“यह लड़ाई बंगाली और बाहरी के बीच की है’’- सौगत रॉय, तृणमूल कांग्रेस सांसद और प्रवक्ता
“यह लड़ाई बंगाल की आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत को बहाल करने और उसे फिर सोनार बांग्ला में बदलने की है’’- अमित शाह, भाजपा नेता केंद्रीय गृह मंत्री
बदस्तूर मोर्चे डट गए हैं। लामबंदी नए सिरे से होने लगी है। लामबंदी भी ऐसी कि एक पक्ष दूसरे पाले के सिपहसालार तोड़ता है तो फौरन दूसरी तरफ से वार होता है और प्रतिद्वंद्वी खेमे से कोई तोड़ लिया जाता है या अपनी ओर से गए हुओं में से कोई वापस लाया जाता है। यह लामबंदी इतनी तीखी है कि परिवार और पति-पत्नी भी बंट रहे हैं। हाल में तृणमूल कांग्रेस के असंतुष्ट सिपहसालार शुभेंदु अधिकारी भारतीय जनता पार्टी की ओर गए तो अगले ही दिन तृणमूल ने भाजपा सांसद सौमित्र खान की पत्नी को तोड़ लिया। इसी तरह भाजपा की शीर्ष जोड़ी में एक, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बोलपुर में रैली के दौरान बाउल गायक बसुदेव दास के घर खाना खाया तो दो-एक दिन बाद ही तृणमूल कांग्रेस सुप्रिमो, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बोलपुर और शांति निकेतन में अपनी रैली के दौरान उन्हीं बसुदेव दास को अपने मंच पर ले आईं। तोड़फोड़ का यह सिलसिला जारी है। अब खबर आ रही है कि बंगाल में दादा कहे जाने वाले बीसीसीआइ के मुखिया सौरभ गांगुली से भेंट के बाद तृणमूल के एक और मंत्री लक्ष्मीरतन शुक्ला ने इस्तीफा दे दिया है। ऐसी लामबंदी की वजहें भी स्पष्ट हैं।
बाउल गायक बासुदेव दास के घर भोजन करते अमित शाह, और (दाएं) अभिषेक बनर्जी
आखिर अगली बड़ी चुनावी लड़ाई का मैदान पश्चिम बंगाल है, जहां अगले तीन-चार महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं। देश के इस पूर्वी मोर्चे की फतह के लिए भाजपा नेतृत्व 2014 के बाद से ही सक्रिय है और तृणमूल के नेताओं के साथ कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं पर डोरे डाल रही है। इसमें भाजपा को 2016 के विधानसभा चुनावों में 3 सीटें ही मिलीं लेकिन 2019 के संसदीय चुनावों में काफी बढ़त हासिल हो गई और उसके 18 सांसद बन गए। इसी आंकड़े पर गौर करें तो भाजपा को 121 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त है। लेकिन यह भी कहा जा रहा है कि संसदीय चुनावों से राज्य चुनावों का गणित अलग तरह से काम करता है। फिर, कोरोनावायरस की महामारी के दौरान वामपंथी पार्टियों ने अपने काडर को समेटने का जुगत किया, जिसका अब कांग्रेस से गठबंधन का ऐलान हो चुका है। इसलिए जंग दिलचस्प हो सकती है।
लेकिन असली लड़ाई अवधारणाओं और आख्यानों की है और यह तेजी से चेहरों में तब्दील हो रही है। एक तरफ ममता बनर्जी हैं तो उनके बरक्स दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा है। अवधारणाएं बंगाली और बाहरी की हैं। इसी वजह से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती हैं कि वह बंगाल को गुजरात या उत्तर प्रदेश नहीं बनने देंगी और बाहरी राज्यों के लोगों को यहां राज नहीं करने देंगी। लेकिन भाजपा की बंगाल इकाई के अध्यक्ष दिलीप घोष के मुताबिक, “यह लड़ाई पश्चिम बंगाल को पश्चिम बांग्लादेश में तब्दील होने से बचाने के लिए है।’’ भाजपा का आरोप है कि ममता बनर्जी सरकार की मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा कर दिया है। उधर, तृणमूल ने “नरेंद्र मोदी की विभाजनकारी राजनीति और विनाशकारी आर्थिक नीतियों’’ से बंगाल को बर्बाद होने से रोकने की कसम खाई है जिससे देश बर्बाद हो गया है। इन तमाम बयानों के आधार पर कह सकते हैं कि 2021 में बंगाल की चुनावी जंग अलग-अलग आख्यानों की लड़ाई है।
