड़ सकता है।
अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल ने मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर अपने पत्ते न खोलने पर कांग्रेस, आप, भाजपा और उसके सहयोगी दलों पर कटाक्ष किया। उनका कहना है, ‘‘चुनाव नतीजों से पहले मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने से डरने वाले इन तमाम दलों को बगावत का डर सता रहा है। दिल्ली में बैठे हाइकमान के रिमोट से चलने वाले ये दल पंजाब को भी दिल्ली से बैठकर चलाएंगे, जो पंजाब की जनता को कतई मंजूर नहीं।’’ हालांकि इस पंथक पार्टी पर 2015-16 में श्री गुरुग्रंथ साहिब की बेअदबी के लगे दाग अभी तक नहीं छूटे हैं। दूसरे, ड्रग्स तस्करों को सरंक्षण के आरोप में पुलिस की एफआइआर से घिरे अकाली रणनीतिकार बिक्रम सिंह मजीठिया का भूमिगत होना पार्टी के लिए नुकसानदायक हो सकता है। मजीठिया सुखबीर बादल की पत्नी और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के भाई हैं।
आम आदमी पार्टी में मुख्यमंत्री चेहरे को लेकर रस्साकशी जारी है। हालांकि अपने समर्थकों के जरिए सांसद भगवंत मान खुद को मुख्यमंत्री घोषित किए जाने का दबाव बनाए हुए हैं लेकिन चुनाव प्रचार तो केजरीवाल के नाम पर ही
रहा है। आप का नारा है ‘इक मौका केजरीवाल नू।’ केजरीवाल ने इतना जरूर कहा है कि पंजाब में सीएम चेहरा सिख समाज से होगा लेकिन अभी तक कोई नाम सामने नहीं आया है।
तीन बार पंजाब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और दो बार मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह बतौर सीएम दूसरी पारी पूरी करने से पहले ही सीएम पद से हटाए जाने के बाद अपमान का बदला लेने के लिए मैदान में डटे हैं। 80 की उमर में पंजाब लोक कांग्रेस बना कैप्टन भाजपा के साथ मिलकर चौथे फ्रंट के तौर पर अगली पारी बतौर सीएम खेल सकते हैं या नहीं, यह कैप्टन ने चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा पर छोड़ दिया है। दरअसल कैप्टन की मंशा कांग्रेस को पंजाब की सत्ता से बाहर करने की है। पंजाब के चुनाव नतीजे अब भाजपा के लिए भी अहम हैं क्योंकि अकाली दल से अलग होने के बाद भाजपा पहली बार चुनाव मैदान में है। दूसरे, कृषि कानून रद्द होने के बाद भाजपा पंजाब में अपना खोया जनाधार पाने की कोशिश में है। तीसरे, उसके पास सीएम के तौर पर अपना कोई बड़ा सिख चेहरा नहीं हैं।
अब सबकी नजरें इस बात पर टिकी हैं कि 15 महीने लंबे संगठित और अनुशासित आंदोलन के दम पर केंद्र सरकार को कृषि कानून वापस लेने पर मजबूर करने वाले किसान संगठनों की सियासी पारी भी क्या आंदोलन की तर्ज पर सफल होगी? दांव पर यह भी है कि अकाली दल, कांग्रेस और आप के पाले में रहे बीकेयू (राजेवाल) के किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल बतौर सीएम उम्मीदवार पारंपरिक सियासी दलों के आगे टिक पाएंगे या नहीं?