दिल्ली चुनाव में आप की बंपर जीत के बाद विधानसभा में विपक्ष लगभग नहीं के बराबर है। बीजेपी के सिर्फ़ तीन विधायकों को किसी लिहाज से मजबूत विपक्ष नहीं कहा जा सकता है। विधानसभा ही नहीं पार्टी के भीतर भी कोई मजबूत विपक्ष नहीं है। असहमति की दो-चार बची-खुची आवाज़ों को भी किनारे लगाने की कोशिश लगातार तेज़ होती जा रही है। अरविंद केजरीवाल के समर्थक उऩ्हें पार्टी का एकछत्र नेता बनाने में जुटे हैं। वह कुछ ऐसे ही व्यवहार कर रहे हैं जैसे कांग्रेस के लोग गांधी परिवार के पक्ष में तर्क गढ़ते हैं और भारतीय जनता पार्टी के लोग मोदी के पक्ष में। यह प्रक्रिया एक निरंकुश नेता के निर्माण के अलावा और कुछ नहीं कर सकती हैं। जिसके आसपास सिर्फ वही बचा रहेगा जो उसकी हां में हां मिलाएगा। किसी भी आलोचना को कुचलने का जो तरीका परंपरागत पार्टियों का रहा है आप भी उसी रास्ते पर है।
आम आदमी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का सवाल हमेशा उठता रहा है। जन लोकपाल, पारदर्शिता, स्वराज जैसे लुभावने मुद्दों को साथ लेकर अस्तित्व में आयी पार्टी के भीतर एक व्यक्ति के आसपास सारी सत्ता का केन्द्रित हो जाना किसी भी लिहाज से लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता है।
योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे कुछ नेता लगातार पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र का मामला उठाते रहे हैं। लेकिन केजरीवाल और उनके साथी इस मुद्दे की उपेक्षा करते रहे हैं। दूसरी पार्टियों के तौर-तरीक़ों की आलोचना करने वाली पार्टी का आत्मालोचना के लिए तैयार न होना उसे नई कांग्रेस या बीजेपी तो बना सकता है एक साफ-सुथरी लोकतांत्रिक पार्टी नहीं बना सकता।
अरविंद केजरीवाल ने कहा है कि वह पार्टी के भीतर चल रही गतिविधियों से दुखी हैं। उन्होंने आगे लिखा है कि दिल्ली की जनता ने जो भरोसा पार्टी पर जताया है यह उससे विश्वासघात है। वह यह नहीं बताते कि क्या विश्वासघात है। केजरीवाल के इस बयान से लगता है जैसे वह योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को विश्वासघाती ठहराने पर तुले हुए हैं। अगले ट्वीट में पाक-साफ बनने की कोशिश करते हुए केजरीवाल लिखते हैं कि मैं इस बेहूदा बहस में नहीं पड़ना चाहता हूं-मैं सिर्फ़ दिल्ली सरकार में ख़ुद को केन्द्रित करना चाहता हूं। उन्होंने यह भी दावा किया है कि मैं जनता के भरोसे को किसी हालत में नहीं टूटने दूंगा।
प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव पार्टी के भीतर कई असुविधाजनक लेकिन जरूरी सवाल उठाते रहे हैं। वह दिल्ली से बाहर पार्टी के चुनाव लड़ने की वकालत करते रहे हैं। जबकि केजरीवाल इसके विरोध में हैं। अगर कोई भी पार्टी देशभर में विकास करना चाहती है तो यह जरूरी है कि दूसरी राज्यों में भी वह पांव पसारे। केजरीवाल ने हरियाणा राज्य कमेटी की सिफारिशों के बावजूद पार्टी को सिर्फ़ इसलिए राज्य विधानसभा चुनाव नहीं लड़ने दिया क्योंकि उन्हें डर था कि चुनाव हारने पर उसका दिल्ली विधानसभा चुनाव में नकारात्मक असर पड़ेगा। इसके अलावा दिल्ली में जिस तरह के प्रत्याशियों को इस बार आम आदमी पार्टी ने चुनाव लड़ाया। उनमें से कई आपराधिक छवि के लोग हैं। इस बात का बाहर आना भी केजरीवाल कैंप को अच्छा नहीं लगा।
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के एक लोकप्रिय नेता हैं। कई बार लोकप्रिय बनने के लिये जिस तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। उनके गहरे राजनीतिक निहितार्थों को टटोला जाये तो वह लोकतंत्रिक प्रक्रियाओं के विरोध में खड़े हो जाते हैं। बहुमत की ताक़त के बल पर सही बात उठाने वालों को खलनायक साबित करने की कोशिश की जाये, यह जनपक्षीय राजनीति का संकेत नहीं है। कोई भी नायक तभी बड़ा बनता है जब वह अपने पीछे सिर्फ़ भीड़ न खड़ी करे बल्कि उसे समाज के न्यायप्रिय, बौद्धिक और जागरूक लोग भी पसंद करें।