सांस्कृतिक मोर्चा
ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और भाजपा के बीच हाइवोल्टेज जंग के यानी विधानसभा चुनाव के करीब चार माह पहले दिसंबर 2020 के अंत में बंगाल की मुख्यमंत्री को नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का समर्थन प्राप्त हुआ। बंगाल के एक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र शांति निकेतन में जन्मे और पले-बढ़े सेन फिलहाल थॉमस डब्ल्यू लैमॉन्टस युनिवर्सिटी प्रोफेसर और अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र और दर्शन के प्रोफेसर हैं। एशिया से साहित्य के पहले नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा शांति निकेतन में स्थापित विश्व भारती विश्वविद्यालय के अधिकारियों ने हाल ही में 87 वर्षीय सेन पर विश्वविद्यलाय की 13 डिसमिल जमीन पर अवैध रूप से कब्जा करने का आरोप लगाया था।
विश्व भारती विश्वविद्यालय केंद्र सरकार की वित्तपोषित है और प्रधानमंत्री खुद इसके चांसलर हैं। विश्वविद्यालय के अधिकारियों पर पिछले दो वर्षों के दौरान टैगोर की इस पवित्र संस्था का भगवाकरण करने की कोशिशों का आरोप लगता रहा है।
इसी के चलते मुख्यमंत्री ने टैगोर के प्रति अपनी श्रद्धा जताते हुए सेन को एक पत्र लिखा और सार्वजनिक रूप से आरोप लगाया कि सेन को इसलिए निशाना बनाया जा रहा है क्योंकि वे भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे और आर्थिक नीतियों का विरोध कर रहे थे।
इसके जवाब में सेन ने लिखा, “मैं न केवल द्रवित हूं, बल्कि बेहद आश्वस्त भी हूं... वहां के घटनाक्रम पर आपकी सशक्त आवाज और आपकी समझदारी मुझे ताकत देती है।’’
सेन सर्वाधिक प्रसिद्ध बंगालियों में एक हैं, लिहाजा टीएमसी ने भी ममता बनर्जी के लिए सेन की प्रशंसा को अतिरंजित करके पेश किया। मुख्यमंत्री अर्थशास्त्र के एक अन्य नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत विनायक बनर्जी के साथ भी काम कर रही हैं। बनर्जी कोविड-19 के प्रबंधन में मुख्यमंत्री की वैश्विक सलाहकार इकाई का हिस्सा रहे हैं और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती पर आयोजित समारोह के लिए राज्य सरकार की समिति के सदस्य भी हैं।
सेन ने ममता के बारे में जो कहा, उसकी भाजपा को कोई परवाह नहीं है। पार्टी की प्रदेश इकाई के अध्यक्ष दिलीप घोष ने सेन को जमीन कब्जा करने वाला बताकर सवाल उठाया कि लोगों को सेन की बात क्यों सुननी चाहिए जबकि उन्होंने निजी फायदे के लिए देश छोड़ दिया है। घोष ने कहा, नैतिकता पर हमें ऐसे व्यक्ति का भाषण नहीं सुनना जिसने तीन विभिन्न धर्मों में तीन बार शादी की हो।
इस पर टीएमसी ने अपने पुराने आरोप को दोहराया कि भाजपा बंगाल की संस्कृति और विरासत के बारे में न तो कुछ जानती है और न ही उसकी परवाह करती है। पार्टी लंबे समय से भाजपा पर आयातित उत्तर-भारतीय संस्कृति को बंगाल पर थोपने की कोशिश करने का आरोप लगाती रही है। टीएमसी के राज्यसभा सांसद सुखेंदु शेखर रॉय ने कहा, भाजपा हर उस चीज के लिए अभिशाप है, जो बंगाली है। अमर्त्य सेन का अपमान वही लोग कर सकते हैं जो नहीं जानते-समझते कि बंगाल की संस्कृति क्या है।
दिलीप घोष का बौद्धिक विरोध एक तरफ, लेकिन भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व बंगाल के साथ अपने सांस्कृतिक जुड़ाव को लेकर काफी लालायित रहा है। जाहिर है, उनके पास चुनने को अपने विकल्प हैं- उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी की शुरुआत के कुछ महान बंगाली चेहरे, जिनमें कुछ प्रमुख सांस्कृतिक हस्तियों और स्वतंत्रता सेनानियों का झुकाव हिंदू राष्ट्रवाद की ओर था।
मिदनापुर की रैली में अमित शाह के साथ शुभेंदु अधिकारी
नाम न छापने की शर्त पर पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, अमित शाह तो 2016 से कह रहे हैं कि बंगाल को जीतने के लिए हमें उससे एक सांस्कृतिक जुड़ाव बनाने की जरूरत है। हमें ऐसी बंगाली विभूतियों पर जोर डालने की जरूरत है जिनकी सोच कुछ हद तक भी हमसे मेल खाती हो। बंगाल में उन्हें अपने सबसे बड़े दो प्रतीकों के रूप में अब तक वंदे मातरम के रचयिता उपन्यासकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय और जनसंघ के नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी मिले हैं।
बंगाल के दो सबसे बड़े प्रतीकों रवींद्रनाथ टैगोर और सुभाष चंद्र बोस सहित राज्य के अधिकांश अन्य विभूति भाजपा की वैचारिकी के बिल्कुल विपरीत ध्रुव पर खड़े मिलते हैं। टैगोर राष्ट्रवाद के कठोर आलोचक थे और बोस सांप्रदायिक सौहार्द और हिंदू-मुस्लिम एकता के बड़े समर्थक थे। आश्चर्य नहीं कि टैगोर और बोस दोनों ही टीएमसी के सबसे बड़े प्रतीकों में से हैं, जिन्हें वह सामने लाती रहती है।
ममता बनर्जी के सितंबर 2015 में पहली बार नेताजी पर गोपनीय फाइलें जारी करने के बाद केंद्र की मोदी सरकार ने अगले साल अपने पास पड़ी नेताजी से जुड़ी गोपनीय फाइलों को सार्वजनिक करने का फैसला किया। इसके बाद से मोदी ने राष्ट्रीय स्तर पर नेताजी को कई बार श्रद्धांजलि अर्पित की है। कई पर्यवेक्षकों की मानें तो ऐसा उन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री और कांग्रेस के आइकन जवाहरलाल नेहरू को नीचा दिखाने के लिए किया था।
देर से सही, लेकिन मोदी अब जब भी बंगाल की जनता को संबोधित करते हैं तो टैगोर को लगातार उद्धृत करते हैं। इसके अलावा केंद्र ने 23 जनवरी, 2021 को बोस की जयंती मनाने के लिए एक समिति बनाई है।
इसके बावजूद राज्य के वर्तमान बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों, कलाकारों, रंगकर्मियों, गायकों और अभिनेताओं के संबंध में भाजपा की एक अलग नीति है। ये सभी घोषित रूप से भाजपा को नापसंद करते हैं और जिनमें से कुछ टीएमसी तो कुछ और वाम दलों के साथ संबद्ध हैं।
इसीलिए मोटे तौर पर राज्यसभा सांसद स्वपन दासगुप्ता, केंद्रीय नीति अनुसंधान प्रकोष्ठ के सदस्य अनिर्बान गांगुली और राज्य इकाई के बौद्धिक प्रकोष्ठ के संयोजक रंतिदेव सेनगुप्ता के नेतृत्व में चलने वाले भाजपा के बौद्धिक अभियान से इन संस्कृतिकर्मियों को बाहर ही रखा गया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बांग्ला मुखपत्र स्वास्तिक के संपादक सेनगुप्ता को दिसंबर में इस पद पर नियुक्त किया गया था। गांगुली, जो अमित शाह के सह-जीवनीकार हैं, उनके करीबी माने जाते हैं।
गांगुली कहते हैं, “हम उन लोगों से संपर्क नहीं करने जा रहे, जो सेन वाली बौद्धिकता के ब्रांड की नुमाइंदगी करते हैं। ये बुद्धिजीवी पिछले छह साल से लगातार मोदी शासन की आलोचना कर रहे हैं, खुले पत्रों पर हस्ताक्षर कर रहे हैं, विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। हमारा उनसे लेना-देना नहीं है। इन स्थापित लोगों से परे भी बुद्धिजीवी हैं, जिनमें कई छोटे शहरों में रहते हैं।"
उन्होंने बताया, हमारा आउटरीच प्रोग्राम बुद्धिजीवियों पर लक्षित नहीं है बल्कि व्यापक नागरिक समाज के सदस्यों के लिए है, जिसमें स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय के शिक्षक, शोधकर्ता, डॉक्टर, इंजीनियर आदि शामिल हैं।
भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व की इन तमाम कोशिशों के बावजूद पार्टी ने सांस्कृतिक मोर्चे पर कई गड़बडि़यां की हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव के सातवें चरण के मतदान से कुछ दिन पहले एक बड़ा राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया था जब कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज में बांग्ला पुनर्जागरण के केंद्रीय व्यक्तित्वों में से एक ईश्वरचंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़ दी गयी थी। यह तोड़फोड़ तब की गई जब अमित शाह की एक रैली कॉलेज के पास से गुजर रही थी।
ममता बनर्जी ने इस मुद्दे को लपकने में कोई समय नहीं गंवाया, वे एक घंटे के भीतर ही मौके पर पहुंच गईं और उन्होंने बंगाल के प्रमुख सांस्कृतिक प्रतीकों में से एक का घोर अनादर करने के लिए भाजपा को दोषी ठहरा दिया। मोदी और शाह ने इस आरोप का खंडन किया और पलट कर टीएमसी को दोषी ठहरा दिया। कुछ दिनों बाद सामने आई इस घटना की वीडियो फुटेज में शाह की रैली में भाग लेने वालों को कॉलेज परिसर और उस कमरे में घुसते हुए दिखाया गया, जहां प्रतिमा रखी थी।
कोलकाता में वाम मोर्चे की रैली का नजारा, वामपंथियों के लिए लड़ाई कड़ी है
पता नहीं, यह संयोग था या कुछ और, लेकिन जिन सीटों पर सातवें चरण का मतदान हुआ, उन पर टीएमसी ने एकतरफा जीत हासिल की।
हाल ही में अमित शाह ने एक प्रतिमा को माला पहनायी, जो भाजपा के मुताबिक आदिवासी नेता बिरसा मुंडा की थी। टीएमसी ने तत्काल भाजपा को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि वह मुंडा की प्रतिमा नहीं थी बल्कि राज्य सरकार द्वारा स्थापित एक अन्य आदिवासी योद्धा की थी। इस घटना के सहारे टीएमसी ने यह प्रचारित किया कि भाजपा बंगाल के बारे में कितना कम जानती है।
इसका जवाब देते हुए दिलीप घोष ने कहा कि भले ही प्रतिमा बिरसा मुंडा की नहीं है, लेकिन अब से इसे उनकी ही माना जाएगा क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्री ने यही समझ कर उसे माला पहनाई थी।
इसी तरह बीते दिसंबर में कोलकाता भाजपा के कुछ नेता पिछले जमाने के एक अभिनेता जहर गांगुली को इलाके में पार्टी के एक रक्तदान शिविर में आमंत्रित करने उनके घर गए थे। जब भाजपा के लोग उनके घर पहुंचे, तो गांगुली का परिवार सदमे में आ गया क्योंकि उनकी मौत तो 1969 में ही हो गई थी।
विभाजनकारी लड़ाईः जातीय बनाम धार्मिक
टीएमसी ने बंगाल के सांस्कृतिक और भाषायी गौरव को दर्शाते हुए जय बांग्ला का नारा दिया तो भाजपा ने इसमें अपनी विभाजनकारी राजनीति का तड़का मारते हुए ममता बनर्जी पर इस्लामी बांग्लादेश की संस्कृति का आयात करने का आरोप लगा डाला।
धार्मिक और जातीय पहचान के बीच विभाजन की जंग मुख्यतः भाजपा और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा 2017 से रामनवमी के त्योहार को लोकप्रिय बनाने के साथ शुरू हुई थी, जो यहां एक छोटा त्योहार हुआ करता था। रामनवमी मनाने के साथ ही उसने जय श्री राम का नारा भी उछाला, जिसकी लोकप्रियता हिंदी पट्टी में तो है लेकिन पश्चिम बंगाल में नहीं के बराबर है।
टीएमसी ने भाजपा पर उत्तर भारतीय संस्कृति का आयात करने का आरोप लगाते हुए नया नारा अपनाया था- जय बांग्ला। दरअसल यही नारा बांग्लादेश मुक्ति संग्राम का प्रमुख नारा था और वर्तमान में बांग्लादेश की सत्तारूढ़ पार्टी अवामी लीग के मुख्य नारों में से एक है।
भाजपा ने टीएमसी को हिंदू विरोधी के रूप में चित्रित करने की जितनी कोशिश की, उतना ही ममता बनर्जी की पार्टी ने उस पर बंगाली विरोधी होने का आरोप लगाने की कोशिश की।
भाजपा और आरएसएस से संबद्घ अन्य संगठनों ने जय श्री राम के नारे को लोकप्रिय बनाने के लिए जो प्रयास किये, उसने कुछ लोगों के बीच क्षेत्रवादी भावनाओं को भी भड़काने का काम किया। लोगों ने इस नारे को बंगाल में गोबर पट्टी के आयात के रूप में देखा।
इसका नतीजा यह हुआ कि बंगालियों के अधिकारों से जुड़े कई संगठन पैदा हो गये, जैसे बांग्ला पक्ष, जातीय बांग्ला सम्मेलन और बांग्ला सांस्कृतिक मंच। ऐसे तमाम संगठन भाजपा के खिलाफ प्रचार कर रहे हैं कि पार्टी उत्तर भारतीय संस्कृति थोपने और बंगाल की सांस्कृतिक विरासत के मूल तत्वों को नष्ट करने की कोशिश कर रही है।
इस तरह से दो विरोधी आख्यान पैदा हुए। एक ओर टीएमसी ने संकल्प लिया कि वह पश्चिम बंगाल को गुजरात या उत्तर प्रदेश में तब्दील नहीं होने देगी और इसके समानांतर बंगाली अधिकार संगठनों ने आवाज उठायी, तो दूसरे छोर पर भाजपा ने पश्चिम बंगाल को पश्चिम बांग्लादेश बनने से रोकने का वादा कर दिया।
भाजपा की राज्य इकाई के महासचिव सयंतन बोस ने कहा, “ममता बनर्जी न केवल बांग्लादेश से नारे आयात कर रही हैं, बल्कि वहां से घुसपैठ की अनुमति भी दे रही हैं, जिससे राज्य की जनसांख्यिकीय स्थिति बदल रही है और राज्य को इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बना दिया है।”
उन्होंने कहा, “केवल भाजपा ही पश्चिम बंगाल के हिंदुओं को बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति जैसी स्थिति से बचा सकती है। केवल भाजपा ही पश्चिम बंगाल को जिहादी प्रभाव से मुक्त कर सकती है।”
बंगाल को “जिहादी प्रभाव से मुक्त’’ करने की इस लड़ाई में भाजपा के साथ आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और हिंदू जागरण मंच जैसे तमाम संगठन खड़े हैं।
दूसरी लड़ाई - जमीनी स्तर पर डिलिवरी
आख्यानों की इस लड़ाई के बीच विधानसभा चुनाव में वास्तविक रूप से निर्णायक मुद्दा लोगों तक प्रशासनिक सेवाओं की पहुंच और डिलिवरी का है।
इस मोर्चे पर ममता बनर्जी की सरकार जहां पिछले एक दशक के दौरान शुरू की गई असंख्य सामाजिक कल्याण योजनाओं पर भरोसा किये हुए हैं, वहीं भाजपा का प्रमुख चुनावी एजेंडा इन योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के कारण शीर्ष से लेकर जमीनी स्तर तक इनका दोषपूर्ण क्रियान्वयन है।
यह बात अलग है कि टीएमसी के कुछ शीर्ष नेताओं के खिलाफ भाजपा द्वारा लगाये गये भ्रष्टाचार के आरोप अब कुंद हो गये हैं क्योंकि इनमें से कई आरोपी खुद भाजपा में शामिल हो गये हैं।
इनमें से वर्तमान में भाजपा के कुछ हाइ-प्रोफाइल नेताओं में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय, कोलकाता क्षेत्र के प्रभारी शोभन चटर्जी और शुभेंदु अधिकारी हैं, जिन्हें अभी पार्टी में पद मिलना बाकी है लेकिन वे सबसे बड़े स्टार प्रचारकों में से एक के रूप में उभरे हैं। ये सभी नारद के स्टिंग ऑपरेशन में आरोपी थे, जिसमें दिखाया गया था कि टीएमसी के सांसदों, मंत्रियों और विधायकों से मिलते-जुलते चेहरे वाले लोगों ने एक फर्जी कारोबारी से पैसे लिए थे। अधिकारी के भाजपा में शामिल होने के बाद पार्टी ने अपने यूट्यूब चैनल से 2016 के नारद स्टिंग ऑपरेशन का वीडियो हटा दिया था।
इसीलिए आज भ्रष्टाचार के नाम पर भाजपा का एकमात्र निशाना हैं ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी। बंगाली में भतीजे को भाईपो कहते हैं। इसी तर्ज पर भाजपा ममता बनर्जी को पिशी (बुआ) कहती है, जबकि आमतौर पर ममता को लोग दीदी कहकर बुलाते हैं।
अमित शाह से लेकर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और अन्य केंद्रीय मंत्रियों से लेकर राज्यस्तरीय तमाम नेता और यहां तक िक टीएमसी से आए नेता भी नियमित रूप से मुख्यमंत्री पर इस बात के लिए निशाना साधते हैं कि वे सिर्फ अपने भतीजे के हितों की देखभाल करती हैं, जो 2011 में ममता बनर्जी के सत्ता में आने के बाद राजनीति में उतरे थे। अभिषेक 2014 से लोकसभा सांसद हैं और टीएमसी के यूथ विंग के प्रमुख हैं। उन्हें पार्टी में ‘नंबर-2’ माना जाता है।
पश्चिम बंगाल के आसनसोल के सांसद तथा केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो ने पूर्वी मिदनापुर जिले में एक जनसभा में कहा, “मवेशियों की तस्करी, अवैध कोयला व्यापार और हर तरह की तस्करी से सारा पैसा शांति निकेतन पहुंचता है, बीरभूम जिले वाला नहीं, दूसरा वाला।”
शांति निकेतन दरअसल दक्षिण कोलकाता के हरीश मुखर्जी रोड पर अभिषेक बनर्जी के आवासीय परिसर का नाम है। 19 दिसंबर को भाजपा में शामिल होने के बाद से ही शुभेंदु अधिकारी अभिषेक को लगातार तोलाबाज भाईपो (वसूलीबाज भतीजा) कह रहे हैं।
‘पिशी-भाईपो सरकार’ को गिराना 2021 में भाजपा का केंद्रीय एजेंडा है। अधिकारी ने 2 जनवरी को कहा था, “तोलाबाज भाईपो ही सभी अपराधियों और पुलिस को नियंत्रित करता है।” हालांकि अभिषेक का नाम अभी तक आधिकारिक रूप से किसी भी घोटाले में सामने नहीं आया है। इसके बावजूद पंचायत और नगरपालिका स्तर पर भ्रष्टाचार के आरोपों की कीमत टीएमसी को भारी पड़ सकती है।
कोलकाता के रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर बिश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार पंचायत और नगर निगम के स्तर पर भारी भ्रष्टाचार के कारण सत्तारूढ़ दल के खिलाफ बनी सत्ता विरोधी लहर ही भाजपा की ताकत का सबसे बड़ा स्रोत है। पंचायत और नगर निगम के स्तर पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के कारण टीएमसी के शासन से बड़ी संख्या में लोग नाराज हैं। वे कहते हैं, “इन स्तरों पर नेताओं ने सरकारी परियोजनाओं के सही लाभार्थियों से उनके नाम सूचीबद्ध करने के लिए वसूली करने, छोटे व्यापारियों और व्यवसायियों से धन ऐंठने और उन स्तरों पर रोजगार के अवसर में हेरफेर करने का काम किया है। ऐसी ही अनियमितताओं के कारण सरकार अपने पूरे कार्यकाल के दौरान आवश्यक पैमाने पर शिक्षकों की भर्ती नहीं कर सकी।”
यह ऐसा तथ्य है जिसे मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने खुद जून 2019 में पार्टी की आंतरिक बैठक के दौरान स्वीकार किया था, जिसके बाद उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान छेड़ा और लोगों से अपने कार्यालय में शिकायत दर्ज कराने को कहा। इसके बावजूद मई 2020 में आये अम्फेन चक्रवात के पीड़ितों को राहत बांटने में सामने आये एक घोटाले ने उनकी छवि को खराब करने का काम किया। चक्रवर्ती ने कहा, “कई लोगों के लिए जिस तरह से उनका दैनिक जीवन पंचायत और नगर पालिकाओं में भ्रष्टाचार से प्रभावित हुआ है, उनके लिए यह सांस्कृतिक विरासत या धर्मनिरपेक्षता और सांस्कृतिक उदारवाद की विरासत से बड़ा मुद्दा यह बनकर उभरा है।” चक्रवर्ती की मानें तो भाजपा के सबसे बड़े फायदों में एक तथ्य यह है कि राज्य की जनता ने आज तक उसे कभी आजमाया नहीं है। 2014 के लोकसभा चुनाव में अपनी उपस्थिति महसूस कराने से पहले भाजपा राज्य में हाशिये की स्थिति में थी। पश्चिम मिदनापुर में 19 दिसंबर की रैली से अमित शाह ने कहा था, “दो दशकों से भी अधिक समय तक कांग्रेस आपके ऊपर राज कर चुकी है। कम्युनिस्टों का तीन दशकों से अधिक समय तक और दीदी का पूरे एक दशक तक राज रहा है। अब मोदी जी को सिर्फ पांच साल दीजिए। हमें एक मौका देकर देखिए।”
आर्थिक मोर्चा
ममता बनर्जी के शासन के खिलाफ भाजपा का एक अन्य प्रमुख आरोप है कि वे बड़े उद्योगों को आकर्षित करने और रोजगार के अवसर पैदा करने में कथित रूप से विफल रही हैं। भाजपा के दिलीप घोष कहते हैं, “मुझे किसी कारखाने का उद्घाटन करतीं ममता बनर्जी की एक तस्वीर दिखा दें। वे केवल मेलों और त्योहारों का उद्घाटन कर रही हैं।”
भाजपा जब कभी राज्य के आर्थिक पतन का सवाल उठाती है तो वह टीएमसी के साथ लगे हाथ वाम दलों को भी लपेट लेती है जिन्होंने 34 साल तक राज्य पर शासन किया। ऐसा वह यह सुनिश्चित करने के लिए करती है कि वामपंथियों के दोबारा उदय की कोई गुंजाइश न बची रहे क्योंकि भाजपा की योजना ममता बनर्जी और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व के बीच ध्रुवीकृत लड़ाई सुनिश्चित करने की है। इस चुनावी बिसात पर खुद प्रधानमंत्री मोदी बंगाल चुनाव के लिए भाजपा का चेहरा हैं।
भाजपा की बंगाल इकाई के वरिष्ठ सदस्य उद्योगपति शिशिर बाजोरिया के मुताबिक, पश्चिम बंगाल और कोलकाता “सच्चा मिनी इंडिया’’ हुआ करता था। वे कहते हैं, “केरलवासियों, राजस्थानियों, पंजाबियों और अन्य सभी जाति समूहों के लिए, बंगाल अपने गृह राज्यों के बाहर सबसे महत्वपूर्ण राज्य हुआ करता था क्योंकि यह रोजगार, शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का केंद्र था। दुर्भाग्य से आज बंगालियों को शिक्षा, रोजगार और आय के अन्य अवसरों के लिए पूरे देश में जाना पड़ता है। यहां तक कि कोलकाता का साल्ट लेक सिटी का उपनगर, जिसे रोजगार केंद्र के रूप में बनाया गया था, आज एक वृद्धाश्रम की तरह दिखता है। इसे बदलना होगा।”
उन्होंने कहा कि पार्टी एक समृद्ध राज्य के रूप में बंगाल के गौरवशाली अतीत को फिर से स्थापित करने के लिए विस्तृत, दीर्घकालिक, तात्कालिक और मध्यकालिक योजनाएं तैयार कर रही है। बाजोरिया भाजपा की राष्ट्रीय इकाई की ओवरसीज विंग के सदस्य भी हैं, जिसे ओएफबीजेपी या ओवरसीज फ्रेंड्स ऑफ बीजेपी के नाम से जाना जाता है।
बाजोरिया ने कहा, “सोनार बांग्ला पश्चिम बंगाल के लिए नहीं बल्कि पूरे पूर्वी भारत के विकास के लिए जरूरी है। हम विभिन्न उद्योगपतियों और संभावित निवेशकों के साथ बातचीत शुरू कर रहे हैं ताकि यह समझा जा सके कि पश्चिम बंगाल को एक निवेश गंतव्य बनाने के लिए क्या जरूरी है।”
भाजपा ने दिसंबर में बंगाल में सत्ता में आने पर 75 लाख नौकरियों का वादा करते हुए परचे जारी किए थे, लेकिन जल्द ही उसने यह परचा वापस ले लिया। पार्टी की प्रदेश इकाई के महासचिव सयंतन बसु ने बताया, “हमारा आशय नौकरी देना नहीं था, रोजगार के अवसरों का सृजन था।” जाहिर है, टीएमसी ने आर्थिक रूप से पिछड़े होते जाने के आरोपों का खंडन किया है। दिसंबर में प्रकाशित सरकार के ‘रिपोर्ट कार्ड’ में दावा किया गया था कि प्रति व्यक्ति आय का औसत 2010 में 51,543 रुपये से दोगुने से अधिक बढ़कर 2019 में 1,09,491 रुपये हो गया है और राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 53 फीसद (4.51 लाख करोड़ रुपये से 6.9 लाख करोड़ रुपये) की वृद्धि हुई है। इसमें दावा किया गया कि इस दशक के दौरान कृषि और संबद्ध सेवाओं में 30 फीसद की वृद्धि हुई, जबकि उद्योगों में 60 फीसद और सेवा क्षेत्र में 62 फीसद की वृद्धि हुई।
रिपोर्ट में दावा किया गया है, “बंगाल का बजट पिछले दशक में तीन गुना हो गया है, 2011 के 84,804 करोड़ रुपये से बढ़कर 2020 में 2.55 लाख करोड़ रुपये।” कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज के भूतपूर्व प्रिंसिपल और राजनीतिक विश्लेषक अमल कुमार मुखोपाध्याय के मुताबिक कोविड-19 के कारण लगे लॉकडाउन के दौरान बंगाल के प्रवासी कामगारों की वापसी से पता चला कि कैसे बंगाल के युवा अधिक संख्या में बेहतर संभावनाओं के लिए दूसरे राज्यों के लिए रवाना हो रहे थे। मुखोपाध्याय ने कहा, “यह बड़े उद्योगों को आकर्षित करने में राज्य की असफलता के परिणामों में से एक है।”
ममता बनर्जी 2011 में सिंगूर, नंदीग्राम और भांगड़ जैसी जगहों पर पूर्ववर्ती वाममोर्चा सरकार के भूमि अधिग्रहण अभियान के खिलाफ खड़े हुए लोकप्रिय आंदोलनों की पीठ पर सवार होकर सत्ता में आई थीं। उन्होंने भूमि विभाग को अपने मातहत रखा और किसी भी निजी औद्योगिक परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण नहीं करने की नीति को अपनाया। टीएमसी ने औद्योगीकरण की विफलता संबंधी आरोपों को खारिज करते हुए कहा है कि सरकार ने लघु और छोटे उद्योगों, कुटीर उद्योगों और हस्तशिल्प, ग्रामीण और कृषि आधारित उद्योगों पर अधिक ध्यान केंद्रित किया है- ऐसे उद्योग जो पूंजी सघन, उच्च प्रौद्योगिकी, स्वचालित संयंत्रों के मुकाबले कहीं अधिक रोजगार पैदा करते हैं।
बहरहाल, आख्यानों और चेहरों की लड़ाई धारणाओं से ही जीती जाती है। इसलिए देखना होगा कि अगले दो महीने में कैसी धारणाएं बनती हैं। फिर यह भी कि कृषि कानूनों का राज्य के किसानों पर क्या असर पड़ता है। यह खासकर उत्तर बंगाल में देखने लायक होगा। एक बात और गौरतलब होगी कि वाम मोर्चा और कांग्रेस कैसा प्रदर्शन करते हैं।
पुस्तक अंश
जोड़तोड़ और जोर आजमाइश
असली चुनावी जंग 2021 के समर में अभी लगभग एक साल था, लेकिन मई 2020 के अंत से ही भाजपा चुनावी के मूड में आ गई। 27 मई को जिस दिन ममता बनर्जी की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के चार साल पूरे किए, उसी दिन पश्चिम बंगाल के शीर्ष भाजपा नेताओं ने ‘ऑर नोई ममता’ नाम से एक सोशल कैंपेन लॉन्च किया, जिसका शाब्दिक अर्थ है, ‘ममता और नहीं।’ ट्विटर पर #ऑरनोईममता के माध्यम से भाजपा नेताओं ने पूरे देश में राज्य सरकार की धज्जियां उड़ाईं।
उसी शाम दिलीप घोष ने उनके खिलाफ नौ-सूत्री आरोप-पत्र जारी किया। उन्होंने राज्य इकाई के कार्यालय में मीडिया से कहा कि पिछले नौ साल में राज्य में वे नौ बिंदुओं- कोविड-19 कुप्रबंधन, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गड़बड़ी, कानून-व्यवस्था में गड़बड़ी और लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन, ध्वस्त अर्थव्यवस्था, ध्वस्त शिक्षा प्रणाली, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के साथ हिंदू और शरणार्थी विरोधी रवैये जैसे मामले में सरकार नाकाम रही हैं।
टीएमसी ने भी भाजपा और केंद्र पर पलटवार करते हुए आरोप लगाया कि जब सरकार को कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई लड़नी थी, चीन के साथ सीमा गतिरोध से निपटना था, खासकर बंगाल में तूफान के बाद राहत और पुनर्निमाण पर ध्यान देना था, तब सत्तारूढ़ दल साल भर पहले ही चुनाव पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश कर रहा था।
9 जून को अमित शाह की रैली में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा सीएए मुद्दे की बहाली का था। उन्होंने सीएए का विरोध करने के लिए बनर्जी पर निशाना साधा और कहा कि बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थी उन्हें ‘राजनीतिक शरणार्थी’ में बदल देंगे। शाह ने एनआरसी का मुद्दा भी उठाया। हालांकि उन्होंने इस विवादास्पद शब्द का इस्तेमाल नहीं किया।
जुलाई में ममता बनर्जी ने जवाब दिया।